शहीदों के गांव सड़क मिली और ना ही संचार सुविधा, परिवार कर चुके पलायन-; डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले।। वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा।।
ये पंक्तियां अक्सर नेताओं के मुंह से मंचों पर सुनने को मिल जाते हैं. शहीदों के सम्मान में जहां एक ओर सरकारें और नेता बड़े-बड़े दावे और घोषणाएं करते हैं तो वहीं दूसरी ओर शहीद परिवारों के लिए की जानी वाली घोषणाएं कहीं फाइलों में दब कर रह जाती हैं कारगिल युद्ध में अपनी वीरता से दुश्मन
देश को परास्त कर अपने देश का गौरव बढ़ाने वाले शहीदों के गांव के साथ ही उनके परिजन उपेक्षित हैं। शहीदों के गांव विकास को तरस रहे हैं।कारगिल युद्ध में अपनी वीरता से दुश्मन देश को परास्त कर अपने देश का गौरव बढ़ाने वाले शहीदों के गांव के साथ ही उनके परिजन उपेक्षित हैं। शहीदों के गांव विकास को तरस रहे हैं। लांसनायक हरीश देवड़ी के गांव देवड़ा में आज तक सड़क नहीं पहुंची। शहीद मोहन सिंह बिष्ट के गांव की सड़क बदहाल है। शहीदों की याद में बने स्मारक भी जर्जर हैं और उनकी
निशानी मिट रही है इसे देखने वाला कोई नहीं है।कारगिल युद्ध में अल्मोड़ा के वीरों ने अपने पराक्रम से देश का गौरव बढ़ाया। कैप्टन आदित्य मिश्रा, हवलदार तम बहादुर क्षेत्री, नायक हरि बहादुर घले, लांस नायक हरीश सिंह देवड़ी, हवलदार हरी सिंह थापा, पीटीआर राम सिंह बोरा, सिपाही मोहन सिंह ने कारगिल युद्ध में देश के लिए सर्वोच्च बलिदान दिया है। चार शहीदों के परिवार अन्य शहरों में बस गए हैं लेकिन जिन्होंने गांव नहीं छोड़ा वह विकास को तरस रहे हैं। बागेश्वर जिले के कपकोट में कारगिल शहीद मोहन सिंह का गांव अब तक न सड़क से जुड़ सका है और न ही लोगों को संचार सुविधा मिली है। आज भी लोगों को सड़क तक पहुंचने के लिए सात किमी की दूरी पैदल तय करनी पड़ती है। बीमार, बुजुर्ग और गर्भवतियों को लाने, ले-जाने के लिए डोली का सहारा लेना पड़ता है। वर्ष 1999 में कारगिल युद्ध में दोबाड़ गांव के मोहन सिंह ने शहादत दी थी। उनकी वीरता के लिए सरकार ने मरणोपरांत उन्हें सेना मेडल से नवाजा था। बावजूद इसके उनके गांव की मूलभूत समस्याओं के निदान के लिए शासन-प्रशासन ने कोई कार्य नहीं किया। उनकी शहादत के 20 साल बाद वर्ष 2021 में मुख्यमंत्री ने गांव के लिए सड़क निर्माण की घोषणा की लेकिन अब तक यह घोषणा परवान नहीं चढ़ सकी है। दोबाड़ में संचार सुविधा नहीं होने से मोबाइल गांव पहुंचते ही शोपीस बन जाता है। गांव के
पास की पहाड़ी पर हल्के सिग्नल पकड़ते हैं।दोबाड़ गांव में वर्तमान में 116 परिवार और 600 से अधिक की आबादी निवास करती है। अधिकतर लोग खेतीबाड़ी और मजदूरी कर जीवन यापन करते हैं। सुविधाओं के अभाव में गांव से करीब 100 परिवार पलायन कर चुके हैं। वर्ष 2018-19 में गांव आपदा से भी प्रभावित हुआ था।दोबाड़ से शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क सुविधाओं की तलाश में बढ़ते पलायन
का असर गांव के जूनियर हाईस्कूल पर भी पड़ा। छात्र संख्या कम होने के कारण वर्ष 2014-15 में विद्यालय में ताला लग चुका है। कारगिल युद्ध में सर्वोच्च बलिदान देने वाले शहीद के नाम किया गया वादा दो दशक बाद भी अमल में नहीं लाया जा सका है. वादा खिलाफी से नाराज शहीद के परिजनों
की ओर से भूख हड़ताल किए जाने पर एक और वादा किया गया, लेकिन गुजरते वक्त के साथ तीन महीने के भीतर सड़क निर्माण शुरू करने के दावे भी खोखले साबित हुए. इस बीच कई परिवार गांव से पलायन कर अन्यत्र जा बसे, जबकि गांव में कुछ ही लोग बच रह गए हैं. बुजुर्ग, महिलाओं और युवाओं ने समय से समझौता कर आवाज उठाना भी बंद कर दिया है. गांव में सड़क नहीं होने की वजह से छोटे
बच्चे, बड़े और बुजुर्गों के साथ महिलाओं को भी काफी दिक्कतें होती हैं
(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।)
लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।