जिम की आत्मा में समाया था हिंदुस्तान डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
जिम कॉर्बेट का जन्म 25 जुलाई 1875 में नैनीताल में ही हुआ था। बता दें कि महज 6 साल की उम्र में इनके सिर से पिता का साया उठ गया था। जिम कॉर्बेट का बचपन कालाढूंगी के जंगल में तीर और गुलेल से शिकार करने का अभ्यास करते हुए बिता। उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा नैनीताल से पूरी की। हालांकि जिम का मन पढ़ाई में ज्यादा नहीं लगता था। इसी कारण 18-19 साल की उम्र में उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और बंगाल एंड नार्थ वेस्टर्न रेलवे में फ्यूल इंस्पेक्टर के तौर पर भर्ती हो गए। साथ ही जिम को ब्रिटिश इंडियन ऑर्मी में कर्नल की रैंक प्राप्त थी। पहाड़ और जंगल में रहने के कारण जिम जानवरों की आवाज को पहचान लेते थे। उन्हें प्रकृति और पशु-पक्षियों से काफी लगाव था। इसके अलावा उन्हें फोटोग्राफी का भी शौक था। जिम कॉर्बेट साल 1907 से 1938 के बीच लगभग 19 बाघों और 14 तेंदुओं का शिकार किया था। उस दौरान जिम की पहचान एक कुशल शिकारी के तौर पर होती थी। जब भी कुमाऊं में किसी आदमखोर की दहशत फैलती तो वहां जिम को बुलाया जाता था। जिम शिकार के बाद बाघों और अन्य जानवरों के शरीर को अपने घर ले जाते और उनकी जांच-पड़ताल किया करते थे। जिम जंगली जानवरों की खाल को अपने घर पर सजाया करते थे। लेकिन इस बीच उनके हाथों एक ऐसी जानकारी लगी। जिसके बाद न सिर्फ जिम की सोच बदली बल्कि उन्होंने शिकार करना भी छोड़ दिया। जिम शब्दों के जादुगर थे। अन्होंने अपनी जिंदगी से जुड़े कई अनुभवों को किताबों में साझा किय़ा। उनकी मुख्य किताब ‘माय इंडिया’, ‘जंगल लोर’, ‘मैन-ईटर्स ऑफ़ कुमाऊं’, ‘जिम कॉर्बेट्स इंडिया’ और ‘माय कुमाऊं’ हैं। बता दें कि जिम की किताब ‘जंगल लोर’ को ऑटोबायोग्राफी कहा जाता है। जिम कॉर्बेट अपनी बहन मैगी कॉर्बेट के साथ गर्नी हाउस में रहते थे। बाद में गर्नी हाउस को कॉर्बेट म्यूजियम में बदल दिया गया हालांकि भारत की आजादी के बाद जिम 1947 में केन्या में रहने लगे थे। वहां पर वह पेड़ों पर झोपड़ी बनाकर रहते थे। 19 अप्रैल 1955 को जिम कॉर्बेट ने आखिरी सांस ली। जिसके बाद उन्हें केन्या की नएरी नदी के पास बने सेंट पीटर चर्च में लॉर्ड बेडेन-पॉवेल की कब्र के पास उन्हें सुपुर्द-ए-ख़ाक किया गया। कॉर्बेट की यह कहानी इस मिथक को तोड़ती है और बताती है कि जंगल का कानून वैसा नहीं होता जो इंसानी बस्तियों में इंसानों द्वारा चित्रित किया जाता है. वहां हवा-पानी अधिक साफ और वातावरण सहज होता है और सभी जीव कहीं अधिक समावेशी और सुकून भरी जिंदगी जीते हैं.पुनवा और पुतली की दास्तान 1952 में प्रकाशित हुई कॉर्बेट की पुस्तक “माइ इंडिया” की एक कहानी है. तब यह पुस्तक बाजार में आते ही कॉर्बेट की विश्व चर्चित “द मैन ईटर्स ऑफ कुमाऊं” जैसी ही लोकप्रिय बन गई. घटना के कई साल बाद तक इसके प्रकाशक ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस को दुनिया भर से पाठकों के खत आते रहे. उनमें ऐसे खत भी थे जिनमें लोग पुनवा और पुतली को ढूंढना और मिलना चाहते थे. इसके पीछे जंगल के कानून की ताकत थी जिसने विपरीत परिस्थितियों में दो मासूम बच्चों को जीवित रखा.पिछले कई दशकों में जंगल में इंसानों के प्रवेश ने वहां की शांति और संतुलन को भंग किया है. आज जंगल खतरे में हैं तो पूरा विश्व डोल रहा है. ये जंगल ही हैं जो नदियों, झरनों और मिट्टी को बचाए हैं जबकि इंसान समाज और जंगल दोनों जगह लगने वाली आग का जिम्मेदार है. जंगलराज की बात करने वाले शहरी सभ्य जंगल की फितरत और जंगलवासियों के स्वभाव को कभी नहीं समझ पाएंगे. जिम कॉर्बेट को प्रकृति से बहुत प्यार था और उन्होंने हमेशा इसके संरक्षण की वकालत की. जिम कॉर्बेट ने ही भारत में बाघों को संरक्षित करने की सलाह दी थी. क्योंकि उनके अनुसार, ‘बाघ एक बड़े-दिलवाली प्रजाति है, जो बहुत साहसी होती है, और अगर ये प्रजाति खत्म हो गई, तो भारत अपने वन्यजीवन के सबसे शानदार हिस्से को खोकर और गरीब हो जाएगा.’ जिम कॉर्बेट को प्रकृति से बहुत प्यार था और उन्होंने हमेशा इसके संरक्षण की वकालत की. जिम कॉर्बेट ने ही भारत में बाघों को संरक्षित करने की सलाह दी थी. क्योंकि उनके अनुसार, ‘बाघ एक बड़े-दिलवाली प्रजाति है, जो बहुत साहसी होती है, और अगर ये प्रजाति खत्म हो गई, तो भारत अपने वन्यजीवन के सबसे शानदार हिस्से को खोकर और गरीब हो जाएगा.’ भारत के आज़ाद हो जाने के बाद वो अपनी बड़ी बहन के साथ केन्या चले गए थे. यहीं उन्होंने अपनी किताबें लिखी थीं. जिम ने कभी शादी नहीं की. 19 अप्रैल 1955 को इन्होंने आखिरी सांस केन्या में ही ली. बंगाल टाइगर के संरक्षण में उनके अतुलनीय योगदान के लिए आज भी इन्हें इंडिया में याद किया जाता है. जिम कॉर्बेट ने 1907 से 1939 के बीच उत्तराखंड के कुमाऊं जिले में आदमखोर बन चुके बाघों का शिकार किया था।
जिम कॉर्बेट पारिस्थितिकी और वन्यजीवों खासकर बाघों के संरक्षण के पक्ष में थे और इसी वजह से भारत में ‘बाघ बचाओ’ परियोजना का शुभारंभ करने के लिए जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान को चुना गया था।प्रोजेक्ट टाइगर का शुभारंभ 1973 में हुआ था। इस प्रोजेक्ट का मूल इरादा प्रकृति के पारिस्थितिकी के संतुलन को बनाए रखना और वर्तमान पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा करना था। परियोजना का उद्देश्य वन्यजीवों और राष्ट्रीय उद्यानों की वनस्पतियों के बीच और अभयारण्यों एवं उनके आस– पास रहने वाले मनुष्यों के जीवन के बीच प्राकृतिक लिंक की स्थापना करना था। साथ ही यह पर्यावरण को होने वाले नुकसान और संरक्षण प्रयासों के बारे में जागरुकता फैलाना चाहता था। आज़ादी के बाद क्या लोग उन्हें उस नज़र से देखेंगे जिस नज़र से उन्हें पहले देखा जाता रहा है. इसके अलावा कॉर्बेट के मन में भारतीय लोगों का जंगल के प्रति बदलता नज़रिया भी उनके दुख का कारण था. जंगल काट कर खेत बनाए जा रहे थे. जंगलों में मोटर गाड़ियों के लिए रास्ते बना दिए गये थे, जिससे जंगली जानवरों का जीवन प्रभावित हुआ. इन सबसे पहले कॉर्बेट उस आग से बहुत दुखी हुए जो 1932 में बसंत के महीने में जंगलों में लगाई गई थी. जंगल की आग का ये आसमान को छूता ये धुआं उन्हें अपने अरमानों के जलने के बाद उठने वाले धुएं के समान प्रतीत हुआ.वह देख रहे थे कि भारत अपनी धरोहर नहीं संभाल पा रहा. यहां के नेताओं को ना जंगल की फिक्र है ना जंगली जानवरों की. बाघों के संरक्षण के संबंध में वह कहते थे कि भारत के नेताओं को बाघों को बचाने में कोई दिलचस्पी नहीं क्यों कि ये वोट नहीं देते लेकिन जो इन्हें मारते हैं वो वोट ज़रूर देते हैं. पुण्यतिथि: जाने-माने शिकारी और पर्यावरणविद् थे जिम कॉर्बेट, कई खूंखार नरभक्षियों को किया था ढेर शिकारी और महान व्यक्तित्व के धनी जेम्स एडवर्ड जिम कॉर्बेट की आज पुण्यतिथि (है. जिम कॉर्बेट एक महान शिकारी थे. उन्होंने 1907 से 1938 के बीच कुमाऊं और गढ़वाल दोनों जगह नरभक्षी बाघों और तेंदुओं के आतंक से छुटकारा दिलाया था. बताते हैं जिम ने 31 साल में 19 आदमखोर बाघ और 14 तेंदुओं को ढेर किया था. पुण्यतिथि: जाने-माने शिकारी और पर्यावरणविद् थे जिम कॉर्बेट, कई खूंखार नरभक्षियों को ढेर किया था साल 1947 में जिम कॉर्बेट देश छोड़ कर विदेश चले गए और कालाढूंगी स्थित घर को अपने मित्र चिरंजी लाल शाह को दे गए। 1965 में चौधरी चरण सिंह वन मंत्री बने तो उन्होंने इस ऐतिहासिक बंगले को आने वाली नस्लों को जिम कॉर्बेट के महान व्यक्तित्व को बताने के लिए चिरंजी लाल शाह से 20 हजार रुपए देकर खरीद लिया और एक धरोहर के रूप में वन विभाग के सुपुर्द कर दिया। तब से लेकर आज तक यह बंगला वन विभाग के पास है। वन विभाग ने जिम कॉर्बेट की अमूल्य धरोहर को आज एक संग्राहलय में तब्दील कर दिया है। हजारों की तादाद में देश-विदेश से सैलानी जिम कॉर्बेट से जुड़ी यादों को देखने के लिए आते हैं। जिम कॉर्बेट ने अपने जीवनकाल में 6 पुस्तकों की रचना की। इनमें से कई पुस्तकें पाठकों को काफी पसंद आईं, जो आगे चल कर लोकप्रिय हुईं। लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।