देहरादून

ऐतिहासिक सांस्कृतिक चेतना का मेला- स्याल्दे बिखौती डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

कत्यूकरकाल में शुरू ऐतिहासिक स्याल्दे बिखौती कौतिक (मेला) अपने पुराने गौरव को हासिल करने की राह चल पड़ा है। करीब 64 वर्ष पूर्व मेले से अलग हुए ईड़ा, जमीनी वार व पार ग्राम पंचायतें पुन: लोक
परंपरा का हिस्सा बनेंगी। खास बात कि छह दशक पहले की तरह तीनों ग्रामसभाओं के रणबांकुरे नगाड़े निषाण लेकर 30 किमी का सफर तय कर ओढ़ा भेंटने की रस्म निभाएंगे। यानि अबकी कौतिक में तीन गांवों की संख्या बढ़ जाएगी। कुछ और ग्राम पंचायतों के भी लोक परंपरा से जुडऩे की उम्मीद है।

दरअसल, वर्ष 1958 की बिखौती के बाद नौज्यूला धड़े की ईड़ा, जमीनीवार व पार ग्राम पंचायतें मेले से अलग होगई थी। मगर इस बार तीनों के गांवों के बुजुर्गों व प्रतिनिधियों ने एक बार फिर लोक परंपरा का अभिन्न हिस्सा बनने का फैसला लिया है। अब गांवों की संख्या बढकर 35 से 38 हो जाएगी। इसका खुलासा करते
हुए मेला समिति अध्यक्ष ने कहा कि ग्राम प्रतिनिधियों से बात हो गई है। बैसाख के अंतिम गते 14 अप्रैल को बाटपुजै (छोटी स्याल्दे) के बाद ओड़ा भेटने के लिए नौज्यूला धड़े के साथ पहुंचेंगे। मेला समिति अध्यक्ष ने कहा कि अन्य धड़ों से छूट गए गांवों को भी मेले से पुन: जोडऩे के प्रयास किए जा रहे हैं। इस मामले में ईड़ा के ग्रामप्रधान ने कहा कि स्याल्दे मेला प्रमुख रूप से तल्ला, बिचल्ला व मल्ला दोरा की पहचान है। अपनी संस्कृति को सहेजने व संवारने के मकसद से आम सहमति के बाद 64 वर्षों के बाद पुन: स्याल्दे मेले का हिस्सा लेने का निर्णय लिया गया है। इस मेले की पहचान पूर्व से ही संस्कृति के ध्वजवाहक के तौर पर रही है। इस धरोहर को जिदा रखने के लिए सभी को आगे आना होगा।माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः’ अर्थात् भूमि माता है और मैं उसका पुत्र हूं कि वैदिक अवधारणा से मातृचेतना का आविर्भाव हुआ है। कुमाऊं के लोकगीतों ने शक्तिपूजा की इस विश्वव्यापी विराट्अ वधारणा को माता और पुत्र के अत्यन्त कोमल और भावना पूर्ण रिश्ते से आज भी बांध रखा है। पाली पछाऊँ के क्षेत्रों में जब भी कोई धार्मिक मेले महोत्सव या संक्रान्ति का आयोजन होता है तो क्षेत्रवासियों की पहली पुकार प्रायः मां जगदम्बा के दरबार में लगाते हुए एक लोकप्रिय झोड़ा ‘खोली दे माता, खोल भवानी धरम केवाड़ा’ को गाए जाने की प्रथा है। इस झोड़ा गीत में माता भवानी से धर्म के द्वार खोलने की प्रार्थना की गई है। उधर देवी मां अपने भक्तों से पूछती है कि पहले यह तो बताओ कि तुम मेरे लिए भेंट-पूजा में क्या क्या लाए हो ? भक्त उत्तर देते हैं कि हम तुम्हारे लिए दो जोड़े
निशाण (ध्वजाएं) और दो जोड़े नगाड़े लाए हैं। इस प्रकार अपने भक्तों पर वात्सल्यपूर्ण अधिकार
जतलाने की भावना से जैसे मां अपने पुत्रों से बात करती है उसी शैली में देवी और उसके भक्तों
का स्नेहपूर्ण शैली में आपसी संवाद इस झोड़े की मूल भावना है-

