दुर्घटनाओं के ठोस तथ्य वैज्ञानिक विश्लेषण से आये सामने, डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

दुर्घटना से देर भली। सड़क सुरक्षा के लिए इस तरह के तमाम स्लोगन सड़कों के इर्द-गिर्द लिखे दिख जाएंगे। यह बात और है कि रफ्तार के जुनून और मंजिल तक पहुंचने की हड़बड़ी में जिंदगी पीछे छूट जाती है।उत्तराखंड को भले
ही प्राकृतिक आपदाओं के लिहाज से संवेदनशील माना जाता है, लेकिन सड़क दुर्घटनाएं यहां अधिक घातक साबित हो रही हैं। हर साल हो रहे एक हजार से अधिक हादसों में सात सौ से अधिक लोग काल का ग्रास बन रहे हैं।

 

सरकारी आंकड़े ही इसकी गवाही दे रहे हैं। यद्यपि, दुर्घटनाओं की रोकथाम को कदम उठाए जा रहे हैं, लेकिन इनकी रफ्तार धीमी है। पहाड़ी मार्गों पर पैराफिट का अभाव खटकता है, तो मैदानी क्षेत्रों में सड़कों पर जंक्शन की स्थिति अच्छी नहीं है। यदि इन दोनों विषयों पर भी ठीक से ध्यान केंद्रित कर लिया जाए तो स्थिति में काफी हद तक सुधार लाया जा सकता है। दैनिक जागरण के महाभियान के तहत राज्य के राष्ट्रीय व राज्य राजमार्गों, संपर्क मार्गों पर किए गए सर्वे में यह बात मुख्य रूप से उभरकर आई। इसके अलावा सड़कों की खराब हालत, डिजाइन में खामी, वाहनों में ओवरलोडिंग, संकेतकों का अभाव, जांच की पुख्ता व्यवस्था न होने जैसे कारण भी सामने आए हैं।
पहाड़ी मार्गों पर उभर रहे नित नए भूस्खलन जोन भी मुसीबत का कारण बन रहे हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि सड़कें किसी भी क्षेत्र की तरक्की की पहली सीढ़ी होती हैं। सड़क अच्छी होगी तो नागरिक सुविधाएं विकसित
होने के साथ ही रोजगार, स्वरोजगार के अवसर भी सृजित होते हैं। इस दृष्टिकोण से देखें तो उत्तराखंड के हालात बहुत बेहतर नहीं कहे जा सकते। विशेषज्ञों को साथ लेकर उत्तराखंड की दौड़ती-भागती सड़कों की पड़ताल की तो
उसमें यही बात प्रमुखता से उभरकर आई। निश्चित रूप से सड़कों का जाल बिछ रहा है, लेकिन निर्माण, सुविधा और सुरक्षा के मोर्चे पर अभी बहुत काम होना बाकी है। सर्वे में राज्य के दोनों मंडलों, गढ़वाल व कुमाऊं में1643
किलोमीटर राष्ट्रीय राजमार्ग, 1678 किलोमीटर राज्य राजमार्ग और 704 किलोमीटर आंतरिक मार्गों की पड़ताल की गई। राष्ट्रीय राजमार्गों पर ही 141 से अधिक सक्रिय भूस्खलन क्षेत्र मिले। खासकर निर्माणीधीन मार्गों पर ये हादसों को न्योता दे रहे हैं। कुछ ऐसा ही हाल पैराफिट और क्रैश बैरियर का भी है। पहाड़ी हिस्से में 400 किमी से अधिक हिस्से में क्रैश बैरियर और पैराफिट का अभाव की जानकारी सामने आई। अब राज्य राजमार्गों को देखें तो इसमें लगभग 600 किमी मार्ग की स्थिति अच्छी नहीं पाई गई। कहीं सड़क क्षतिग्रस्त है, तो कहीं गड्ढे मुसीबत का सबब बने हैं। इसके अलावा मैदानी और पर्वतीय क्षेत्र के लगभग सौ किलोमीटर क्षेत्र में धुंध व पाला भी दिक्कत के
रूप में सामने आया है। मैदानी क्षेत्रों में अवैध कट के अलावा आंतरिक सड़कों का संकरा होना, बाटलनेक का सुदृढ़ीकरण न होना भी बड़ी समस्या के रूप में उभरे हैं। विशेषज्ञों ने भी इस बात पर जोर दिया कि सड़क दुर्घटनाओं की रोकथाम के लिए यदि इन बिंदुओं पर ठीक से ध्यान केंद्रित कर दिया जाए तो स्थिति में काफी हद तक सुधार हो जाएगा। उत्तराखंड कहने को तो पर्वतीय राज्य है, लेकिन यहां के प्रमुख और सबसे बड़े चारों जिले मैदानी हैं। इन जिलों में यातायात व सड़क सुरक्षा के लिए न तो कार्मिकों की कमी है और न ही बजट की। बावजूद इसके प्रदेश में होने वाली सड़क दुर्घटनाओं में 89 प्रतिशत दुर्घटनाएं इन्हीं चार मैदानी जिलों में हुई हैं। इस वर्ष
सितंबर तक हुई कुल 1219 दुर्घटनाओं में से 1092 इन्हीं चार मैदानी जिलों में हुईं। एक लंबे आंदोलन के बाद उत्तर प्रदेश से अलग कर उत्तराखंड राज्य का गठन किया गया, इसका कारण था राज्य की कठिन भौगोलिक परिस्थिति, विरल जनसंख्या घनत्व और विकास में ज्यादा संसाधनों की जरूरत। लेकिन आज यहां विकास के नाम पर राज्य के मैदानी इलाकों को ही तरजीह मिल रही है इसे खुद राज्य सरकार की एक रिपोर्ट परिभाषित कर रही है। राज्य

