आधुनिकता की दौड़ में लोक संस्कृति से अलग होती युवा पीढ़ी डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

लोक भारत का एक अनुभवजन्य रूप है। ‘लोक‘ का अर्थ है जो यहां है। लोक का विस्तृत अर्थ है – लोक में रहनेवाले मनुष्य, अन्य प्राणी और स्थावर, संसार के पदार्थ, क्योंकि ये सब भी प्रत्यक्ष अनुभव के विषय हैं। यह लोक अवधारणा मात्रा नहीं है, यह कर्मक्षेत्रा है। प्रत्येक कर्मकांड में लोक दो दृष्टियों से महत्वपूर्ण है-एक तो लोक में जो वस्तुएं सुंदर हैं, मांगलिक हैं उनका उपयोग होता है। सात नदियों का जल या सात कुओं का जल, सात स्थानों की मिट्टी, सात औषधियों, पांच पेड़ों के पल्लव, धरती पर उगनेवाले कुश, कुम्हार के बनाए दीए व बरतन, ऋतु के फल-फूल-से सब उपयोग में लाए जाते हैं। दूसरे लोककंठ में बसे गीतों और गाथाओं, लोकाचार के क्रमों ओर लोक की मर्यादाओं का उतना ही महत्व माना जाता है, जितना शास्त्रा विधि का है। लोकाचार और लोक जीवन का अपना स्थान है।संस्कृति किसी देश की आत्मा होती है। देश का भौगोलिक विस्तार, प्राकृतिक सम्पदा आदि उस देश के शरीर स्वरूप होते हैं। राष्ट्र के निवासियों का रहन-सहन, खान-पान, सामाजिक मान्यताएं, रीति-रिवाज, धार्मिक विश्वास, परम्पराएं उस राष्ट्र की वैज्ञानिक व आध्यात्मिक उन्नति आदि सभी तत्व जो अमूर्त हैं, इन्हीं तत्वों से उस राष्ट्र की संस्कृति का निर्माण होता है। सभ्यता समाज की बाह्य व्यवस्थाओं का नाम है, संस्कृति व्यक्ति के अन्तर के विकास का।’ इस संदर्भ में महादेवी वर्मा का मत भी समीचीन है कि ‘संस्कृति की विविध परिभाषाएं सम्भव हो सकती हैं, क्योंकि वह विकास का एक रूप नहीं, विविध रूपों की एक ऐसी समन्वयात्मक सृष्टि है जिसमें एक रूप स्वत: पूर्ण होकर भी अपनी सार्थकता के लिए दूसरे का सापेक्ष्य है।’किसी राष्ट्र की संस्कृति और वहां की लोक संस्कृति में मूलभत अंतर होता है। राष्ट्र की  संस्कृति वहां निवास करने वाली जाति की आध्यात्मिक, धार्मिक, साहित्यक और बौद्धिक साधना का फल होती है। वहीं लोक संस्कृति किसी भी क्षेत्र विशेष की अन्त: सलिला की भांति होती है, जो उस क्षेत्र के जन-जीवन को रसासिक्त एवं विशिष्ट बना देती है। लोक-संस्कृति पर सभ्यता का आवरण नहीं चढ़ा होता। उसका सहज, सरल और अकृत्रिम रूप-माधुर्य अपना सम्मोहनकारी प्रभाव लोक हृदय पर छोड़ता है।भारत के उत्तरी भाग में स्थित उत्तराखंड राज्य दो मण्डलों में विभाजित है- कुमाऊं मंडल और गढ़वाल मंडल। इन दोनों मंडलों की लोक संस्कृति- कुमाऊंनी लोक संस्कृति और गढ़वाली लोक संस्कृति अपनी विशिष्ट पहचान रखती हैं। कुमाऊं क्षेत्र की संस्कृति अपने विशिष्ट पर्व, उत्सव, मेले, आभूषण, खान-पान, लोकगाथा, लोककथा, लोकनृत्य, कहावत, मुहावरों और लोकोक्तियों की अतिशय सौन्दर्य एवं समृद्धता से अभूतपूर्व है। गढ़वाली लोक संस्कृति की विश्व संस्कृति में अपनी एक विशेष पहचान है। देवभूमि नाम के अनुरूप ही यहां कई मंदिर और धार्मिक स्थल हैं। यह क्षेत्र हिमालय, नदी-झरनों, एवं घाटियों की सुन्दरता से परिपूर्ण है। यहां की संस्कृति अपनी विशिष्ट छाप छोड़ती है चाहे फिर वे महिलाओं की पारंपरिक