मां भवानी से भक्तों की पुकार
“ओहो गोरी गंगा, भागीरथी कौ,
के भल रेवाड़ा। ओहो खोली दे माता,खोल भवानी, धरम केवाड़ा।
मां अपने भक्तों से पूछती है
“ओहो क्ये ल्यै रै छै,भेट पखोवा,
क्ये खोलुं केवाड़ा।”
भक्त मां भवानी को उत्तर देते हैं
“ओहो द्वी जोड़ा निसाण ल्यै रयूं,
खोलि दे केवाड़ा।” स्याल्दे बिखौती मेले का इतिहास उत्तराखंड की गौरवशाली लोक परंपरा व संस्कृति से जुड़ा है। यह पर्व कूर्माचल के अतीत,गौरव, राजा एवं प्रजा के बीच बेहतर तालमेल तथा सामरिक कौशल के कुछ बुनियादी सिद्धान्तों पर आधारित कौतिक भी है जिसे उत्तराखंड की सांस्कृतिक नगरी
द्वाराहाट सदियों से एक पुरातन धरोहर के रूप में संरक्षित किए हुए है। चन्द राजाओं के समय
रूहेलों के आक्रमण के कारण भी द्वाराहाट अल्मोड़ा क्षेत्र में युद्ध का माहौल गर्माया हुआ था इसलिए रण बाँकुरे स्याल्दे बिखौती मेले के अवसर पर मां शीतला देवी के प्रांगण में अपनी युद्धकला का भी सामूहिक रूप से प्रदर्शन करते थे।12वीं सदी से शुरू हुआ स्याल्दे मेला पं.बद्रीदत्त पाण्डे ने अपने ग्रंथ ‘कुमाऊं का इतिहास’ में शीतला देवी के मन्दिर निर्माण का काल
कत्यूरी राजा गुर्ज्जरदेव के समय संवत् 1179 निर्धारित किया है। इन ऐतिहासिक तथ्यों से यह
अनुमान लगाना सहज है कि कत्यूरी राजा गुर्ज्जरदेव के समय से ही द्वाराहाट में शीतला देवी के
मंदिर प्रांगण में स्याल्दे मेले की शुरुआत हो गई थी। कत्यूरी शासकों की वीर रस से भरी स्याल्दे
बिखौती की ‘कौतिक’ परंपरा को कालांतर में चंद वंशीय राजाओं ने धरोहर की भांति संरक्षित
किया। इसे बतौर विरासत कुमाऊं के 31 परगनों तक विस्तार दिया और गढ़वाल से भी इस मेले
के सांस्कृतिक सूत्र जुड़ते गए क्योंकि इस मेले के साथ सामरिक युद्धकला के प्रशिक्षण की भावना
भी जुड़ी थी।कुछ मेले आज भी हैं पहचान बनाएआज पश्चिमी उपभोक्तावादी सोच के कारण
यद्यपि नवयुवकों की नई पीढ़ी अपने परंपरागत त्योहारों और मेले उत्सवों के प्रति उदासीन होती
जा रही है। पर्वतीय इलाकों में भी महानगरीय संस्कृति के प्रभाव के कारण तीज त्योहारों का रंग

