उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में तड़के के रूप में खूब इस्तेमाल किया जाने वाला सर्वाधिक लोकप्रिय मसाला है. हम मौसम शीत की ओर बढ़ रहे हैं। यह ऐसा मौसम है, जब हमारी पाचन क्षमता दुरुस्त होने के कारण भोजन आसानी से पच जाता है। लेकिन, अधिक ठंड से होने वाली बीमारियों का भी भय बना रहता है। ऐसे में हमें जरूरत होती है शरीर को गर्म प्रदान करने वाले पौष्टिक आहार की। पहाड़ की बारहनाजा पद्धति में हमारे पूर्वजों ने इस दौरान मोटा अनाज के तैयार पारंपरिक व्यजंनों को खाने की सलाह दी है। हम उत्तराखंडी खानपान के इन्हीं पहलुओं से आपका परिचय करा रहे हैं। उत्तराखण्ड में शायद ही कोई ऐसा भोजन होगा जिसमें जख्या का उपयोग तड़के में न किया जाता हो, इसका स्वाद अपने आप में अनोखा है। आज उत्तराखण्ड में ही नहीं अपितु बड़े शहरों के होटलों में भी जख्या का प्रयोग तड़के के रूप में किया जाता है तथा उत्तराखण्ड के प्रवासी भी विदेशों में जख्या यहीं से ले जाते हैं ताकि विदेशों में भी पहाड़ी जख्या का स्वाद ले सकें।Cleome जीनस के अन्तर्गत लगभग विश्वभर में 200 से अधिक प्रजातियां उपलब्ध है। जख्या निम्न से मध्य ऊंचाई तक उगने वाला पौधा है। यह मूल रूप से अफ्रीका तथा सऊदी अरब से सम्बन्धित माना जाता है। वैज्ञानिक रूप से जख्या capparidaceae परिवार से सम्बन्ध रखता है।जख्या शायद ही कहीं पर, मुख्य फसल के रूप में उगाया जाता होगा, वस्तुतः यह एक खरपतवार की तरह ही जाना जाता है व मुख्य फसल के साथ बीच में ही उग जाता है। सम्पूर्ण एशिया व अन्य कई देशों में जख्या को खरपतवार के रूप में ही पहचाना जाता है जबकि प्राचीन समय से ही यह पारम्परिक मसालें का मुख्य अवयव है। जख्या का महत्व केवल इसके बीज से ही है जिसको मसालें के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसके बीज में 18.3 प्रतिशत तेल जो कि फैटी एसिड, अमीनो अम्ल से भरपूर होता है, भी लाभकारी पाया जाता है क्योंकि इसमें analgesic गुणों के साथ-साथ ओमेगा-3 तथा ओमेगा-6 महत्वपूर्ण अवयव पाये जाते हैं। जहां तक जख्या के पोष्टिक गुणों की बात की जाय तो इसमें फाईबर 7.6 प्रतिशत, कार्बोहाईड्रेट 53.18 प्रतिशत, स्टार्च 3.8 मि0ग्रा0, प्रोटीन 28 प्रतिशत, वसा 0.5 प्रतिशत, विटामिन सी 0.215 मि0ग्रा0, विटामिन इ 0.0318 मि0ग्रा0, कैल्शियम 1614.2 मि0ग्रा0, मैग्नीशियम 1434.3 मि0ग्रा0, पोटेशियम 145.25 मि0ग्रा0, सोडियम 59.85 मि0ग्रा0, लौह 30.10 मि0ग्रा0, मैग्नीज 7.70 मि0ग्रा0, जिंक 1.995 मि0ग्रा0 तक पाये जाते हैं। पोष्टिक एवं औषधीय रूप से इतने महत्वपूर्ण जख्या को खरपतवार के रूप में पहचाना जाता है जबकि उत्तराखण्ड के ही स्थानीय फुटकर बाजार में इसकी कीमत 200 रूपये प्रति किलोग्राम तक है तथा सबसे महत्वपूर्ण यह है कि इसमें खरपतवार के रूप में विपरीत वातावरण, असिंचित व बंजर भूमि तथा दूरस्थ खेतों में भी उगने की क्षमता होती है। यदि जख्या को कम उपजाऊ भूमि तथा दूरस्थ खेतों में भी उगाया जाय तो यह बेहतर उत्पादन के साथ-साथ आर्थिकी का जरिया भी बन सकती है। पहाड़ी जख्या को खरपतवार ही नहीं बल्कि एक महत्वपूर्ण फसल भी बन सकती है।