कौणी पोषक तत्वों का भंडार है डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

साल 2023 पोषक अनाजों को समर्पित किया गया है. संयुक्त राष्ट्र ने भारत के प्रस्ताव पर साल 2023 को अंतरराष्ट्रीय पोषक अनाज वर्ष घोषित किया है. इस पर 72 देशों ने भी समर्थन दिया था और अब समय आ गया है पूरी दुनिया को पोषक अनाज की भूमिका समझाने का. इस साल 8 तरह के पोषक अनाजों को चिन्हित किया गया है, जिनके उत्पादन के साथ-साथ उपभोग को भी बढ़ावा देना है.संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन ने सन 2023 को मिलेट इयर मनाने की घोषणा की है। भारत सरकार के सुझाव पर यह कदम उठाया गया है।  भारत मोटे अनाजों का अग्रणी उत्पादक देश ही नहीं, बल्कि एक बड़ा निर्यातक देश भी है। वर्ष 2020-21 में, भारत ने 2019-20 में 28.5 मिलियन अमरीकी डॉलर के मुकाबले 26.97 मिलियन अमरीकी डॉलर मूल्य के बाजरा का निर्यात किया। बाजरा के प्रमुख निर्यातक देश अमेरिका, रूस, यूक्रेन, भारत, चीन, नीदरलैंड, फ्रांस, पोलैंड और अर्जेंटीना हैं। इन देशों का कुल बाजरा निर्यात 2020 में 221.68 मिलियन अमरीकी डॉलर था। रिपोर्टस के अनुसार भारत से मिलेट्स आयात करने वाले दुनिया के प्रमुख देश में इंडोनेशिया, बेल्जियम, जापान, जर्मनी, मैक्सिको, इटली, अमेरिका, ब्रिटेन, ब्राजील और नीदरलैंड हैं। भारत से बाजरा के शीर्ष तीन आयातक देश नेपाल, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब है। भारत के बाजरा निर्यात की शीर्ष दस सूची में अन्य सात देश लीबिया, ट्यूनीशिया, मोरक्को, यूके, यमन, ओमान और अल्जीरिया हैं। उत्तराखंड में कई धान की प्रजाति ऐसी हैं, जिसे सिर्फ कम पानी यानी बरसार के पानी पर ही पैदा कर लेते हैं। उसे अतिरिक्त सिंचाई की जरूरत नहीं पड़ती। उसे स्थानीय भाषा में उखड़ी चावल के नाम से जाना जाता है। एक अनाज हैचिंणा, इसकी पैदावार भी कहीं खो गई है। इसको भून कर बुखणा बनाया जाता था। स्थानीय भाषा में चिंणा के बीजों को भून कर उसे कूट कर भुने दाने को बुखणा कहा जाता है। इन भुने दानों को वर्ष भर रखा जा सकता है। और उसको चबाने में विशेष स्वाद आता हैपहाड़ी ढ़लानों पर सीढ़ीदार खेतों की मेडों पर लहराती कौंणी की फसल बला की खूबसूरत लगती है। सियार की सुनहरी पूंछ सी खेतों के किनारे हिलती-डुलती रहती है। कौणी विश्व की प्राचीनतम फसलों में से एक है। चीन में तो नवपाषाण काल में भी इसके उपयोग के अवशेष मिलते हैं।यह बाजारा की ही एक प्रजाति है। जिसे अंग्रेजी में फाॅक्सटेल मिलेट कहा जाता है। इसकी बाली को देखकर ही संभवतः इसे अंग्रेजी में यह नाम दिया गया हो। खेतों में जब यह पककर तैयार होती है तो किसी पूंछ की तरह कौंणी की पौध से लहराती रहती है।कौणी पोएसी परिवार का पौधा है। इसका वैज्ञानिक नाम सेतिरिया इटालिका है। इसको संस्कृत में कंगनी तो गुजराती में कांग नामों से जाना जाता है। यह भारत, रूस, चीन, अफ्रीका और अमेरिका आदि देशों में उगाया जाता है। विश्वभर में कौंणी की लगभग 100 से अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं।कौंणी गर्म मौसम में उपजने वाली फसल है। इसलिये उत्तराखण्ड में इसकी खेती ज्यादातर धान के साथ ही की जाती है। इसको धान व झंगोरा के साथ खेतों में बोया जाता है। धान के खेतों के किनारे-किनारे कौणी और झंगोरा बोया जाता है। कोणी की जड़े काफी मजबूत और मिट्टी को बांधे रखती है इसलिये यह खेतों के किनारों को भी टूटने या मिटटी के बहने से रोकती है। इसकी कटाई सितम्बर-अक्टूबर में होती है।