दिन प्रतिदिन फीका पड़ता जा रहा है। मैदानों की ओर निरंतर रूप से पलायन के कारण त्योहारों
के अवसर पर उमड़ने वाली लोक संस्कृति की चमक दमक अब कम होती जा रही है।पर सन्तोष
का विषय है कि बागेश्वर में उतरैणी का मेला और द्वाराहाट में स्याल्दे बिखौती का मेलाउत्तराखण्ड की लोकसंस्कृति की पहचान आज भी बनाए हुए हैं। द्वाराहाट में स्याल्दे बिखौती मेले के संबंध में कहा जा सकता है कि इस त्योहार के आयोजन में समाज का प्रत्येक वर्ग बड़े उत्साह के साथ बढ़ चढ़ कर अपनी भागीदारी निभाता आया है और महीनों पहले मेले की तैयारी में जुट जाता है। बूढ़े हों या जवान बच्चे हों या महिलाएं प्रतिवर्ष कुछ नई उमंग और नए अंदाज से मेले में हिस्सा लेते हैं।गौरतलब है कि द्वाराहाट क्षेत्र के लोग इस मेले के माध्यम से न केवल अपनी
पुरातन परंपराओं और कला संस्कृति को जीवित रखते आए हैं बल्कि यहां के लोकगायकों तथा
लोक कलाकारों ने कुमाउंनी साहित्य विशेषकर पाली पछाऊं के लोक साहित्य की समृद्धि में भी
अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया ।
अलबेरा बिखौती म्यरि दुर्गा हरै गे,
सार कौतिका चा नैं म्यरि कमरै पटै गे।। कुमाऊं के मशहूर लोकगायक गोपाल बाबू गोस्वामी ने द्वाराहाट में लगने वाले स्याल्दे बिखौती के कौतिक में सुदूर गांवों से आने वाली भारी भीड़ का उल्लेख किया है। इस भीड़ में वो पहाड़ी परिवेश में सजी-धजी अपनी दुर्गा के गुम होने का बखान करते हैं। आज इसी स्याल्दे बिखौती को राज्य मेले के रूप में मान्यता मिल चुकी है। कुमाऊं के पाली पछाऊं में
यह मेला बैसाखी के दिन लगता है। कुमाऊं के दूर-दूर के गांवों से महिलाएं और पुरुष पारंपरिक पहनावे में आते हैं। निशाण फहराते हुए पहाड़ी गाजे-बाजे में नाचते-गाते मेला स्थल पर पहुंचते हैं। झोड़े, चांचरी, छपेली और भगनौल की धूम रहती हैं।एक समय था, जब मनोरंजन के साधन नहीं थे। ऐसे में फुलदेई यानी चैत्र के पहले दिन से ही पहाड़ का रंग बदलने लगता था। गांवों में रोज रात को पुरुष-महिलाएं, लड़के-लड़कियां जुटते और समूह में झोड़ा गायन करते थे। हर साल कुछ नए झोड़े रचे जाते और कुछ पुराने सदाबहार झोड़ों को दोहराया जाता। एक हुड़का वादक हाथ से हाथ मिलाकर गोलाकार में घूमने वाले महिला- पुरुषों के बीच में डांगर (झोड़े में अगला जोड़ क्या होगा, उसे बताने वाला) का काम करता।
यह विधा पहाड़ से अब लगभग विलुप्त होने की कगार पर है। ग्लोबलाइजेशन के युग में
झोड़ों से खांटी कुमाऊंनी शब्द अब विलुप्त से हो रहे हैं। इसलिए नए झोड़ों में कई समसामयिक हिंदी और अंग्रेजी शब्दों का इस्तेमाल भी हो रहा है।यह कुमाऊं के गौरवशाली लोक परंपरा और संस्कृति से जुड़ा है। यह सामूहिक, सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना का प्रतीक है। कृषि और पशुओं का कारोबार करने वाले एक जमाने में इस मेले का इंतजार
करते थे, ताकि यहां आकर अपना माल बेच सकें। स्याल्दे बिखौती मेले की एक विशेषता यह भी है कि इस क्षेत्र के लोक गायक हर साल कोई ऐसा नया लोकगीत या कोई नया झोड़ा चला देते हैं जो अपनी समसामयिक परिस्थितियों से जुड़ा होता है बाद में ये ही झोड़े या लोकगीत पूरे साल लोगों की जुबान में रटते रहने के कारण जनसामान्य में अत्यंत लोकप्रिय भी हो जाते हैं। सभी उत्तराखंड वासियों को स्याल्दे बिखौती की हार्दिक

शुभकामनाएं।लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।

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