सर्दियों के मौसम को खाने-पीने के लिहाज से सबसे बेहतरीन माना गया है। इस मौसम में जठराग्नि बहुत तेजी से काम करती है, जिसकी वजह से बहुत ज्यादा भूख लगती है। हम जो भी खाते हैं, पाचन क्षमता दुरुस्त रहने की वजह से वह आसानी से पच जाता है। लेकिन, सर्दियों में ठंड बढ़ने के साथ जहां सर्दी-जुकाम समेत अन्य बीमारियां दस्तक देने लगती हैं, वहीं सुस्ती और आलस की समस्या भी घेरे रहती है। ऐसे में हम आहार में शरीर को गर्मी प्रदान करने वाली चीजों को शामिल कर स्वयं को स्वस्थ रखने के साथ चुस्त-दुरुस्त भी रख सकते हैं। पर, असल सवाल यही है कि आखिर हमारा आहार कैसे हो। इसके लिए उत्तराखंड की बारहनाजा पद्धति में सनातनी व्यवस्था है। यहां लोगों का पारंपरिक भोजन पूरी तरह सतुलित व पोषक तत्वों से परिपूर्ण है। वजह यह कि इसमें सभी मोटे अनाज शामिल हैं। एक प्रकार से यह ‘बैलेंस डाइट’ है। हालांकि, एक दौर में लोग पारंपरिक भोजन से दूरी बनाने लगे थे, लेकिन अब वे फिर से पारंपरिक भोजन का महत्व समझने लगे हैं। जख्या एक व्यावसायिक फसल नहीं है लेकिन वर्तमान में इसके सुखाये गये बीजों की कीमत 350 रूपये से अधिक है। जखिया या जख्या नाम से जाना जाने वाला यह पहाड़ी मसाला महक और जायके से भरपूर है. जखिया उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में तड़के के रूप में खूब इस्तेमाल किया जाने वाला सर्वाधिक लोकप्रिय मसाला है. काली-भूरी रंगत वाले जख्या के दाने सरसों और राई के हमशक्ल होते हैं. किसी भी पहाड़ी रसोई में इसका दर्जा उतना ही महत्वपूर्ण है जितना की मैदानी इलाकों में जीरे का. इसमें पाए जाने वाले फ्लेवरिंग एजेंट इसके अद्भुत स्वाद के लिए जिम्मेदार हैं. आलू, पिनालू, गडेरी, कद्दू, लौकी, तुरई, हरा साग, आलू-मूली के थेचुए और झोई (कढ़ी) आदि व्यंजनों में इसका तड़का लगाया जाता है. जख्या से छोंके गए चावल दाल की कमी महसूस नहीं होने देते. जखिया के बीज का तड़का लगाने के अलावा इसके पत्तों का साग भी खाया जाता है. इसकी महिमा को देखते हुए उत्तराखंड के मशहूर गायक, गीतकार और संगीतकार नरेंद्र सिंह नेगी ने इस पर एक गीत ही रच डाला है. गीत के बोल हैं –‘मुले थिंच्वाणी मां जख्या कु तुड़का, कबलाट प्वटग्यूं ज्वनि की भूख’ (मूली की थिंच्वाणी में जख्या का तड़का पेट में कुलबुलाहट पैदा करता है. आखिर जवानी की भूख जो है.) जखिया का स्वाद एक बार जिसकी जुबान पर लग गया वह इसका मुरीद हो जाता है. पहाड़ी रसोइयों से जीमकर गए विदेशी तक इसके स्वाद के दीवाने हैं. टाइम्स ऑफ़ इंडिया में छपी खबर की तस्वीर में आप नॉर्वे में रहने वाली आयरिश महिला डाइड्री कैनेडी की जखिया के लिए दीवानगी की खबर पढ़ सकते हैं. प्रवासी उत्तराखंडी भी अपने खाने को पहाड़ी आत्मा देने के लिए पहाड़ से जखिया का कोटा ले जाना कभी नहीं भूलते. हालांकि यह बरसात के दिनों में बहुत सी जगह एक खरपतवार के रूप में उगता है पर अगर इसे एक व्यवसायिक फसल के रूप में उगाया जाए तो कुछ हद तक पलायन रोकने में महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है साथ इसकी माँग बाज़ारों में सदैव रहती है. जख्या की खेती को भले ही अब तक खास तवज्जो न मिली हो, लेकिन यह आर्थिकी संवारने में सक्षम हो सकता है। जिस तरह से इसकी मांग बढ़ रही है, उसे देखते हुए जख्या की खेती को बढ़ावा दिया जाए तो इससे अच्छी आय हो सकती है।ऐसे में जिस उदेश्य के साथ राज्य का गठन किया गया था, वो सपना अभी भी अधूरा लग रहा है। लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।