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उत्तराखंड की बिगड़ रही तस्वीर! डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

24 साल बाद भी राज्य आंदोलनकारी बलिदानियों के सपने साकार नहीं हो पाए। जिस मानसिकता को लेकर बलिदानियों ने अपनी शहादत दी। वह राज्य नहीं बन पाया।उत्तराखंड में 24 वर्षों से पर्वतीय क्षेत्र की बड़ी आबादी का राज्य के 100 से अधिक शहरों और कस्बों में बसना जारी है। इस कारण पहले से ही आबादी के दबाव का सामना कर रहे शहरों और कस्बों की जन सुविधाएं और बुनियादी व्यवस्थाएं चरमरा गई हैं। सामाजिक ताना-बाना, रीति-रिवाज तो प्रभावित हुए ही हैं, आर्थिक और राजनीतिक हालात में भी बदलाव दिखे हैं।राज्य की जनसंख्या वृद्धि बेशक विस्फोटक नहीं है लेकिन असंतुलन एक बड़ी चिंता और चुनौती का कारण है। यह असंतुलन जितना अधिक बढ़ेगा, राज्य के सामाजिक, आर्थिक राजनीतिक ताने-बाने को उतना अधिक छिन्न-भिन्न करेगा। इसलिए नीति नियामकों को जनसांख्यिकीय असंतुलन को संभालने के लिए गंभीर प्रयास और नीति नियोजन करने होंगे। उत्तराखंड ग्राम्य विकास एवं पलायन निवारण आयोग की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार, राज्य के 3946 गांवों से 117981 लोग पलायन कर गए। वर्ष 2022 तक 6430 गांवों से 307310 लोगों ने अस्थायी पलायन किया। बड़ी आबादी के पलायन से पर्वतीय क्षेत्र में खेती-बाड़ी उजाड़ हो रही है और अन्य आर्थिक व पारंपरिक काम धंधे ठप पड़ चुके हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में लोग गांवों को छोड़कर वहां के छोटे कस्बों और शहरों में आ बसे हैं। भू-धंसाव के कारण सुर्खियों में रहा जोशीमठ इसका ताजा उदाहरण है। जोशीमठ में उसके आसपास के गांवों के लोग लगातार बसते गए और इस शहर पर उसकी धारण क्षमता से अधिक आबादी का दबाव बढ़ चुका है। यही हाल देहरादून, हल्द्वानी, हरिद्वार, रुड़की, रुद्रपुर, ऋषिकेश, कोटद्वार, श्रीनगर, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, टनकपुर, खटीमा, सितारगंज के आसपास के ग्रामीण इलाकों का है। यूपी, हिमाचल, हरियाणा और दिल्ली राज्य की सीमाओं से सटे शहरों में पड़ोसी राज्य की आबादी का दबाव पहले से ही बना है। इन शहरों में पहाड़ से भी लोग पलायन कर आ रहे हैं। स्थिति यह है कि देहरादून, हरिद्वार, नैनीताल और ऊधमसिंह नगर सरीखे मैदानी जिलों के आसपास के ग्रामीण क्षेत्र नए शहरों और कस्बों में बदल रहे हैं। यहां कृषि क्षेत्र लगातार घट रहा है। कृषि विभाग के आंकड़ों के मुताबिक, 2011-12 से 2022-23 तक राज्य में 156291 हेक्टेयर कृषि रकबा घट गया। 2011-12 में 909305 हेक्टेयर कृषि भूमि थी, जो 2022-23 में 753014 हेक्टेयर रह गई। जनसंख्या संतुलन गड़बड़ाने से राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों का विधानसभा में राजनीतिक प्रतिनिधित्व भी घट गया। राज्य गठन के समय पर्वतीय क्षेत्र में 40 और मैदानी क्षेत्र में 30 विधानसभा सीटें थीं। परिसीमन के बाद पहाड़ में छह सीटें कम हो गईं। इस तरह अब पहाड़ और मैदान की सीटों में 34:36 का अनुपात है। भविष्य में होने वाले परिसीमन में और सीटें कम होने का अनुमान है। मैदानी और पर्वतीय सीटों में मतदाताओं की संख्या से जनसंख्या अंसतुलन का अंदाजा सहज लगाया जा सकता है। मिसाल के तौर पर 2012 से 2022 के बीच 10 सालों में राज्य की मैदानी क्षेत्र की