वेशभूषा हो या स्वादिष्ट व्यंजन। लोकनृत्य ‘लंगवीर’ हो या लोकगीत ‘थडिया’, यहां की हर चीज लोगों को आपस में एक अटूट बंधन में जोड़ती है। खान-पान की दृष्टि से दोनों ही संस्कृतियां समृद्ध हैं- कुमाऊंनी व्यंजन बहुत साधारण और स्वादिष्ट होते हैं। भट्ट की चुणकानी कुमाऊं और गढ़वाल के लोकप्रिय भोजन में से एक है। गहेत के डुबके, गहेत की दात उत्तराखंड में बहुत मात्रा में होती है। अनेक बीमारी में औषधि का काम करती है। इसके अतिरिक्त उत्तराखंड में विभिन्न प्रकार की दालों से डुबके बनाए जाते हैं-चने, गहेत, भट्ट आदि को सिलबटे में पीस कर डुबके बनाये जाते हैं। यह खाने में बहुत स्वादिष्ट होते हैं। झोली भात कुमाऊं के लोगों के प्रमुख भोजन में से एक है, इसे दही या छाछ (मठ्ठा) से बनाया जाता है। मड़वे की रोटी बनाई जाती है बड़ अर्थात् उड़द के पकौडे बनाएं जाते है। स्थानीय मौसमी सब्जियां- लाई, गड़ेरी, अरबी, तुरई, लौकी, कद्दू, मूली, पालक, आलू, प्याज, भिन्डी, बैंगन व शिमला मिर्च आदि विभिन्न तरीकों से बनाई जाती हैं। इसके अतिरिक्त कई प्रकार की जंगलों में होने वाली चीजों से भी सब्जी बनाई जाती है जैसे- सेमल, बिच्छू घास या कंडाली, लिगड, कुशव के फूल व गेठी आदि अनेक प्रकार की सब्जी लोकप्रिय है। कापा मुख्य रूप से सरसों और पालक से तैयार किया जाता है। इसके अतिरिक्त भांग की चटनी भी कुमाऊंनी लोगों के भोजन का एक विशेष भाग है। सामान्य तौर पर कुमाऊंनी और गढ़वाली व्यंजनों में अधिक भिन्नता नहीं है। रस-भात, रोट, छानछयोड आदि गढ़वाल में अधिक प्रसिद्ध हैं। लोक जीवन पद्वति अर्थात् रहन-सहन और वेशभूषा आदि भी उस क्षेत्र विशेष की लोक-संस्कृति के महत्वपूर्ण तत्व होते हैं। यहां परिधान कुमाऊंनी और गढ़वाली संस्कृति का परिचायक है। कुमाऊं क्षेत्र में घाघरा-चोली, लहंगा, आंगडी, खानू, चोली, धोती, पिछौड़ा आदि महिलाओं की पारंपरिक वेशभूषा है। पारंपरिक रूप से गढ़वाल की महिलाएं भी घाघरा तथा आंगडी, धोती तथा पुरूष चूड़ीदार पजामा व कुर्ता पहनते हैं परंतु अब धीरे-धीरे इनके स्थान पर पेटीकोट ब्लाउज व साड़ी का प्रचलन हो गया है। जाड़ों में ऊनी कपडों का उपयोग होता है। विवाह आदि शुभ अवसर पर कई क्षेत्रों में अभी भी सनील का घाघरा पहनने की परंपरा है।कुमाऊं की पारम्परिक नर पोशाक लोनी-कपड़ा धोती या लुंगी जिसे निचले परिधान के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। कुमाऊंनी के पुरूष कुर्ता पहनते हैं। धोती, पैजामा, सुराव, कोट, कुर्ता, भोटू, कमीज, मिरजै, टांक (साफा) टोपी आदि पुरूष के मुख्य परिधान होते हैं। गढ़वाल में भी धोती, चुडीचार, पायजामा, कुर्ती, मिरजई, सफेद टोपी, पगडी, बास्कट, (मोरी) आदि। पुरूषों के पारंपरिक परिधान हैं। लोक जीवन पद्वति अर्थात् रहन-सहन और वेशभूषा आदि भी उस क्षेत्र विशेष की लोक-संस्कृति के महत्वपूर्ण तत्व होते हैं। यहां परिधान कुमाऊंनी और गढ़वाली संस्कृति का परिचायक है। कुमाऊं क्षेत्र में घाघरा-चोली, लहंगा, आंगडी, खानू, चोली, धोती, पिछौड़ा आदि महिलाओं की पारंपरिक वेशभूषा है। पारंपरिक रूप से गढ़वाल की महिलाएं भी घाघरा तथा आंगडी, धोती तथा पुरूष चूड़ीदार पजामा व कुर्ता पहनते हैं परंतु अब धीरे-धीरे इनके स्थान पर पेटीकोट ब्लाउज व साड़ी का प्रचलन हो गया है। जाड़ों में ऊनी कपडों का उपयोग होता है। विवाह आदि शुभ अवसर पर कई क्षेत्रों में अभी भी सनील का घाघरा पहनने की परंपरा है।