खतरे की आहट ग्लोबल वार्मिंग से हिमालय में ग्लेशियर पिघलने की हलचल डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उच्च हिमालयी क्षेत्र में ग्लोबल वार्मिंग के प्रभावों का गहन अध्ययन के निष्कर्ष बड़ी आबादी की चिंता बढ़ाने वाले हैं।अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार गोरी गंगा क्षेत्र के मिलम, गोंखा, रालम, ल्वां एवं मर्तोली ग्लेशियर सहित अन्य सहायक ग्लेशियर भी ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव की चपेट में हैं।उच्च हिमालयी क्षेत्र में ग्लोबल वार्मिंग के नकारात्मक प्रभाव अब प्रत्यक्ष नजर आने लगे हैं। ग्लेशियरों के बर्फ आच्छादित क्षेत्र का सिकुड़ना बड़ी आबादी के लिए खतरा बन रहा है। ग्लेशियर तेजी से पीछे हटते जा रहे हैं।कुमाऊं के पिथौरागढ़ जिले में गोरी गंगा क्षेत्र में ग्लेशियर पिघलने से उच्च हिमालय में 77 झीलें बन गई हैं। जो गोरी गंगा क्षेत्र में बाढ़ का सबब बन सकती हैं।जीआइएस रिमोट सेसिंग तथा सेटेलाइट फोटोग्राफ के माध्यम से किए अध्ययन में पता चला है कि 77 ग्लेशियर पर अब तक ऐसी झील बन चुकी हैं, जिनका व्यास 50 मीटर से अधिक है।जिसमें से सर्वाधिक 36 झीलें मिलम में, सात गोंखा में, 25 रोलम में, तीन ल्वां में तथा छह झीलें मर्तोली ग्लेशियर में मौजूद हैं। यहां ग्लेशियर झीलों के व्यास बढ़ रहा है और नई झीलों का निर्माण तेजी से हो रहा है।ग्लेशियर में निर्मित झील का व्यास 2.78 किलोमीटर है। यह झील भविष्य में किसी भी भूगर्भीय गतिविधि की वजह से गोरी गंगा के घाटी क्षेत्र में भीषण तबाही मचाने की क्षमता रखती है।गोरी गंगा जलागम क्षेत्र में लगातार बाढ़ और प्रभावों को देखते हुए आपदा प्रबंधन विभाग पिथौरागढ़ ने सिंचाई विभाग के साथ मिलकर क्षेत्र के तोली, लुमती, मवानी, डोबड़ी, बरम, साना, भदेली, दानी बगड़, सेरा, रोपाड़, सेराघाट, बगीचाबगड़, उमड़गाड़, बंगापानी, देवीबगड़, छोडीबगड़, घट्टाबगड़, मदकोट, तल्ला मोरी सहित अन्य गांवों को आपदा की दृष्टि से अतिसंवेदनशील गांव घोषित किया है।शोध के अनुसार गोरी गंगा घाटी पिछले दस सालों में 2010 से 2020 के बीच 2013, 2014, 2016 व 2019 की भीषण आपदा के प्रभाव से हुए बड़े नुकसान को अभी तक झेल रही है। आपदा के कारण तमाम गांव प्रभावित हुए, जिनके पास खेती करने की जमीन एवं निवास स्थल नहीं रहे।मजबूरन प्रभावितों को वहां से हटना पड़ा। क्षेत्र के प्रभावों को अब तक पूरी तरह सुधारा नहीं जा सका है। शोध के अनुसार क्षेत्र में भविष्य की सुरक्षा बेहतर रणनीति, तैयारी तथा मजबूत कदम के साथ विकास कार्य करने की जरूरत है। ऊंचाई वाले इलाकों में मौजूद ग्लेशियरों के आसपास ग्लेशियल झीलें बनी हुई हैं. अगर गर्मी ज्यादा पड़ी और ये ग्लेशियल लेक्स की दीवारें टूटी 2021 के नवंबर माह में, चमोली में अचानक आई बाढ़ ने लगभग 200 लोगों की जान ले ली थी, उत्तराखंड आपदा प्रबंधन विभाग ने ग्लेशियल झीलों, ग्लेशियरों की निगरानी सहित एक उपग्रह-आधारित पर्वतीय खतरे का आकलन करने के लिए भारतीय रिमोट सेंसिंग संस्थान के साथ एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए थे।