में सड़क दुर्घटनाओं के आंकड़ों का विश्लेषण करें तो पता चलता है राज्य के मैदानी और पर्वतीय हिस्सों में सड़क दुर्घटनाओं के प्रकृति अलग-अलग है। यातायात कर्मी व पुलिस कर्मियों की गैरमौजूदगी वाहन चालकों को नियमों का उल्लंघन करने को प्रोत्साहित भी करती है। इसके अलावा मार्गों पर पथ प्रकाश की अधूरी व्यवस्था व खराब सड़कें
भी दुर्घटनाओं को आमंत्रित करती हैं। ऐसा नहीं है कि विभाग इन बातों से अनभिज्ञ है। ये आंकड़े पुलिस व परिवहन विभाग ने ही एकत्रित किए हैं। बावजूद इसके दुर्घटनाओं के इन कारकों पर लगाम लगाने के लिए अभी भी
काफी कुछ किए जाने की जरूरत है।. समाजशास्त्री एवं मनोविज्ञानी का कहना है कि समाज में मददगारों की कमी नहीं है। लेकिन, सड़क दुर्घटनाओं के मुकदमे में पूछताछ व पुलिस के लिए बार-बार समय देने की अड़चन के चलते
लोग आगे नहीं आते। इस अड़चन को स्वयं सरकारी तंत्र दूर कर सकता है। यदि नागरिक अपनी जिम्मेदारी ढंग से निभाएंगे तो इससे सरकार को ही मदद मिलेगी। सड़क दुर्घटना के दौरान घायलों की विभिन्न तरीके से मदद के लिए संबंधित व्यक्तियों को पुरस्कृत करने की योजना बनाई गई है, लेकिन इसका अपेक्षित प्रचार-प्रसार जिला स्तर पर नहीं दिख रहा। इसके अभाव में मदद के इच्छुक तमाम लोग भी शंकाओं से घिरे नजर आते हैं।इसकी प्रमुख
वजह यह कि दुर्घटना के कारणों की पड़ताल से अधिक पुलिसकर्मी मददगार से ही पूछताछ करने लगते हैं। आज की भागदौड़ भरी व्यस्त जिंदगी में हर कोई कोर्ट-कचहरी और पुलिस की पूछताछ से बचने की कोशिश करता है।
ऐसे में पुलिस व सरकारी तंत्र यदि यह भरोसा कायम कर पाएं कि मददगार से पूछताछ नहीं की जाएगी तो गुड समारिटन हर सड़क पर खड़े दिख जाएंगे। यह सही है कि हादसों को पूरी तरह रोक पाना मुश्किल है, लेकिन मदद को उठे आपके हाथ कई घायलों का जीवन बचा सकते हैं। मानवीय दृष्टिकोण से देखें तो यह प्रत्येक व्यक्ति का
कर्तव्य है कि कहीं कोई दुर्घटना होने पर बगैर देरी किए घायलों को अस्पताल पहुंचाया जाए चिकित्सक को भी चाहिए कि वह कागजी मकड़जाल में उलझने के बजाय घायल का जीवन बचाने में जुट जाए। अब प्रश्न यह है कि
