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अखंड सुहाग का प्रतीक है वट सावित्री व्रत ! डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

देहरादून, उत्तराखंड
सावित्री का अर्थ वेद माता गायत्री और सरस्वती भी माना जाता है.
सावित्री के जन्म के बारे में कहा जाता है कि भद्रदेश के राजा अश्वपति के कोई संतान न थी. संतान प्राप्ति के लिए उन्होंने अठारह वर्षों तक मंत्रोच्चारण के साथ प्रतिदिन एक लाख आहुतियाँ दीं. इससे प्रसन्न होकर सावित्री देवी ने प्रकट होकर उन्हें एक तेजस्वी कन्या के पैदा होने का वर दिया. सावित्री की कृपा से जन्म लेने वाली कन्या नाम भी सावित्री रखा गया. इस रूपवान कन्या के बड़े हो जाने पर भी कोई योग्य वर न मिलने की वजह से सावित्री के पिता दुःखी थे. उन्होंने कन्या को स्वयं वर तलाशने भेजा. वर की तलाश में सावित्री तपोवन में भटकने लगी. वहां साल्व देश के सत्ताचुत राजा द्युमत्सेन रहते थे क्योंकि उनका राज्य किसी ने छीन लिया था. उनके पुत्र सत्यवान को देखकर सावित्री ने पति के रूप में उनका वरण करना चाहा. सावित्री के पिता को भी सत्यवादी, सर्वगुण संपन्न सत्यवान अपनी पुत्री के वर के रूप में पसंद था. वेदों के ज्ञाता सत्यवान अल्पायु थे इसी वजह से नारद मुनि ने सावित्री को सत्यवान से विवाह न करने की सलाह भी दी थी इसके बावजूद सावित्री ने सत्यवान से ही विवाह रचाया. एक वर्ष बीत जाने के बाद पिता की आज्ञानुसार सत्यवान लकडियां और फल लेने वन में गए. उनके साथ सावित्री भी थीं. यहाँ नियतिनुसार सत्यवान की वृक्ष से गिरकर मौत हो गयी. यमराज ने उनके सूक्ष्म शरीर को लेकर यमपुरी को प्रस्थान किया तो सावित्री भी साथ चल पड़ी. यमराज ने सावित्री को समझाया कि मृत्युलोक के शरीर के साथ कोई यमलोक नहीं आ सकता अतः अपने पति के साथ आने के लिए तुम्हें अपना शरीर त्यागना होगा. सावित्री की दृढ निष्ठा और पतिव्रतधर्म से प्रसन्न होकर यम ने एक-एक करके वरदान के रूप में सावित्री के अन्धे सास-ससुर को आँखें दीं, खोया हुआ राज्य दिया, उसके पिता को सौ पुत्र दिये और सावित्री को लौट जाने को कहा. परन्तु सावित्री अपने प्राणप्रिय को छोड़कर नहीं लौटी. विवश होकर यमराज ने कहा कि सत्यवान को छोडकर चाहे जो माँग लो, सावित्री ने यमराज से सत्यवान से सौ पुत्र प्रदान होने का वरदान मांग लिया. यम ने बिना सोचे प्रसन्न मन से तथास्तु भी कह दिया. यमराज के आगे बढ़ने पर सावित्री ने कहा- मेरे पति को आप साथ अपने लेकर जा रहे हैं और मुझे सौ पुत्रों का वर दिये जा रहे हैं. यह कैसे सम्भव है? मैं पति के बिना सुख, स्वर्ग और लक्ष्मी, किसी की भी कामना नहीं करती. बिना पति के मैं जीना भी नहीं चाहती।ज्येष्ठ मास के कृष्णपक्ष के आमावास्या के दिन धारण किये जाने वाला वट सावित्री व्रत अखंड सुहाग का प्रतीक है। महिलाएं अपने अखंड सौभाग्य के लिए इस व्रत रखती हैं।पुराणों के अनुसार वट देववृक्ष माना जाता है। वट वृक्ष के मूल में भगवान ब्रह्मा, मध्य में विष्णु और अग्रभाग में देवाधिदेव शिव विद्यमान हैं। इसके अलावा वट वृक्ष में देवी शक्तियां भी विद्यमान है। इसी वट वृक्ष के नीचे सावित्री ने अपने पतिव्रत से मृत पति को जीवित किया था, तब से यह व्रत वट सावित्री के नाम से किया जाता है। व्रत करने वाली महिलाएं इस दिन वट वृक्ष की पूजा करती हैं। इस दिन महिलाएं अपने अखंड सौभाग्य एवं कल्याण के लिए व्रत रखती हैं। पंडित कहते हैं कि अखंड सुहाग के लिए वट सावित्री व्रत किया जाता है। एक चौकोर लकड़ी पर लाल वस्तु बिछाकर इसकी पूजा की जाती है। वट वृक्ष में कुमकुम, रोली, अक्षत, पुष्प, फल, दीप व सौभाग्य आभूषण वस्त्र अर्पण कर वृक्ष को कच्चे सूत्र से लपेटते हुए कम से कम सात बार अथवा एक सौ आठ बार