विधानसभा सीटों पर 41 फीसदी से लेकर 72 फीसदी तक मतदाता बढ़े। वहीं इस अवधि में पर्वतीय क्षेत्रों की सीटों में मतदाताओं की संख्या आठ से 16 फीसदी की दर से बढ़ी। शहरों में आबादी का लगातार दबाव बढ़ने से ट्रैफिक जाम, जल भराव, कूड़े की गंभीर होती समस्या और पेयजल संकट की चुनौती लगातार गंभीर हो गई है। सरकार के स्तर पर अगले 20 से 30 वर्षों को ध्यान में रखकर बेशक योजनाओं का स्वरूप तैयार हो रहा है, लेकिन इनके निर्माण की गति से अधिक नई आबादी का दबाव बढ़ने से दिक्कतें और गंभीर हो रही हैं पर्यटन और तीर्थाटन राज्य होने की वजह उत्तराखंड पर फ्लोटिंग आबादी का सात गुना दबाव है। यही वजह है कि मुख्यमंत्री पीएम से लेकर नीति आयोग और केंद्र सरकार के मंचों पर राज्य में फ्लोटिंग आबादी के हिसाब से केंद्रीय सहायता की मांग करते हैं। राज्य में चारधाम यात्रा, कांवड़ यात्रा, हेमकुंड यात्रा समेत कई धार्मिक यात्राओं में करोड़ों श्रद्धालु उत्तराखंड आते हैं। इन श्रद्धालुओं के लिए सरकार को बुनियादी सुविधाओं की व्यवस्था करानी होती है। इस बार यमुनोत्री और गंगोत्री धाम में श्रद्धालुओं के उमड़े सैलाब के आगे राज्य की व्यवस्थाएं चरमरा गई थीं।जनसंख्या असंतुलन के चलते सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक व पर्यावरण पर असर पड़ रहा है। प्रदेश में जनसंख्या असंतुलन का राजनीतिक असर यह है कि पर्वतीय क्षेत्रों में छह विधानसभा सीटें कम हो गईं। इससे सत्ता में पहाड़ का प्रतिनिधित्व भी कम हो रहा है। आने वाले समय में परिसीमन हुआ तो और सीट कम हो जाएंगी। मैदानी क्षेत्रों के साथ ही जिला व तहसील मुख्यालय स्तर पर तेजी शहरीकरण हो रहा है। जो पर्यावरण को प्रभावित कर रहा है। गांवों से लोग मैदानों में आकर बस रहे हैं। जिससे पहाड़ की संस्कृति, परंपरा, रीति रिवाज खत्म हो रहे हैं। प्रदेश सरकार को जनसंख्या नियंत्रण से ज्यादा असंतुलन को कम करने पर ध्यान देने की जरूरत है। छोटा और सीमित संसाधनों वाले राज्य पर आबादी का असंतुलित दबाव जिस तरह से बढ़ रहा है, यह आने वाले वर्षों में और ज्यादा गंभीर होगा। इस असंतुलन ने राज्य की सारी व्यवस्थाओं को तहस-नहस कर दिया है। हमारे नीति नियंता और योजनाकार इस दबाव के आगे बेबस नजर आ रहे हैं। समय आ गया है कि अब हमें उत्तराखंड की धारण क्षमता का आंकलन कराना होगा। हमारा उत्तराखंड कितनी आबादी झेलने का समर्थ है। पहाड़ में भुतहा गांवों की संख्या बढ़ रही है। बुनियादी सुविधाओं के अभाव में पर्वतीय इलाकों से लोग पलायन कर रहे हैं। इसकी तस्दीक 2012 से 2022 के चुनाव में मतदाताओं की संख्या के तुलनात्मक विश्लेषण से हो रहा है। मैदानी क्षेत्रों में मतदाताओं संख्या लगातार बढ़ी है, जबकि पर्वतीय क्षेत्रों में यह दर कम रही है। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद अब तक दो जनगणना हुई है। वर्तमान में राज्य की जनसंख्या कितनी है, इसकी किसी को भी सटीक जानकारी नहीं है। क्योंकि देश में 2011 के बाद जनगणना ही नहीं हुई। सरकार भी केवल अनुमानित आबादी के आधार पर ही अपना काम चला रही है।सरकार को इस बारे में गंभीरता विचार करना होगा। जनसंख्या असंतुलन से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ताना-बाना गड़बड़ाया है।. (इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।)

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