इस आदर्श स्थिति को लेकर क्या हम संवेदनशील हैं। सड़क सुरक्षा की दिशा में ब्लैक स्पाट ठीक करने, पैराफिट, स्पीड ब्रेकर, रिफलेक्टर, चेतावनी बोर्ड आदि की दिशा में नए प्रयोग किए जाएंगे। परिवहन विभाग के अनुसार, वर्ष
2021 में 284 दुर्घटनाएं हुईं, जबकि इस वर्ष 2022 में अब तक 363 दुर्घटना हुई, जो गत वर्ष की तुलना में 27.82 प्रतिशत अधिक रही। वर्ष 2021 में दुर्घटना में 123 व्यक्तियों की मृत्यु हुई, जबकि इस वर्ष 139 की मृत्यु हो चुकी है, जो 13 प्रतिशत अधिक है। घायल का प्रतिशत भी 47.67 प्रतिशत बढ़ा है। विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले उत्तराखंड में सड़क दुर्घटनाओं और इनमें हताहत होने वालों की संख्या साल दर साल बढ़ रही है।
इसके साथ ही अदालतों में वाहन दुर्घटना प्रतिकर के वादों की संख्या भी बढ़ रही है। अमूमन देखा गया है कि इन मामलों की सुनवाई लंबी चलती है। कारण यह कि पुलिस और परिवहन विभाग की ओर से दुर्घटना की जांच के जो साक्ष्य व तथ्य रखे जाते हैं, वे कई बार अधूरे होने के कारण कमजोर पड़ जाते हैं। इससे दस्तावेजों को प्रस्तुत
करने के लिए तारीख आगे बढ़ानी पड़ती है। सड़क दुर्घटनाओं के मामले में विभागीय जांच और पैरवी के मोर्चे पर ठोस पहल न होने से पीड़ि‍तों पर जल्द मरहम नहीं लग पा रहा। ऐसे में पीड़ि‍त अथवा उनके स्वजन का परेशान
होना स्वाभाविक है। उत्तराखंड का परिदृश्य तो कुछ यही बयां कर रहा है। आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो प्रदेश की विभिन्न अदालतों में चल रहे वाहन दुर्घटना प्रतिकर (एमएसीटी) के 1661 प्रकरणों में से अभी तक 554 का हीनिस्तारण हो पाया है। 1107 मामलों में प्रभावितों को इनके निस्तारित होने की प्रतीक्षा है। सड़क सुरक्षा को
लगातार काम हो रहा है। दुर्घटनाओं की जांच वैज्ञानिक तरीके से करने के लिए परिवहन, पुलिस व लोक निर्माण विभाग के अधिकारियों को प्रशिक्षित किया जा रहा है। दिसंबर माह में सड़क सुरक्षा परिषद की बैठक प्रस्तावित की गई है.

ये लेखक के निजी विचार हैं वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।

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