असिस्टेंट प्रोफेसर एवम् प्रभारी राजनीति शास्त्र विभाग
राजकीय महाविद्यालय भतरौजखान अल्मोड़ा उत्तराखंड
उत्तराखण्ड का चकबंदी कानून ऐसा विषय है जिसका आज हर वर्ग पर प्रभाव पड़ रहा है और बुद्धिजीवी वर्ग भी इससे अछूते नहीं है। ये सिर्फ किसानों का या काश्तकारों का मसला नहीं है ये है उत्तराखण्ड कि उन भावी पीढ़ियों का मुद्दा है जो अपनी मातृभूमि से दूर होती जा रही है और ना खत्म होने वाला विरह है। जिस राज्य कि ख्याति उसकी जड़ ,जंगल जवानी रही है वहीं स्तम्भ आज जंग खा रहे है।
उत्तर प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री पंडित गोविंद वल्लभ पंत ने सन् 1951-52 मे मुज्जफरनगर मे कहा था कि ‘ धरा धारण करने वाले कि होती है । जब तक धारण करने वाले को धरा का स्वामित्व का अधिकार नहीं मिलेगा तब तक चकबंदी का कोई फायदा नहीं।
इतिहास के आइने में देखे तो भारत में चकबंदी आज़ादी से पूर्व सर्वप्रथम पंजाब में 1925 में हुई थी। आज़ादी के बाद अगर देखा जाए तो उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले कि कैराना तहसील में प्रयोग के तरह इसकी नीव पड़ी। तत्पश्चात 1958 मे पूरे प्रदेश में यह योजना लागू हुई और साथ ही चकबंदी विभाग का गठन भी किया गया। इस प्रयोग कि सफलता देखते हुए अब तक पूरे देश मे 1,63,347 लाख एकड़ भूमि कि चकबंदी हो चुकी है ।
गौर से देखा जाए तो आज भी देश कि आबादी का दो -तिहाई हिस्सा कृषि पर आधारित और निर्भर है और उत्तराखण्ड राज्य भी इसी क्षेत्र पर निर्भर है। कृषि मंत्रालय कि राष्ट्रीय कृषि विकास योजना कि रिपोर्ट के अनुसार देश में कृषि भूमि कि जोत का आकार मात्र 1. 2 हेक्टेयर तक रह गया है । बढ़ती जनसंख्या और पारिवारिक विघटन ने स्थिति को और अधिक विकट बना दिया है जिस कारण ना केवल खेतो का आकार छोटा होता जा रहा है बल्कि उनकी उत्पादकता मे भी खासा कमी आयी है जिसका खामियाजा सबसे अधिक छोटे किसान सह रहे है।
उत्तराखण्ड देवभूमि कि उर्वर भूमि आज दूसरी हरित क्रांति से वंचित है । इसका मुख्य कारण है कि जमीन तो है किन्तु जन जागरूकता के अभाव मे आज उत्तराखंडी मुख्यत: पर्वतीय क्षेत्रों से संबंध रखने वाले चकबंदी को अपनाने में उतनी रुचि नहीं दिखा रहे। इस समय उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों को बढ़चढ़कर शासन का सहयोग कर चकबंदी को अपनाना चाहिए क्योंकि इससे ना केवल बिखरी कृषि जोतो को एक कर उनकी उत्पादकता मे वृद्धि हो पाएगी बल्कि छोटे किसानों को भू – माफिया एवम् अवैध कब्जे से भी मुक्ति मिलेगी। तात्पर्य यह है कि वे अपने ज़मीनी मालिकाना हक़ को पुन: प्राप्त कर पाएंगे और स्वरोजगार के अवसर भी प्राप्त होंगे । साथ ही उत्तराखण्ड कि प्राकृतिक एवम् मानवीय संपदा एवम् संपत्ति बाहरी हाथो मे जाने से बच पाएगी। यहां हिमाचल प्रदेश को एक आदर्श पर्वतीय राज्य माना जा सकता है जिसमे जन सहभागिता के कारण उनकी भूमि संपदा अक्षुण्ण बनी रही है।
यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि भू सुधारो मे चकबंदी एक संजीवनी साबित हो सकती है। इससे ना केवल उत्तराखण्ड के ग्रामीण निर्धनों के भूमि आधार को विस्तार मिलेगा बल्कि उनकी सामाजिक आर्थिक स्थिति में भी सुधार होगा । इसका सकारात्मक प्रभाव पर्यावरण पर भी पड़ेगा ।
उत्तराखण्ड के मैदानी क्षेत्रों में चकबंदी आसानी से हो पा रही है लेकिन इसकी विपरीत पहाड़ों की सीढ़ीनुमा खेत फसलों के लिए अभिशाप साबित हो रही है। फिर भी सब अंधकारमय नहीं है जैसे पर्वतीय जिलों कि बात करे तो मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत का पैतृक गांव खैरसैन ,कृषि मंत्री सुबोध उनियाल का गांव भौड़ी , पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज का धैदगड़ और उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का गांव पंचुर वो क्षेत्र है जहा चकबंदी सफल रही है ।
चकबंदी को अमलीजामा पहनाया जा चुका है बस अब पहल करनी है। अपर सचिव चकबंदी आयुक्त श्री बी एम मिश्रा इस हेतु प्रयासरत है और जनजागरण गोष्ठियां ,मुहिम इत्यादि पर ज़ोर दे रहे है। अगर पूर्व उप निदेशक चकबंदी / D DU श्री वेद प्रकाश गुप्ता कि मानी जाए तो चकबंदी एक वरदान है बस मजबूत इच्छाशक्ति , कर्तव्यनिष्ठा एवम् पारदर्शिता होनी चाहिए एवम् जन सहभागिता होनी चाहिए तभी यह परिकल्पना साकार हो पाएगी।