कुमाऊं की पारम्परिक नर पोशाक लोनी-कपड़ा धोती या लुंगी जिसे निचले परिधान के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। कुमाऊंनी के पुरूष कुर्ता पहनते हैं। धोती, पैजामा, सुराव, कोट, कुर्ता, भोटू, कमीज, मिरजै, टांक (साफा) टोपी आदि पुरूष के मुख्य परिधान होते हैं। गढ़वाल में भी धोती, चुडीचार, पायजामा, कुर्ती, मिरजई, सफेद टोपी, पगडी, बास्कट, (मोरी) आदि। पुरूषों के पारंपरिक परिधान हैं। लोक जीवन पद्वति अर्थात् रहन-सहन और वेशभूषा आदि भी उस क्षेत्र विशेष की लोक-संस्कृति के महत्वपूर्ण तत्व होते हैं। यहां परिधान कुमाऊंनी और गढ़वाली संस्कृति का परिचायक है। कुमाऊं क्षेत्र में घाघरा-चोली, लहंगा, आंगडी, खानू, चोली, धोती, पिछौड़ा आदि महिलाओं की पारंपरिक वेशभूषा है। पारंपरिक रूप से गढ़वाल की महिलाएं भी घाघरा तथा आंगडी, धोती तथा पुरूष चूड़ीदार पजामा व कुर्ता पहनते हैं परंतु अब धीरे-धीरे इनके स्थान पर पेटीकोट ब्लाउज व साड़ी का प्रचलन हो गया है। जाड़ों में ऊनी कपडों का उपयोग होता है। विवाह आदि शुभ अवसर पर कई क्षेत्रों में अभी भी सनील का घाघरा पहनने की परंपरा है। उत्तराखंड के पारंपरिक आभूषण का सदियों से अपना खास एक महत्व होता है, एक समय में पुरूष कानों में कुंडल धारण करते थे जिसे मुर्की, बजनि या गोरख कहा जाता है। उत्तराखंड में महिलाओं के लिए सिर से लेकर पांव तक हर अंग के लिए विशेष प्रकार के आभूषण है। कुमाऊंनी में आभूषणों को जेवर या हतकान (हाथ-कान) कहते हैं। यहां महिलाएं सिर पर शीशफूल, सुहाग बिन्दी, मांगटीका धारण करती हैं। नाक में नथुली, नथ, बुलाक, फूल, फुली आदि पहनती है। कानों में मुर्खली, बाली, कर्णफूल, तुग्यल, गोरख, झुमके, झुपझुपी, उतरौले, जल-कछंव, मछली आदि सोने-चांदी के से बने इन आभूषणों को पहनती हैं। गले के लिए गुलूबंद, लॉकेट, चर्यों, हंसुली, कंठीमाला, मूगों की माला, चवनीमाला, चंदरोली, चंपाकली आदि का विशेष महत्व है। हाथों में धागुला, पौछी, अंगूठी या गुंठी, चूड़ी, कंगन, गोखले आदि पहनती हैं। पैरों के लिए भी कण्डवा, पैटा, लम्छा, पाजेब, इमरती, झिवंरा, प्याल्या, बिछुवा आदि आभूषण हैं इनमें से पाजेब झांजर, झिंगोरी, पौटा और धागुले आदि अपना-अपना विशेष स्थान रखते हैं। कुमाऊं में तगड़ी या तिगड़ी कमर पर पहने जाने वाला प्रमुख आभूषण भी है। गढ़वाल में भी पारंपरिक रूप से यहां की महिलाएं गले में गलोबंद, चरयो, जै माला, तिलहरी, चंद्रहार, सूत या हंसुली, नाक में नथुली, नुलाक या नथ, कानों में कर्णफूल, कुण्डल पहनती हैं। साथ ही सिर में शीषफूल, हाथों में सोने या चांदी के पौंजी, नग एवं बिना नग वाली मुंदरी, या अंगूठी, धागुला, स्यूण-सांगल, पैरो में विघुए, पायजब, कमर में ज्यैडि आदि परंपरिक आाभूषण पहनती हैं कुमाऊं एवं गढ़वाल लोक संस्कृति की दृष्टि से समृद्ध हैं। प्रदेश में विभिन्न उत्सवों, पर्वों, धार्मिक