कोरोना काल में कितना जायज़ सामाजिक प्रदर्शन?
देहरादून-: (अर्जुन सिंह भंडारी) कोरोना काल उत्तराखंड से कुछ दिनों की छुट्टी लेकर वापिस हमला करने लगा है जिसका असर हर दिन में न्यूनतम 100 मरीजों की पुष्टि के रूप में सबको दिखाई दे रहा है। राज्य सरकार द्वारा लगातार सभी से सोशल डिस्टेंसिंग बनाये रखने का आवाहन किया तो रहा है जिसमे सुरक्षा शील्ड बने हमारे सुरक्षा कर्मी जिनके लिए ढाल बनकर खड़े है वो ही उस सुरक्षा घेरे के लिए आफत बने हुए है।
इसका प्रत्यक्ष उदहारण राजधानी देहरादून में भी देखने को मिला रहा है जहां राजनैतिक मुद्दों के खिलाफ कोरोना काल में सामाजिक रूप से प्रदर्शन करना इतना जायज़ लग रहा है जिसमे हमारी सुरक्षा में दिन रात तैनात सुरक्षा कर्मियों की सुरक्षा से खेलना भी पड़े तो कोई बड़ी बात नही होगी। कोरोना काल में वैसे तो हर जगह आपदा अधिनियम लगा है,राज्य सरकार से लेकर केंद्र सरकार विशेष एतिहात के तौर पर एडवाइजरी भी जरी कर रही है पर आम जनता मार्च अप्रैल माह के कोरोना को आज के समय में जब व्यापक स्तर पर कोरोना फैला है उस संभावना से डरने की बजाय अब ज़्यादा तौर पर सामाजिक हो रही है जबकि भारत में कोरोना की प्रचंडता दिखना अब शुरू हुआ है।
हमारे फ्रंट फुट वारियर हमारे सुरक्षा कर्मी हर ओर से घिरे हुए है,आम जनता की सुरक्षा में जहां वह मार्च से ही मुस्तैद है वहीं शहर व्यवस्था व कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए भी प्रतिबद्धता दिखाए हुए है,और आज के समय में जब कोरोना के असिम्प्टोमैटिक(बिना लक्षण वाले मरीज) शहर में कहीं भी हो सकते है,ऐसे समय में किसी भी रूप का सामाजिक जमावड़ा जाहिर तौर पर शहर सुरक्षा के अंतर्गत पुलिस बल के ही दारोमदार है तो ऐसे में कोरोना काल में प्रदर्शन जैसे राजनैतिक मुद्दों के चलते उनकी सुरक्षा में लगने वाली सेंध का जिम्मेदार कौन है? और ऐसा भी नही है कि प्रदर्शन होगा और सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियाँ न उड़े,यह तो बिल्ली घर में आये और दूध न पिये वाली बात हो गयी। पुलिस बल ऐसे में किसको देखे किसको न देखे वाली समस्या से घिरने को भी मजबूर है।वही भीड़ के सीधे संपर्क में आने से उनको संक्रमण होने की संभावना भी प्रबल होना जायज़ है,,जो बेशक हम आम जनता द्वारा पुलिस बल की सुरक्षा से खिलवाड़ है।
दिन भर धूप में हर रोज पीपीई किट पहन हमारी सुरक्षा में तैनात पुलिस कर्मियों को सुरक्षा व्यवस्था के अतिरिक्त विरोध प्रदर्शन के चलते उमड़ी भीड़ को नियंत्रित करना उनकी सुरक्षा के लिए खतरा तो है ही परंतु जब समाज के जिम्मेदार लोग भी इस खतरे के वाहक बनने लगे तो जिम्मेदारियों की बात बेमानी से लगने लगती है,जिसमे समाज के कुछ वरिष्ठ लोग भी इस परेशानी को बढ़ाने में सहायक बन रहे है।
ऐसे में कल अगर पुलिस बल द्वारा आम जनता से उनकी सुरक्षा की उम्मीद कम ही नज़र आने वाली बात सबके सामने आये तो कोई चौकाने वाली बात नही होगी!!