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उत्तराखंड की पहली थिएटर आर्टिस्ट थीं नईमा खान !! डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड की पहली थिएटर आर्टिस्ट नईमा खान ने रंगमंच के माध्यम से पहाड़ की लोकगाथाओं, भारतीय और पश्चिमी नाट्य विधा को जीवंत किया तो वहीं समाज की प्रतिक्रियावादी सोच को भी चुनौती दी। जाति-धर्म की दीवारों को भेदकर उन्होंने प्रसिद्ध रंगकर्मी मोहन उप्रेती से विवाह किया और नईमा खान उप्रेती बन गईं। नईमा खान का जन्म,  25 मई 1938 को  उत्तराखंड  अल्मोड़ा के  कारखाना बाजार के प्रतिष्ठित मुस्लिम परिवार में हुवा था। उनके दादा हाजी नियाज मुहम्मद ब्रिटिश काल मे नगर पालिका अल्मोड़ा में म्युनिसिपल कमिश्नर थे। उनके पिता शब्बीर मुहम्मद खान ने सामाजिक रूढ़ियों को दरकिनार कर एक ईसाई महिला से विवाह किया था। पिता के इन्ही आधुनिक विचारों का नईमा खान पर भी प्रभाव पड़ा।नईमा जी की प्रारंभिक शिक्षा एडम्स गर्ल्स कॉलेज अलमोड़ा से तथा ,12 की शिक्षा रामजे कॉलेज   अल्मोड़ा से ही पूरी की। नईमा जी को बाल्यकाल से ही संगीत में काफी रुचि थी। 1958 में उन्होंने कला, अंग्रेजी साहित्य, राजनैतिक विज्ञान और अर्थशास्त्र में स्नातक की उपाधि ली। 1969 में  राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से अभिनय में 3 साल का डिप्लोमा किया। नईमा जी ने फ़िल्म एंड टेलीविजन इंसिट्यूट ऑफ इंडिया  पुणे से भी डिप्लोमा लिया। नईमा खान की और मोहन उप्रेती जी प्रेम कथा और प्रथम मुलाकात काफी रोमांचक थी। नईमा खान और मोहन उप्रेती की का विवाह शायद उत्तराखंड का पहला अंतरजातीय विवाह था। नईमा खान जी ने एक इंटरव्यू में बताया कि वो एडम्स गर्ल्स कॉलेज  अल्मोड़ा में सांस्कृतिक प्रोग्रामों में हमेशा प्रथम आती थी। लेकिन एक दिन मोहन उप्रेती जी वहाँ जज बनकर आये, उन्होंने नईमा आपा को 2nd स्थान दिया। इससे नईमा खान जी काफी रुष्ट हुई। उन्होंने बाद में भी मोहन उप्रेती जी की बाद में भी आलोचना की । नोक झोंक का यह सफर कब दोस्ती और प्यार में बदल गया पता ही नही चला। धीरे धीरे वो दोनो मिल कर प्रोग्राम करने लगे।यही सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए दोनो ने विवाह का विचार किया, जाती, धर्म की अड़चने राह मो रोड़ा डाले खड़ी थी। जहाँ मोहन उप्रेती जी एक कट्टर ब्राह्मण थे, और नईमा जी एक मुस्लिम।कहते हैं पहले मोहन उप्रेती जी का परिवार इस विवाह के लिए राजी नही हुवा लेकिन, बाद में दोनो बच्चों की जिद के आगे दोनो परिवारों को झुकना ही पड़ा । नईमा खान बन गई नईमा खान उप्रेती । यहाँ से दोनो पति पत्नी ने उत्तराखंड नाट्य और लोक संगीत को एक नया आयाम देने का कार्य शुरू किया। नईमा खान उप्रेती  बचपन से ही कला संस्कृति क्षेत्र में सक्रिय थी। उन्हें अपने लोक संगीत से काफी लगाव और प्यार था। नईमा जी ने कुछ समय बाहर काम करके,अपने पति मोहन उप्रेती जी के साथ वापस अपने जन्मभूमि  मातृभूमि की कला संस्कृति को सवारने में लग गई।