उतराखण्ड में इसको खीर व भात बनाकर खाया जाता है। कौणी की खीर और कौणी का खाजा-बुखणा किसी दौर में बहुत प्रचलित था। इसका खाजा कटाई के दौरान ही भूनकर तैयार किया जाता है। लेकिन विकास और आधुनिकता की दौड़ ने पहाड़ के रहवासियों ने इसको मुख्य खाने से किनारे कर लिया है।इसमें डाइबिटिज के रोगियों के लिये बहुत उपयुक्त माना जाता है। इस वजह से भी धीरे-धीरे बाजार में इसकी मांग बढ़ रही है। इसके बिस्कुट, लड्डू इडली-डोसा और मिठाइयां काफी पसंद की जा रही है। इसके अलावा ब्रेड, नूडल्स, चिप्स तथा बेबी फूड, बीयर, एल्कोहल तथा सिरका बनाने में भी प्रयुक्त किया जा रहा है।संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन की सन् 1970 की रिपोर्ट तथा अन्य कई वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार कौंणी में क्रूड फाइबर, वसा, फाइवर, कार्बोहाईड्रेड के अलावा कुछ अमीनो अम्ल होने की वजह से आज विश्वभर में कई खाद्य उद्योगों में इसकी मांग हो रही है। सुगर के मरीजों के लिये यह वरदान जैसा है। इससे तमाम बिमारियों में होने वाली थकान से मुक्ति मिलती है। तंजानिया में तो एड्स रोगियों के बेहतर स्वास्थ्य के लिये कौंणी से बनाये गये भोजन को परोसा जाता है। अध्ययन में यह बात सामने आई है कि कौंणी के सेवन से यह खून में ग्लूकोज की मात्रा 70 प्रतिशत तक कम कर देता है। संभवतः इसीलिये पारम्परिक घरेलू नुस्खों में इसको तमाम व्याधियों में सेवन की बात की जाती है।कौणी में 9 प्रतिशत तक तेल की मात्रा भी पाई जाती है। विश्व के बहुत से देश इसी वजह से कौंणी को तिलहन के तौर पर भी उपयोग करते हैं। जिसकी वजह से विश्व के कई देशो में कौंणी से तेल का उत्पादन भी किया जाता है।कौणी की पौष्टिकता और औषधीय उपयोगिता की वजह से विश्वभर में बेकरी उद्योग की पहली पसंद बनता जा रहा है। कौंणी से तैयार किये ब्रेड में अन्य अनाजों से तैयार किये ब्रेड से प्रोटीन की मात्रा 11.49 की अपेक्षा 12.67, वसा 6.53 की अपेक्षाकृत कम 4.70 तथा कुल मिनरल्स 1.06 की अपेक्षाकृत अधिक 1.43 तक पाये जाते हैं। यूएन ने इसकी उपयोगिता, औषधीय गुणों और पौष्टिकता को देखते यह कदम उठाया है।कितनी अजीब बात है कि पौष्टिकता और औषधीय गुणों के बावजूद कौंणी आज उत्तराखण्ड में विलुप्ति के कगार पर पहुंच चुका है। बढ़ती आबादी की पोषण जरूरतों को पूरा करने और तेजी से बढ़ रही जीवनशैली से संबंधित बीमारियों मधुमेह, कैंसर, हृदय रोग, उच्च रक्तचाप आदि के रोकथाम में मोटे अनाजों की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। उनके इस महत्व को देखते हुए अपनी थाली में उन्हें शामिल करना आवश्यक हो गया है। ऐसा करना हर प्रकार से लाभदायक होगा। विश्व और भारत के स्तर पर इसको लेकर किये जा रहे प्रयास कितने कारगर होंगे यह तो भविष्य के गर्भ में है। प्रदेश में न सिर्फ खेती सिमट रही, बल्कि पारंपरिक फसलों पर भी संकट गहरा रहा है। पहाड़ से चार पारंपरिक फसलों की छह प्रजातियां विलुप्ति के कगार पर पहुंच गई हैं। उत्तराखंड सतत पर्वतीय विकास शिखर सम्मेलन में शिरकत करने आए बीज बचाओ आंदोलन के सूत्रधार विजय जड़धारी ने यह खुलासा किया। इन फसलों में कौणी व चीणा (मिलेट) के अलावा गेहूं की मिश्री व मुंडरी और धान की रिख्वा व बंक्वा प्रजातियां हैं। उन्होंने कहा कि यदि पोषक तत्वों से भरपूर इन समेत अन्य फसलों के बीज बचाने पर ध्यान नहीं दिया गया तो इन्हें इतिहास के पन्नों पर सिमटते देर नहीं लगेगी।

लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।

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