परिक्रमा कर सावित्री व्रत की कथा पढ़े जाने का विधान है। इसके अलावा ऊं सती सावित्राय नम: ऊं धर्मराजाय नम: मंत्र का जाप करना है। शहरी क्षेत्रों मे सबसे अधिक समस्या वट वृक्ष की रहती है। ऐसे में लोग आसपास के क्षेत्रों से वट की टहनी लाकर घर में ही पूजा कर लेते है। दून में वट वृक्ष गिने-चुने हैं। ऐसे में अधिकाश परिवार वट की टहनी घर लाकर पूजा कर लेते हैं। टहनी में पत्तों की विषम संख्या शुभ मानी जाती है। पुष्पा ने बताया कि वट की टहनियों को पेड़ स्वरूप मानकर उसकी परिक्रमा कर पूजा जाता है। इस अवसर पर ने लोगों ने अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा के लिए वट की पूजा करते समय शारीरिक दूरी के नियम का पालन अवश्य बनाकर करें। घर में वट की टहनी की भी पूजा की ऐसे करें. वैश्वीकरण और बाजारीकरण की आंधी में लोकोत्सवों, स्थानीय त्यौहारों का वजूद ख़त्म होता जा रहा है, या फिर उनका मूल स्वरुप लुप्त होता जा रहा है. उत्तराखण्ड के भी कई मेले, त्यौहार अपना मूल स्वरुप खोते जा रहे हैं या फिर विलुप्त होने के कगार पर हैं. करवा चौथ एक ऐसा त्यौहार है जिसे उत्तराखण्ड में कुछ साल पहले तक नहीं मनाया जाता था. सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी इसका कोई वजूद नहीं है. तिलिस्मी टेलीविजन धारावाहिकों और हिंदी सिनेमा में इस त्यौहार को परोसे जाने ने 90 के दशक में इसे देश विभिन्न शहरों, कस्बों के साथ-साथ उत्तराखण्ड की महिलाओं के बीच भी लोकप्रिय बना दिया. अब यह त्यौहार उत्तराखण्ड के कई शहरों-कस्बों को अपनी गिरफ्त में ले चुका है. करवा चौथ से ही मिलता-जुलता त्यौहार हैं वट सावित्री. इस त्यौहार को उत्तराखण्ड समेत कुछ राज्यों में पारंपरिक रूप से मनाया जाता रहा है. यह कहना गलत न होगा कि अब यह त्यौहार विलुप्त होने की कगार पर पर है. इससे बचने के लिए हमें अध्यात्मिक और पौराणिक वृक्षों की सदैव रक्षा करनी चाहिए आज  वटवृक्ष की पूजा सनातन धर्म के अनुसार धार्मिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है जिसकी छाया सीधे मन पर असर डालती है और मन को शांत बनाए रखती है इसकी छाल और पत्तों से  औषधियां भी बनाई जाती हैं वटवृक्ष सावित्री व्रत सौभाग्य देने वाला माना गया है वट सावित्री व्रत से वट सावित्री दोनों का विशिष्ट महत्व माना गया है. उत्तराखण्ड आदि काल से ही महत्वपूर्ण जड़ी-बूटियों व अन्य उपयोगी वनस्पतियों के भण्डार के रूप में विख्यात है। इस क्षेत्र में पाये जाने वाले पहाड़ों की श्रृंखलायें, जलवायु विविधता एवं सूक्ष्म वातावरणीय परिस्थितियों के कारण प्राचीन काल से ही अति महत्वपूर्ण वनौषधियों की सुसम्पन्न सवंधिनी के रूप में जानी जाती हैं।कुदरत ने उत्तराखंड को कुछ ऐसे अनमोल तोहफे दिए हैं, जिनमें अद्भुत गुणों की भरमार है.महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाता है। बचाने की कोशिश के लिए मुहिम से सी बात ही कई प्रकार की गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं भी जन्म दे सकती है। बचाने की कोशिश करनी होगी. वट सावित्री व्रत,आज के दिन पूरे उत्तर भारत में सुहागिनें 16 श्रृंगार करके बरगद के पेड़ के चारों ओर फेरे लगाकर अपने पति के दीर्घायु होने की प्रार्थना करती हैं। प्यार, श्रद्धा और समर्पण का यह व्रत सच्चे और पवित्र प्रेम की कहानी कहता है, हालांकि देश में लॉकडाउन है,शहरों-कस्बों /क्षेत्रों मे सबसे अधिक समस्या वट वृक्ष की रहती है ऐसे में आज बरगद के पेड़ के आगे महिलाओं का हुजूम नहीं है.
लेखक द्वारा उत्तराखण्ड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर का अनुभव प्राप्त हैं, वर्तमान में दून विश्वविद्यालय हैं।

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