
उत्तराखंड के कुल वन क्षेत्र में से 16.36% (3,99,34 हेक्टेयर) पर चीड़ वन हैं। इनमें 14 लाख मीट्रिक टन से अधिक पिरूल सालाना पैदा होता है।उत्तराखंड रिन्यूएबल एनर्जी डेवलपमेंट एजेंसी (उरेडा) की इस रिपोर्ट के मुताबिक एक हेक्टेयर वन क्षेत्र में 4.5 मीट्रिक टन पिरूल पैदा होता है। एक किलोवाट के प्लांट के लिए 9 मीट्रिक टन पिरूल की जरूरत है। 1.5 – 2 किलो पिरूल से एक किलोवाट ऑवर बिजली बनती है। अप्रैल, मई और जून में पिरूल इकट्ठा करने का काम होता है जिससे उत्तराखंड के जंगलों में वनाग्नि की समस्या को भी कम किया जा सकता हैवर्ष 2018 में बनी इस नीति में कहा गया था, “उत्तराखंड बायोमास के रूप में चीड़ के पत्तों की उपलब्धता में अत्यधिक समृद्ध है।अनुमान के अनुसार आरक्षित और वन पंचायत वनों (वन्य जीवन क्षेत्र को छोड़कर) में सालाना 15 लाख मीट्रिक टन से अधिक चीड़ के पत्ते उत्पन्न होते हैं। इसलिए, पारंपरिक उपयोगों के लिए पर्याप्त प्रावधान करने के बाद भी अनुमानित मात्रा का लगभग 40 प्रतिशत संग्रहणीय मात्रा के रूप में लिया जाता है; लगभग 6 लाख मीट्रिक टन औद्योगिक उपयोग के लिए उपलब्ध है। चीड़ की पत्तियों के अलावा, लगभग 8 लाख मीट्रिक टन अन्य बायोमास (कृषि फसल अवशेष, लैंटाना, आदि) भी औद्योगिक उद्देश्यों के लिए उपलब्ध है।नीति में आगे लिखा है कि उपरोक्त के आधार पर राज्य में बायोमास से सालाना 150 मेगावाट से अधिक बिजली उत्पादन की क्षमता है। 250 kW तक की क्षमता वाली बायो-मास आधारित परियोजनाओं और 2,000 मीट्रिक टन प्रति वर्ष तक की क्षमता की ब्रिकेटिंग/बायो-ऑयल इकाइयों से बिजली पैदा करने की यह अप्रयुक्त क्षमता न केवल स्थानीय बिजली की जरूरतों को पूरा करने में मदद कर सकती है, पर साथ ही साथ यह आजीविका और राजस्व सृजन का साधन भी है ।उत्तराखंड के कुमाऊं मंडल के पिथौरागढ़ निवासी ने जंगल में मिलने वाली चीड़ की पत्तियां यानी पिरूल से वर्ष 2009 में 10 किलोवाट के पावर प्लांट के साथ बेरीनाग में बिजली पैदा की थी और अपनी तकनीकी में सुधार करते हुए उन्होंने वर्ष 2017 में 25 किलोवाट का प्लांट लगाया जिससे वह सिर्फ बिजली ही नहीं पैदा कर रहे, बल्कि स्थानीय लोगो विशेषकर महिलाओं को रोजगार भी दे रहे हैं, राज्य में वनाग्नि की समस्या को भी कम कर रहे हैं। लेकिन राज्य सरकार से प्रोत्साहन मिलने के बाद भी उनकी यह तकनीक अभी तक रफ्तार पकड़ने में असफल रही है। पिरूल को वनाग्नि के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। यह पत्तियां जनवरी माह से ही जंगल की फर्श पर चादर की तरह बिछ जाती हैं और गर्मियों के बढ़ने पर यह नुकीली पत्तियां धधकने लगती हैं।