अनुष्ठानों, देव यात्राओं, मेलों-खेलों, पूजाओं और मांगलिक कार्यक्रमों का वर्ष भर आयोजन होता रहता है ये आमोद-प्रमोद और मनोरंजन के सर्वोत्कृष्ट साधन होने के साथ ही लोक जीवन के आनंद और उल्लास को भी व्यक्त करते हैं। विभिन्न तीर्थ स्थल, विश्वास मान्यताएं, लोकगीत, लोककथा, लोकगाथा, लोकनृत्य, लोकसंगीत आदि यहां की लोक संस्कृति को विश्व में एक अलग पहचान दिलाती हैं। लोककला की दृष्टि से भी उत्तराखंड बहुत समृद्ध है। विभिन्न अवसरों पर नामकरण चौकी, सूर्य चौकी, जन्मदिन चौकी, यज्ञोपवित चौकी, विवाह चौकी आदि बनाई जाती है। यहां की कांगडा शैली विश्व प्रसिद्ध है। -लोक की दिनचर्या, जिसमें जीवन का सिखाया ज्ञान, जीवन और प्रकृति के सानिध्य में सीखी और रची गई संस्कृति और इसी संस्कृति की धारा में जिए और रचे गए साहित्य और कला रूप स्वयं को अभिव्यक्त करते हैं। एक अर्थ में ‘यह संस्कृति‘, ‘जीवन की धन्यता‘ और जीवन की ‘जय और आनंद का मंगलगान है। भारत या कहें ‘लोक संस्कृति‘ के भौतिक रूपों के विकास की वह प्रक्रिया है, जिसे भारत की ज्ञान परंपरा के पुरोधाओं ने सत्य की समग्रता में रस का निरूपण कर के जन-मन के बीच प्रवाहित किया। भीमताल शहर के मुख्य बाजार से कुछ ही मिनटों की दूरी पर भीमताल-भवाली मार्ग में एक ऐसा अनोखा संग्रहालय है। जिसमें करोड़ों साल पुराने जिवाश्मों से लेकर इंसानी विकास के हर उस काल की स्मृतियां हैं, जिनसे गुजर कर इंसान आधुनिक समय तक की आपनी यात्रा को पूरा कर सका है।इस संग्रहालय का नाम लोक संस्कृति संग्रहालय है। इसकी स्थापना सन् 1983 में भारत के जानेमाने पुरातत्त्वविद और चित्रकार पद्मश्री डॉ. यशोधर मठपाल जी द्वारा की गयी। तब से आज तक इस संग्रहालय में हजारों ऐसी वस्तुयें जुड़ती गयी जो इंसानी विकास के प्रत्येक बदलते दौर की गवाह हैं। आज आधुनिकता के नाम पर लोग अपनी संस्कृति को भुला बैठे हैं। अपने धर्म को भुला बैठे हैं। और पाश्चात्य संस्कृति का अँधाधून अनुकरण कर रहे हैं। यह हमारे मानव जाति, समाज के लिए, अपने देश के लिए खतरनाक है। हम धीरे-धीरे अपनी संस्कृति को खोते जा रहे हैं। हमारा अस्त्तिव धीरे-धीरे खत्म होता जा रहा है। लोग जाति का नाम पर भी खिलवाड़ कर रहे हैं। धर्म परिवर्तन हो रहा है। आने वाली नई पीढ़ी नशे के गिरफ्त में आकर अपने आप को बर्बाद कर रहे हैं। हमरी अपनी भाषा हिंदी /लोक को पढ़ना लिखना बोलना बंद कर दिए हैं। सादाजीवन को त्याग कर लग्जीरियस जीवन जी रहे हैं। भोजन को महत्व दे रहे हैं। खान-पान, बोल-चाल, रहन-सहन, पहनावा सारी चीजें बदल गई हैं। कुल मिलाकर हम अपनी संस्कृति के साथ अन्याय और खिलवाड़ कर रहे हैं। हमारी संस्कृति में सहयोग का बड़ा महत्व था, हर सुख-दुख में साथ खड़े रहने की भावना देखने को मिलती थी, लेकिन आज समाज व लोग व्यक्तिवादी होते जा रहे हैं, केवल अपने में ही समाज को समझते हैं। अच्छी से अच्छी शिक्षा प्राप्त किए लोग समाज में अमानवीय कृत्यों में संलिप्त पाए जाते हैं, जिससे स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षा कितनी भी हासिल कर ली जाए वह शिक्षा अगर आपके व्यवहार में न उतरे तो उसका कोई