नईमा जी को घसियारियों , घसेरी की पसंदीदा गायिका कहा जाता है। उन्होंने अधिकतर  घसेरी गीत गाये। नईमा खान उप्रेती जी द्वारा बेड़ू पको बारो मासा ,पारा भिड़ा को छे घसियारी, ओ लाली हो लाली होसिया अपने पति मोहन उप्रेती जी के साथ गाये। जो काफी लोकप्रिय रहे। नईमा खान उप्रेती और मोहन उप्रेती जी ने कई आकाशवाणी केंद्रों से कार्यक्रम किये। भारतीय समाज में व्याप्त जातिवाद और रुढि़वाद को चुनौती देने और सामाजिक परिवर्तन को नई दिशा देने में रंगमंच और रंगकर्मियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। आज भले ही मनोरंजन के कई साधन मौजूद हैं लेकिन थियेटर की प्रासंगितकता बरकरार है। नईमा ने ओथेलो, द कॉकेशियन चॉक सर्कल, नाटक पोलमपुर का, स्कंदगुप्त आदि में काम किया। उन्होंने इब्राहिम अल्काजी, सुरेखा सीकरी, उत्तरा बाओकर, एमके रैना जैसी थिएटर हस्तियों के साथ मंच साझा किया। पहाड़ी लोककथा राजुला मालूशाही, अजुवा बाफौल, रामी बौराणी आदि के नाट्य रुपांतरण का श्रेय उप्रेती दम्पत्ति को जाता है। 6 जून 1997 में मोहन उप्रेती की मृत्यु के बाद नईमा ने पर्वतीय कला केंद्र, दिल्ली के अध्यक्षकीकमानसंभाली।मोहन उप्रेती के काम को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने पुराने कुमाऊंनी गाथागीतों और लोकपरंपराओं को संरक्षित करने का प्रयास किया। उन्होंने मेघदूतम, रामी, गोरीधना, अमीर खुसरो, अलगोजा जैसी थिएटर प्रस्तुतियों का आयोजन किया। 15 जून 2018 को 80 वर्ष की आयु में दिल्ली में उन्होंने आखिरी सांसे लीं।कुमाउनी लोकगायन व राष्ट्रीय रगमंच की जानीमानी रंगकर्मी नईमा खान उप्रेती उनकी देह करारनामे के मुताबिक बिना दाह संस्कार के आयुर्विज्ञान सस्थान (एम्स) को दान कर दी गई।1955 मे नईमा खान उप्रेती अल्मोड़ा ने लोक कलाकार संघ से जुड कर मोहन उप्रेती के साथ बेडू पाको, ओ लाली ओ लाली तथा पारा भीड़ा को छै घस्यारी जैसे लोकगीत गाकर कुमाउनी लोकगीतों को राष्ट्रीय पहचान दिलवाई। 1968 मे राष्ट्रीय नाट्य विघालय से एक्टिंग मे डिप्लोमा लिया व अनेको नाटकों मे भूमिका निभाई। दुरदर्शन की प्रोडूस्यर पद पर रही। अपने पति सगीतज्ञ पति मोहन उप्रेती की मत्यु के बाद प्रसिद्ध सस्था पर्वतीय कला केंद्र की अध्यक्षरही।1983 व 1988 मे आप इस सस्था का साथ अनेको देशो के सांस्कृतिकयात्रापरभीगई। अपने निधन से पूर्व उन्होंने अपना शरीर मेडिकल कालेज को दान दे दिया था. नईमा खान उप्रेती भले ही आज इस संसार में नहीं हैं,लेकिन उनके गाये तमाम लोकगीत आज भी पहाड़ के लोगों के दिल में बसे हुए हैं. शिखर-घाटियों व धुर-जंगल में बासने वाली न्यौली घुघुती व कफ्फू में आज भी नईमा खान उप्रेती के गीत सुनायी देते हैं जो निरन्तर आगे भी सुनाई देते रहेगें. अल्मोड़ा के गली-बाजारों में मोहन-नईमा के गीत-संगीत और उनके निश्छल प्रेम के कभी खतम न होने वाले ठेठ अल्मोड़िया ठसक वाले किस्से अब भी जीवन्त बने हुए हैं. उत्तराखण्ड की लोकसंस्कृति के प्रचार प्रसार का लिए आप सदैव प्रतिबद्ध रही। जीका जीवन दर्शन आज पहले से भी ज्यादा अनुकरणीय हो गया है.। लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।

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