सरकारी आंकड़ों के मुताबिक लगातार गर्मी के चलते राज्य में फरवरी-मार्च में वनाग्नि की घटनाएं शुरू हो गईं। उत्तराखंड से प्रकाशित खबरों के मुताबिक 1 नवंबर 2022 से 7 मार्च 2023 तक राज्य में 109.75 हेक्टेयर वन क्षेत्र वनाग्नि से प्रभावित हुए। जबकि 14 मार्च तक 148.90 हेक्टेयर वन क्षेत्र वनाग्नि प्रभावित हुए। यानी एक हफ्ते में ही तकरीबन 40 हेक्टेयर क्षेत्र में आग का दायरा बढ़ गया।काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर की रिपोर्ट जलवायु परिवर्तन और मौसमी बदलावों के चलते पिछले दो दशक में देश में वनाग्नि की घटनाएं दस गुना तक बढ़ी हैं। उत्तराखंड के अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ समेत पर्वतीय जिलों में जंगल जलने की घटनाएं शुरू हो गई हैं। मौसम विभाग फरवरी महीने में ही अत्यधिक तापमान का अलर्ट जारी कर रहा है ऐसे में पिरूल प्लांट जंगल की आग से जुड़ी समस्या का एक समाधान हो सकते हैं।2001 से 2021 तक, उत्तराखंड ने 17.9kha वृक्षों (kha = किलो हेक्टेअर) का आवरण खो दिया । राज्यसभा में पर्यावरण मंत्रालय द्वारा दिए गए एक जवाब के मुताबिक जनवरी 2017 से जून 2017 के बीच राज्य में वनाग्नि की 3,623 घटनाएं दर्ज हुईं। जनवरी 2018 से जून 2018 तक 11,808 घटनाएं, नवंबर 2018 से जून 2019 तक 12,965 घटनाएं, नवंबर 2019 से जून 2020 तक 759 घटनाएं, नवंबर 2020 से जून 2021 तक 21,487 घटनाएं दर्ज की गईं। 2022 में वनाग्नि की 2,200 घटनाओं में करीब 3,500 हेक्टेयर वन क्षेत्र प्रभावित हुआ। हालांकि पिरूल से बिजली बनाने में तकनीकी अड़चन भी हैं। उरेडा में बायोएनर्जी के लिए कार्य कर रहे परियोजना अधिकारी बताते हैं कि इन 6 में से एक भी प्रोजेक्ट ठीक से कार्य नहीं कर रहा है। उनके मुताबिक पिरूल से बिजली बनाने की तकनीक को बेहतर बनाने की जरूरत है। “इसके रिसर्च और डेवलपमेंट के लिए आईआईटी रुड़की से हमारी बातचीत चल रही है। मौजूदा प्रोजेक्ट तकनीकी तौर पर व्यावहारिक साबित नहीं हो पा रहे हैं। प्लांट की क्षमता कम होने के चलते ये वित्तीय तौर पर भी व्यवहारिक नहीं हैं।”उरेडा अधिकारी के इस बात की पुष्टि नैनीताल के रामगढ़ विकासखंड के निगराडू गांव में 25 किलोवाट का प्लांट लगाने वाले करते हैं। उनका प्लांट वर्ष 2020 में शुरू हुआ। “प्लांट से जुड़ी बहुत सी दिक्कतें हैं। जंगल से लाए गए पिरूल में गंदगी बहुत ज्यादा होती है। पिरूल डालने पर बहुत ज्यादा तार निकलता है जिससे इंजन जाम होता रहता है। इसलिए सफाई बहुत ज्यादा करनी होती है। जिसके लिए पानी की आवश्यकता होती है। गर्मी के दिनों में 500 लीटर तो अन्य दिनों में रोजाना 300 लीटर तक पानी चाहिए।” गांव वाले कहते हैं कि प्लांट में काम करने के लिए उन्हें अपने साथ कम से कम एक व्यक्ति और चाहिए लेकिन पहाड़ों में काम करने के लिए लोग नहीं मिलते। “एक तो यहां लेबर नहीं मिलती, फिर उन्हें भी 400 रुपए रोज का देना होता है। बारिश के