औचित्य नहीं रह जाता। कई दफा लोग साक्षर होने का दावा करते हैं, मगर बात करने के ढंग से वे अक्सर अपना वास्तविक परिचय दे दिया करते हैं जिससे शिक्षा का कोई औचित्य नहीं रह जाता। इससे अच्छे तो गांवों के अशिक्षित लोग, तहजीब व व्यवहार में सादगी तथा विषयों पर मजबूत पकड़ रखने वाले हमारे बुजुर्ग हैं, जिन्होंने भले ही स्कूलों में जाकर कभी किताबें नहीं पढ़ी हों, लेकिन समाज व लोगों को पढ़कर एक आदर्श जीवनशैली को अपनाए हुए हैं, अपनी संस्कृति को संजोए हुए हैं। लेकिन समाज के अत्याधुनिक होने का दावा करने वाले तथाकथित महामनुष्य न जाने किन बातों में आधुनिक हैं। अगर उन्हें मानवीय व्यवहार व सम्मान न करना आए तो आधुनिकता की ऐसी अंधी दौड़ में लडख़ड़ाने से बेहतर है सामान्य जीवन व्यतीत करना। आधुनिक होने की बातें की जाती हैं मगर आधुनिक और स्मार्ट व्यक्ति नहीं बल्कि इनके महंगे स्मार्टफोन हैं, जिनसे लोगों को लगता है वे भी इन मोबाइलों की तरह स्मार्ट हैं, लेकिन यह सबसे बड़ा भ्रम है। आज का मनुष्य निर्भर प्रवृत्ति में इतना लीन हो गया है कि उसे सब कुछ आर्टिफिशियल चाहिए, स्वयं कुछ भी नहीं करना है। वह कहा जाता है न कि आज के मनुष्य सोशल मीडिया में तो सोशल होना चाहते हैं, मगर सामाजिक नहीं बनना चाहते, केवल नाम से आधुनिकतावादी कहलवाना चाहते हैं। यह आधुनिकतावादी होने का भ्रम लोगों को अपने मस्तिष्क से निकाल कर व्यावहारिक जीवन में  चिंतन करके अपनी जड़ों से जुड़कर अपनी संस्कृति व सभ्यता को जानना चाहिए, तभी आधुनिकतावादी कहलाने का भी औचित्य रह पाता है, अन्यथा मानव समाज इतना अधिक व्यक्तिवादी हो रहा है कि लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ता कि साथ वाले घर में रह रहे व्यक्ति को क्या समस्या है। आज के समय में सोशल मीडिया पर सक्रिय रहने वाले लोगों की फौज वास्तव में समाज में सक्रिय रहने वाले लोगों से कहीं अधिक हो चुकी है। अब केवल सोशल प्लेटफॉम्र्स पर ही भावनाएं व्यक्त की जाती हैं और लिंक, लाइक, लाइव, कमैंट व शेयर की अपील के साथ ही यह सफर समाप्त भी हो जाता है। आज का समाज ‘चित्रजीवी’ हो रहा है, लोगों को चरित्र की कोई परवाह नहीं है। आए दिन, खासकर युवा स्कूलों-कॉलेजों में लड़ते-झगड़ते नजर आते हैं। भारत की संस्कृति नमस्ते, वसुधैव कुटुंबकम व स्वागतम की रही है, लेकिन आज इस पहचान को लोग धूमिल करते जा रहे हैं। आधुनिकता की इस अंधी दौड़ की आंधी में भारतीय समाज के सांस्कृतिक मूल्यों का पतन हो चुका है, नैतिकता का अस्तित्व दूर-दूर तक कहीं भी प्रतीत नहीं होता। युवाओं की सोच में परिवर्तन हो, इसके लिए हमारी सरकारों और शिक्षाविदों को आगे आना होगा। इसके लिए नई शिक्षा नीति में व्यावहारिक शिक्षा को भी अनिवार्य किया जाए, ताकि आज का युवा अपनी संस्कृति और संस्कारों की ओर वापस लौट सके अपनी संस्कृति का हम ह्रास कर रहे हैं। यदि समय रहते हम नही सुधरे तो आने वाला दिन हमारे लिए खतरनाक हो सकता है। हमारा अस्त्तित्व ही लगभग खत्म हो जाएगा।

 

लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।

 

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