उत्तराखंड में भूस्खलन क्षेत्र और हिमस्खलन-प्रवण क्षेत्र को लेकर यह किया गया था। आपदा प्रबंधन विभाग के अनुमान के अनुसार, उत्तराखंड के ऊंचे पर्वतीय क्षेत्र में 1,000 से अधिक ग्लेशियर और 1,200 से अधिक छोटी और बड़ी ग्लेशियर वाली झीलें हैं।जब ग्लेशियर वाली झीलें फटती हैं, तो वे एक विस्फोटक बाढ़ का निर्माण करती हैं, जो तेजी से बहने वाली बर्फ, पानी और मलबे की एक धारा है जो नीचे की ओर बस्तियों को तेजी से नष्ट कर सकती है। ऐसा माना जाता है कि चमोली में अचानक आई बाढ़ इसी तरह के एक ग्लेशियर में विस्फोट से शुरू हुई थी। वास्तव में, चमोली में बाढ़ के बाद एक अधिक ऊंचाई वाली कृत्रिम झील का निर्माण हुआ था, हो सकता है यह ग्लेशियर के फटने के बाद यह अलकनंदा नदी में जल स्तर बढ़ गया था।अध्ययन के मुताबिक, पिछले 26 वर्षों, 1990 से 2016 के दौरान, बढ़ते तापमान और जलवायु परिवर्तन के कारण, गोरी गंगा वाटरशेड के 661.53 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को 25.44 वर्ग किलोमीटर प्रति वर्ष की औसत दर से जंगल वाले इलाकों का सफाया हो गया। हिमालयी ग्लेशियरों का करीब दो-तिहाई हिस्सा पिघल सकता है। जिसके चलते इन झीलों में पानी की मात्रा बहुत अधिक बढ जाएगी। जोकि नदी घाटियों में रहने वाले लाखों लोगों के लिए गंभीर संकट पैदा कर सकता है। ऐसे में समय रहते केन्द्र व राज्य सरकार को ठोस कदम उठाने की जरूरत है. केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के साथ मिल कर वर्ष 2011 से 2014 के बीच हिमालय के ग्लेशियरों का एक अध्ययन कराया था, जिसमें यह पता चला कि हिमालयी क्षेत्रों में करीब 34,919 ग्लेशियर हैं, जो 75,779 वर्ग किलोमीटर में फैले हुए हैं। अध्ययन में इस बात का भी जिक्र है कि 1752 ग्लेशियरों में कोई परिवर्तन नहीं दिखा है, जबकि अठारह ग्लेशियरों के हिमाच्छादित क्षेत्र का विस्तार हुआ है। भारत सरकार ने स्पष्ट कहा है कि देश के ज्यादातर ग्लेशियर हर साल सात से इक्कीस मीटर की दर से पिघल रहे हैं।ग्लेशियर बनने में हजारों साल लगते हैं। जब वे सिकुड़ना शुरू करते हैं तो उसके चलते मौसम का मिजाज भी प्रभावित होता है। ग्लेशियरों के पिघलने के चलते आने वाले समय में वर्षा और भी कम होने की संभावना है। ग्लेशियरों के पिघलने की वजह ग्लोबल वार्मिग तो है ही, पहाड़ों पर मानवीय गतिविधियां बढ़ना भी इसकी बड़ी वजह है। पर्यटन और धार्मिक यात्राओं को बढ़ावा देने के नाम पर पहाड़ों पर बेजा मानवीय गतिविधियां बढ़ रही हैं। इसलिए न केवल सरकारों को, बल्कि धार्मिक पर्यटकों और अन्य सैलानियों को भी यहां पर होने वाली मानवीय दखल से बचाना होगा, तभी जाकर ग्लेशियरों की सुरक्षा हो पाएगी। अकेले सरकार कुछ नहीं कर सकती।
लेखक, के व्यक्तिगत विचार हैं दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।