दिनों में या अच्छी धूप न होने पर पिरूल में नमी रहती है और ये ठीक से जल नहीं पाता। इससे 25 किलोवाट का प्लांट 15 किलोवाट की क्षमता से काम करता है। बिजली जाने पर ग्रिड ठप हो जाती है। महीने में बमुश्किल 15 दिन ही प्लांट काम कर पाता हैइसमें लागत भी नहीं निकल सकी है,” ऊर्जा विभाग के सचिव पिरूल से बिजली बनाने के राज्य सरकार के फैसले को गैर-जिम्मेदार ठहराते हैं। इंडिया स्पेंड से बातचीत में उन्होंने कहा “पिरूल नीति लाने से पहले राज्य की एजेंसी से इसकी तकनीकी और वित्तीय व्यावहारिकता की जांच करानी चाहिए थी। खुद संतुष्ट होने के बाद ही इसका प्रचार करना चाहिए था। पिरूल प्लांट्स को लेकर अवनि संस्था और प्लांट चलाने वाले लोगों के साथ हमारी कई बैठकें हो चुकी हैं। अवनि संस्था अब भी कहती है कि ये तकनीकी और वित्तीय तौर पर व्यावहारिक है लेकिन प्लांट चला रहे लोग इससे इंकार कर रहे हैं। उन्होंने पावर प्लांट के लिए बैंक से ऋण भी ले लिया है और उसका भुगतान कर पाने की स्थिति में नहीं हैं”। ऊर्जा विभाग के सचिव कहते हैं “अब हम पिरूल से बिजली की जगह ईंट (ब्रिकेट्स) बनाने पर जोर देंगे। ऊर्जा विभाग ने एनटीपीसी को भी पत्र लिखे हैं कि क्या वे अपने मौजूदा थर्मल पावर प्लांट्स में पिरूल से बने ब्रिकेट्स का इस्तेमाल करेंगे। ये कोयले से सस्ता होगा। थर्मल प्लांट और पिरूल प्लांट दोनों को इससे फायदा होगा”। हालांकि एनटीपीसी की तरफ से उन्हें इस पर अभी तक कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है।ऊर्जा सचिव के मुताबिक उत्तराखंड सरकार अब पिरूल से बिजली उत्पादन को बढ़ावा नहीं देने जा रही। वैज्ञानिक कहते हैं अन्य बायोमास की तरह चीड़ की पत्तियों से बिजली बनाने का विचार बहुत अच्छा है लेकिन फिलहाल ये व्यावहारिक साबित नहीं हो पा रहा है।वह बताते हैं कि अवनि बायो एनर्जी ने जीबी पंत के कैंपस में भी इस प्लांट को चलाकर दिखाया है। “पिरूल प्लांट का तकनीकी मूल्यांकन अभी तक नहीं हुआ। हम इस पर काम कर रहे हैं। प्लांट चलाने वाले उद्यमियों को मैकेनिकल सहयोग की भी जरूरत है। प्लांट की दक्षता, व्यावहारिकता और सालभर पिरूल की उपलब्धता सुनिश्चित करना जरूरी है।”उधर,अपेक्षित नतीजे न मिलने पर पिरूल प्लांट को तकनीकी तौर पर बेहतर बनाने के काम में जुटे हुए हैं। “पर्वतीय क्षेत्र में काम करने वाले लोग नहीं मिल रहे हैं, इसलिए पिरूल प्लांट चलाने वाले उद्यमी परेशान होते हैं। हम एक ऑटोमाइज का सिस्टम बना रहे हैं। पिरूल फीड करने समेत सारा कार्य मैकेनिकल होगा। बिजली और बायोचार बनाने का काम साथ-साथ होगा। इस कार्य के लिए एक ही व्यक्ति पर्याप्त होगा। अभी कम से कम दो लोगों की जरूरत होती है।” पिरूल से बने बायोचार को प्रमुख उत्पाद के तौर पर देखे जाने की बात कहते हैं। वह कहते हैं, “एक