क्यु चीन लद्दाख पर कब्जा करना चाहता है? और लद्दाख भारत के लिए कितना महत्वपूर्ण है?
जिस लद्दाख के लिए भारत एक इंच भी पीछे हटने को राज़ी नहीं और जिस लद्दाख को हथियाने के लिए चीन तमाम साम-दाम-दंड-भेद अपना रहा है. आखिर उस लद्दाख की असलीयत क्या है? क्यों वो लद्दाख इतना अहम है? जबकि लद्दाख का ज्यादातर इलाका बंजर है. ना वहां लोग रहते हैं ना खेती-बाड़ी है।
लद्दाख के नाम पर. जिसका मतलब है The Land of High Passes यानी ऊंचे ऊंचे दर्रों से मिलकर बनी भूमि. लद्दाख में दाखिल होने के लिए आपको इन पहाड़ों को पार करना ही होगा. और इसीलिए लद्दाख हमेशा से महफूज़ रहा. क्योंकि इन दर्रों और पहाड़ों को पार करना बहुत जोखिम भरा रहा है. सर्दियों में इन्हें पार करना तो नामुमकिन है. इसलिए ज़्यादातर मूवमेंट यहां गर्मियों के मौसम में होती है. तो अब सवाल ये कि भारत तो खैर अपनी अस्मिता के लिए लड़ रहा है. मगर चीन इन पथरीले पहाड़ों को हथिया कर भी क्या हासिल कर लेगा.
भारत के सबसे उत्तरी हिस्से में आता है लद्दाख. ये ट्रांस हिमालय का इलाका है. लद्दाख का तकरीबन पूरा इलाका इन्हीं ऊंची-नीची बंजर पहाड़ियों से मिलकर बना है. बंजर इसलिए क्योंकि बारिश यहां ना के बराबर होती है. इसीलिए तराई इलाकों को छोड़कर ज़्यादातर इलाकों में ना यहां पेड़ मिलेंगे ना पौधे.
अब खुद लद्दाख को ही केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया है. इस यूनियन टेरेटेरी में सिर्फ दो ज़िले आते हैं. लेह और करगिल को भौगोलिक तौर पर देखें तो लद्दाख के पश्चिम में जम्मू कश्मीर, उत्तर में गिलगिट, बाल्टिस्तान. दूसरी तरफ पूर्वी तुर्किस्तान जिसे चीन के कब्ज़े के बाद से ज़िनजियांग रीजन के नाम से जाना जाता है. जबकि पूरब में तिब्बत. जहां भी चीन ने कब्ज़ा जमा रखा है और दक्षिण में है हिमाचल प्रदेश.
लद्दाख और तिब्बत की अहमियत हमेशा से इसलिए रही है. क्योंकि लद्दाख और तिब्बत सिल्क रूट के बिलकुल बीचो बीच है. चीन से जो सिल्क रूट निकलता था. वो तिब्बत और लद्दाख होते हुए ही जाता है. जो चीन को सीधे मध्य एशिया, यूरोप और मिडिल ईस्ट के देशों से जोड़ता है. और नीचे भारत को कनेक्ट करता है. तो एक तरह से लद्दाख को आप सिल्क रूट का चौराहा कह सकते हैं. जहां से चौतरफा व्यापार के रास्ते खुलते हैं. तिब्बत पर तो चीन पहले से ही कब्ज़ा कर के बैठा है. लहाजा अब इसलिए लद्दाख पर उसकी गिद्ध की नज़र है. क्योंकि ये रूट आज भी चीन को सुपर पॉवर बनने के रास्ते खोल सकता है.
मौजूदा दौर में लद्दाख को देखें तो वो सिर्फ इतना सा इलाका है. जबकि एतिहासिक तौर पर लद्दाख में अक्साई चीन और ज़िनजियांग का भी कुछ इलाका शामिल था. लद्दाख का इलाका पूरब में हिमालय के पहाड़ियों के बाद शुरु होता है. इसलिए इसे ट्रांस हिमालय कहते हैं. लद्दाख जितना अहम चीन के लिए है. उतना ही ज़रूरी भारत के लिए भी है. सदियों से कश्मीर पश्मीना शॉल या पश्मीना उत्पादों के लिए मशहूर रहा है. जिसका कच्चा माल लद्दाख के रास्ते तिब्बत से आया करता था. उस दौर में पश्मीना का व्यापार बहुत ही ज़्यादा फायदे का सौदा हुआ करता था. जिसकी वजह से कई लड़ाईयां भी हुईं. लद्दाख के इतिहास की कहानी शुरु होती है 7वीं सदी से. उस दौर में इस पूरे दक्षिण एशियाई इलाके में तिब्बत साम्राज्य बहुत मज़बूत माना जाता था. और तब तिब्बत की सीमा में मौजूदा पीओके से लेकर लद्दाख तक आता था.
मगर 9वीं सदी में तिब्बत के राजा लंगदरमा की हत्या कर दी गई. इसके अगले 100 सालों में तिब्बत साम्राज्य अलग अलग टुकड़ों में बिखर गया.. और जिस साम्राज्य के हिस्से में लद्दाख का इलाका आया उसका नाम था मरयुल साम्राज्य. यानी लद्दाख का एतिहासिक नाम मरयुल था. तिब्बत से अलग होने की वजह से लद्दाख में तिब्बत का प्रभाव करीब 1 हज़ार साल तक बहुत ज़्यादा रहा. क्योंकि दोनों इलाके के लोगों की ज़ुबान, धर्म, इतिहास और सियासत एक जैसी थी. 15वीं सदी में नामग्याल साम्राज्य ने इस इलाके पर अपना कब्ज़ा जमा लिया.
16वीं सदी के आते आते मुगल शासक अकबर के पास लद्दाख को अपने कब्ज़े में लेने का मौका था. मगर नामग्याल साम्राज्य ने खुद ही टकराव की कोई स्थिति पैदा नहीं होने दी. इसलिए अकबर ने वहां हमला भी नहीं किया. बल्कि जब तिब्बत ने लद्दाख पर हमला किया तब मुगल शासक औरंगज़ेब की सेना ने ही लद्दाख को बचाया था. इसके बाद 19वीं सदी तक लद्दाख पर नामग्याल किंगडम का ही राज रहा. जिनकी निशानियां आज भी लेह में मौजूद हैं.
इधर, 19वीं सदी में सिख साम्राज्य मज़बूत हो रहा था और महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर के साथ साथ लद्दाख पर भी कब्ज़ा जमा लिया. अब लद्दाख पर सिख डोगरा शासन था. मगर उसके पड़ोस में पड़ने वाले तिब्बत में सत्ता बदल चुकी थी. अब तिब्बत में क़िंग साम्राज्य का शासन था. डोगरा शासन अब व्यापार को मद्देनज़र रखते हुए पूरे सिल्क रूट पर कब्ज़ा चाहता था. यानी लद्दाख के साथ साथ अब उसकी नज़र पश्चिमी तिब्बत पर भी थी.
मगर जंग में डोगरा शासक हार गए. जिसे आज भी सीनो-सिख वार के नाम से जाना जाता है. इस जंग में क़िंग साम्राज्य की सेना लेह तक पहुंच गई. हालांकि फिर एक संधि के तहत दोनों की पहले वाली सीमा ही कायम रही. यानी लद्दाख डोगरा शासन के पास और पश्चिमी तिब्बत क़िंग साम्राज्य के पास. हालांकि इसके 4 साल बाद ही 1845 में डोगरा शासन अंग्रेज़ों से हार गया था.