किलो बायोचार मांग के मुताबिक 20 से लेकर 35 रुपए किलो तक भी बिक जाता है। इसका इस्तेमाल खेत में मिट्टी की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए होता है। साथ ही ये मिट्टी में कार्बन को 100 से अधिक वर्षों तक संचित रखता है। पर्वतीय क्षेत्रों में खाना बनाने के लिए ईंधन के तौर पर भी इसका इस्तेमाल होता है। बायोचार की डेढ़ किलो ब्रिकेट्स करीब 10 किलो जलावन की लकड़ी के बराबर होती हैं।”ज्यादातर मार्च, अप्रैल और मई के महीने में गांव की महिलाएं नजदीकी जंगल से चीड़ की सूखी पत्तियां इकट्ठा करती हैं। एक दिन में एक महिला 100-200 किलो तक पत्तियां इकट्ठा कर लाती है। उन्हें दो रुपए प्रति किलो के हिसाब से भुगतान किया जाता है। साल के तीन महीने होने वाले इस काम में कुछ स्थानीय महिलाओं ने 20-25 हजार रुपए प्रति माह तक कमाया।उनके मुताबिक जंगल से चीड़ की पत्तियां यानी पिरूल इकट्ठा करने में स्थानीय लोगों ने शुरुआती झिझक जरूर दिखाई। लेकिन अतिरिक्त आमदनी का जरिया मिलने पर आगे चलकर इस कार्य को करने की होड सी भी लग गई। चीड़ वनों के नजदीक बसे गांवों में पिरूल की अहमियत बहुत ज्यादा है। पिरूल को पालतू पशुओं के लिए बिस्तर के तौर पर लगाया जाता है। जिसमें गोबर मिलने पर ये खाद का काम करता है। जिसके जितने खेत होते हैं, उन्हें उतनी ज्यादा पिरूल की जरूरत होती है। गांव के जो लोग जंगल नहीं जा पाते वे हमसे पिरूल खरीदते हैं। लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।
उत्तराखंड में शुष्क मौसम में पारा चढ़ने के साथ ही जंगल धधकने का सिलसिला फिर शुरू हो गया है। मार्च में मौसम की मेहरबानी के चलते प्रदेश में जमकर वर्षा हुई और जंगल की आग से राहत रही। हालांकि, अप्रैल में शुरुआत से ही मौसम शुष्क बना हुआ है।खासकर बीते तीन दिन से पारे में लगातार इजाफा हो रहा है। ऐसे में दो दिन के भीतर प्रदेश में जंगल की आग की 14 घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमें 40 हेक्टेयर से अधिक वन क्षेत्र को नुकसान पहुंचा। आने वाले दिनों में वन विभाग की मुश्किलें बढ़ने की आशंका है। हालांकि, विभाग की ओर से आग की रोकथाम के भरसक प्रयास करने का दावा किया जा रहा है।प्रदेश में अनियमित वर्षा के पैटर्न के चलते बीते कुछ सालों से शीतकाल में भी आग की घटनाएं बढ़ गई हैं। हालांकि, ग्रीष्मकाल में ही जंगलों को आग का खतरा सर्वाधिक रहता है। मार्च से जून तक का समय आग के लिहाज से अत्यधिक संवेदनशील माना जाता है। खासकर कम वर्षा होने और वातावरण शुष्क होने के कारण जंगल की आग तेजी से फैलती है।इस बार मार्च में वर्षा अधिक होने से जंगल की आग की घटनाएं न के बराबर हुईं। हालांकि, अब अप्रैल में पारा तेजी से चढ़ रहा है और फिलहाल वर्षा के आसार नहीं दिख रहे हैं। इसके बाद मई और जून भी वन विभाग के लिए चुनौतीपूर्ण साबित हो सकते हैं।बीते दो दिन की बात करें तो कुल 14 घटनाओं में से 10 घटनाएं आरक्षित वन क्षेत्र में हुईं और चार घटनाएं सिविल क्षेत्र की हैं। हालांकि, नुकसान आरक्षित क्षेत्र में 8.7 हेक्टेयर और सिविल क्षेत्र में 31.5 हेक्टेयर जंगल को हुआ है।मुख्य वन संरक्षक वनाग्नि एवं आपदा प्रबंधन ने कहा कि वन विभाग की ओर से जंगल की आग रोकने को तमाम प्रयास किए जा रहे हैं। फायर क्रू स्टेशन को अलर्ट मोड पर रखा गया है और मुख्यालय स्थित कंट्रोल रूम से निगरानी की जा रही है। वन पंचायतों का सहयोग लेने के साथ ही ग्रामीणों को भी जागरूक किया जा रहा है। उत्तराखंड में मौसम शुष्क है और चटख धूप झुलसाने लगी है। पहाड़ से लेकर मैदान तक पारा तेजी से चढ़ रहा है। ज्यादातर मैदानी क्षेत्रों में अधिकतम तापमान 33 डिग्री सेल्सियस के पार पहुंच गया है। बारिश कम होने के कारण इस बार सर्दियों के मौसम में भी लगातार जंगल धधकते रहे। पिछले वर्ष अक्टूबर तक मॉनसून की बारिश होती रही थी। उसके बाद राज्य में सिर्फ छिटपुट बारिश हुई। नतीजा यह हुआ कि दिसंबर और जनवरी जैसे ठंडे महीनों में भी जंगलों के कई जगहों पर आग लगी रही। इस आग को बुझाने के लिए वन विभाग ने भी कोई इंतजाम नहीं किये। फरवरी का महीना एवरेज से ज्यादा गर्म रहा और इसी के साथ फॉरेस्ट फायर की घटनाएं भी बढ़ गई। उत्तराखंड में शुष्क मौसम में पारा चढ़ने के साथ ही जंगल धधकने का सिलसिला फिर शुरू हो गया है। मार्च में मौसम की मेहरबानी के चलते प्रदेश में जमकर वर्षा हुई और जंगल की आग से राहत रही। हालांकि, अप्रैल में शुरुआत से ही मौसम शुष्क बना हुआ है। इसके बाद मई और जून भी वन विभाग के लिए चुनौतीपूर्ण साबित हो सकते हैं। इस बीच वन विभाग ने हर वर्ष की तरह इस बार भी जंगलों को आग से बचाने के लिए हर तरह के प्रयास शुरू करने की बात कही है। इनमें मास्टर कंट्रोल रूम बनाने, क्रू स्टेशन स्थापित करने, वाच टावर व्यवस्थित करने, कंट्रोल बर्निंग और फायर लाइन साफ करने के साथ जंगलों के आसपास के गांवों में लोगों को जागरूक करने जैसे कदम शामिल हैं। लेकिन, वन विभाग की मुख्य समस्या कर्मचारियों की कमी है।जंगलों में आग बुझाने के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार फॉरेस्ट गार्ड और फॉरेस्टर के सैकड़ों पद अब भी खाली हैं। खासकर फॉरेस्ट गार्ड की नियुक्ति में लगातार विभाग की ओर से लापरवाही की जा रही है। राज्य में जरूरत से काफी कम फॉरेस्ट गार्ड के पद स्वीकृत हैंस्वीकृत पदों की संख्या करीब 3600 है, लेकिन इनमें से भी कुल 13 सौ फॉरेस्ट गार्ड ही नियुक्त हैं। वन विभाग जंगलों को आग से बचाने के लिए आम नागरिकों पर ही मुख्य रूप से निर्भर है।
लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।