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साल बदले, सत्ता बदली, लेकिन उत्तराखण्ड में नहीं बदली बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था की सूरत! डॉ हरीश चन्द्र अन्डोला

डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
किसी भी प्रदेश की तरक्की का ग्राफ इस बात पर निर्भर करता है जब कि उसके लोग कितने सेहतमंद है। जनता स्वस्थ रहे, इसके लिए चिकित्सा सुविधाएं दुरुस्त होनी चाहिए, लेकिन उत्तराखंड में स्वास्थ्य सेवा की स्थिति निराशाजनक है। बीते साल में छोटे-छोटे कई प्रयास किए गए पर अब भी कई चुनौतियां मुंह बाहे खड़ी हैं। स्थिति यह कि दूरस्थ क्षेत्रों में स्वास्थ सेवाओं की पहुंच, चिकित्सकों की संख्या में बढ़ोत्तरी और संसाधन विकसित करने के सरकारी दावों के बीच जच्चा-बच्चा सड़क पर दम तोड़ देते हैं। सामान्य बीमारी तक के लिए व्यक्ति प्राइवेट अस्पताल का रुख करने को मजबूर है। उस पर नीति आयोग की हालिया रिपोर्ट आइना दिखाने वाली है। 24 साल का यह पहाड़ी प्रदेश एकमात्र राज्य है, सेहत के मामले में जिसका प्रदर्शन बेहतर होने की बजाए बदतर हुआ है। उत्तराखंड में सरकारी अस्पतालों में सिर्फ दून अस्पताल में एक कार्डियोलॉजिस्ट है। इसके अलावा दून में सरकारी न्यूरो फिजिशियन भी नहीं हैं। उत्तराखंड बने हुए 24 साल हो गए हैं, लेकिन प्रदेश में अबतक स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल हैं। पहाड़ों पर सीएचसी और पीएचसी में डॉक्टरों की कमी है। ऐसे में मरीजों को इलाज के लिए मुश्किल होती है। प्रदेश के अन्य जिलों समेत राजधानी देहरादून का भी हाल ऐसा ही है। दून अस्पताल में आज भी अलग-अलग बीमारियों के विशेषज्ञों की कमी बनी हुई है। जबकि यहां पर दूर दराज के मरीज इलाज के लिए आते हैं। नौ नवंबर 2000 में उत्तर प्रदेश से अलग होकर उत्तराखंड नया राज्य बना था। उम्मीद थी कि राज्य की स्थिति बेहतर होगी। हालांकि प्रदेश में आज भी समय के अनुरूप परिवर्तन नहीं हुआ है। मरीजों को इलाज के नाम पर भटकना पड़ रहा है। गंभीर मरीजों के इलाज को सिर्फ ऋषिकेश एम्स है, लेकिन यहां पर भी जगह फुल हो जाने की वजह से मरीजों को दिल्ली के लिए रेफर करना पड़ता है। उत्तराखंड में आए दिन कहीं न कहीं ऐसी तस्वीरें सामने आ जाती है, जो भावुक कर देने के साथ ही सिस्टम पर सवाल खड़े करने वाली होती हैं. ये तस्वीरें स्वास्थ्य सुविधा के अभाव में कराहते गर्भवती महिलाओं और रेफर-रेफर के खेल में पीसकर जान गंवाने वाले मरीजों या घायलों की होती है. राज्य ने इन 24 सालों में 10 मुख्यमंत्रियों के चेहरे देख लिए हैं, लेकिन आज भी स्वास्थ्य सेवाएं सुधर नहीं पाई हैं साल 2020 में कोरोना संक्रमण के दस्तक के बाद प्रदेश में स्वास्थ्य सुविधाओं को पहले के मुकाबले काफी बेहतर कर दिया गया, लेकिन अभी भी शहरी क्षेत्र के अलावा खासकर दूरस्थ और पर्वतीय ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति जस की तस बनी हुई है. प्रदेश की भौगोलिक परिस्थितियों के चलते पर्वतीय क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराना सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती बनती रही है. बावजूद इसके राज्य सरकार इस बात का दावा करती है कि प्रदेश के सुदूर क्षेत्र में स्वास्थ्य सुविधाओं को बेहतर करने पर काम किया जा रहा है. सूबे के मेडिकल कॉलेज और जिला अस्पताल के अलावा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में अल्ट्रासाउंड के लिए मरीजों को एक-एक महीने तक का इंतजार करना पड़ता है. स्वास्थ्य सामुदायिक केंद्रों पर ज्यादातर गर्भवती महिला ही अल्ट्रासाउंड के लिए पहुंचती हैं. ऐसे में गर्भवती महिला की संख्या ज्यादा होने के चलते एक-एक महीने बाद अल्ट्रासाउंड का डेट दिया जाता है. इतना ही नहीं सीएचसी पर एक ही अल्ट्रासाउंड टेक्नीशियन होने के चलते, जब टेक्नीशियन छुट्टी पर चला जाता है तो कई बार तो कई-कई दिनों तक अल्ट्रासाउंड ही नहीं हो पाते हैं. जिसे चलते गर्भवती महिलाओं और मरीजों को बाहर से अल्ट्रासाउंड करवाना पड़ता है, जिससे न सिर्फ मरीज को दिक्कत होती है. बल्कि, उन्हें ज्यादा पैसा भी खर्च करना पड़ता है. राज्य सरकार प्रदेश के सभी राजकीय अस्पतालों और मेडिकल कॉलेज में शत प्रतिशत डॉक्टर की तैनाती का वादा और दावा करती रही है, लेकिन मौजूदा स्थिति ये है कि प्रदेश में अभी भी डॉक्टर की भारी कमी है. सबसे ज्यादा विशेषज्ञ डॉक्टरों की काफी कमी हैं. जिसके चलते इलाज नहीं हो पाते हैं. ऐसे में मरीजों को हायर सेंटर रेफर करना पड़ रहा है. उत्तराखंड में मेडिकल कॉलेज के साथ ही सभी जिलों में जिला अस्पताल, 80 सीएचसी, 578 पीएचसी (टाइप A & B) और 1898 सब सेंटर हैं. हर साल स्वास्थ्य विभाग के बजट में बड़ा इजाफा किया जाता है. ताकि, स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ जन-जन तक पहुंचा जा सके.वित्तीय वर्ष 2023-24 में स्वास्थ्य (एलोपैथी) सुविधाओं के लिए 3530.46 करोड़ रुपए के बजट का प्रावधान किया गया था. जिसमें से दिसंबर 2023 तक 2265.30 करोड़ रुपए अवमुक्त किया गया. जबकि, वित्तीय वर्ष 2022-23 में 3500.46 करोड़ रुपए, वित्तीय वर्ष 2021-22 में 2727.23 करोड़ रुपए के बजट का प्रावधान किया गया था. लेकिन प्रदेश में अबतक स्वास्थ्य सेवाएं बदहाल हैं। राज्य के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में विशेषज्ञ डॉक्टरों के 95 फीसदी पद खाली हैं। चमोली, रुद्रप्रयाग और टिहरी जिले में तो किसी भी सीएचसी में विशेषज्ञ डॉक्टर तैनात नहीं हैं। राज्य में कुल 80 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र हैं। जिनमें कुल पांच प्रतिशत ही डॉक्टर तैनात हैं जबकि 95 प्रतिशत पद खाली चल रहे हैं। राज्यभर में सीएचसी में फिजीशियन, सर्जन, एनेस्थीसिया, गाइनोकॉलोजिस्ट आदि के कुल 474 पद मंजूर हैं। लेकिन इसमें से 452 पद खाली हैं। अब इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि स्वास्थ्य की बेहतरी के लिए पिछले 21 सालों में यहां के हुक्मरानों ने कितना कुछ किया है।पहाड़ी जिला चम्पावत में अस्पताल में जरूरत का स्टाफ और बुनियादी सहूलितें ना होने से डाक्टर भी खफा है। छपी खबर के मुताबिक ‘चम्पावत के सरकारी अस्पतालों के हालातों से जनता के बाद अब डाक्टर भी परेशान है।’ अधिकतर स्वास्थ्य केन्द्रों में पानी, बिजली जैसी बुनियादी सुविधाएं भी नहीं है। टनकपुर में वेंटिलेटर और एक्सरे मशीने पिछले दो साल से धूल फांक रहे हैं। अस्पताल के सीएमएस के मुताबिक स्पेशलिस्ट की तैनाती ना होने के कारण मशीनों का संचालन नहीं हो पा रहा है।मैदानी जिले हरिद्वार की बात कर ले यहां हरिद्वार महाकुंभ के लिए सात करोड़ में खरीदी गई एमआरआई मशीन शोपीस बनी हुई है। एक साल का अरसा बीत जाने के बाद भी स्वास्थ्य विभाग इस मशीन को शुरू नहीं कर पाया है। बताया जा रहा है कि विभाग के पास प्रशिक्षित रेडियोलॉजिस्ट नहीं है।उत्तराखण्ड में तेरह जिले है। और हर जिले में आवाम की स्वास्थ्य देखभाल करने के लिए तेरह जिला अस्पताल भी हैं। लेकिन ये जिला अस्पताल खुद बीमार और लाचार हैं। राज्य के पहाड़ी जिलों में स्वास्थ्य व्यवस्था के हालात और भी खराब हैं। नतीजतन, वहां के लोगों को हर छोटी-बड़ी बीमारी के इलाज के लिए देहरादून-हल्द्वानी ही आना पड़ता है। सूबे की जनता को स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने के लिए राज्य सरकार भले ही कई योजनाएं क्रियान्वित कर ले, लेकिन प्रदेश के सरकारी अस्पतालों की बदहाल हालत इन योजनाओं का पलीता निकाल देती है. प्रदेश की जनता को बेहतर स्वास्थ्य सुविधा देने के मकसद से शुरू की गई अटल आयुष्मान उत्तराखंड योजना आज भी कई सरकारी अस्पताल के कारण बदहाली की भेंट चढ़ रही है. सरकारी अस्पताल में सुविधाओं के अभाव में लोग इस योजना का लाभ नहीं उठा पा रहे हैं, जिससे अस्पतालों की स्वास्थ्य सुविधाओं पर कई बड़े सवाल खड़े हो रहे हैं. देखिये ईटीवी भारत की स्पेशल रिपोर्ट.गौर हो कि उत्तराखंड राज्य सरकार ने 25 दिसम्बर 2018 को अटल आयुष्मान उत्तराखंड योजना की शुरूआत प्रदेश के सरकारी अस्पतालों से की गई थी. इसके बाद इस योजना के अंतर्गत प्रदेश के तमाम प्राइवेट अस्पतालों को भी शामिल किया गया, जिससे मरीजों को सही और सुरक्षित तरीके से पांच लाख रुपये तक का मुफ्त इलाज मिल सके. राजधानी के कई सरकारी अस्पताल ऐसे हैं, जिनके पास पर्याप्त व्यवस्थाएं न हो पाने के कारण मरीजों को पर्याप्त इलाज मुहैया नहीं हो पा रहा है. ऐसे में मरीजों को प्राइवेट अस्पतालों का मुंह ताकना पड़ रहा है. सरकारी अस्पतालों में कम लोगों का इलाज होना यह दर्शाता है कि लोग, सरकारी अस्पतालों पर कम ही भरोसा करते हैं.सरकारी अस्पतालों की बदहाली का उदाहरण राजधानी देहरादून का राजकीय दून मेडिकल अस्पताल है, जहां रोजाना 30 से 35 अटल आयुष्मान से जुड़े मामले सामने आते हैं. लिहाजा एक साल से अधिक समय होने के बाद भी अभी तक करीब साढ़े 6 हजार लोगों का इलाज किया गया. कोरोनेशन अस्पताल में रोजाना अटल आयुष्मान के तहत रोजाना 20 से 25 मरीज इलाज करने आते हैं, लेकिन अभी तक 2,800 लोगों का ही इस योजना के तहत इलाज किया जा चुका है. इसके साथ ही प्रत्येक दिन 7 से 8 मरीजों को अन्य अस्पतालों में रेफर किया जा रहा है. सरकारी अस्पताल से लगातार जनता के उठते भरोसे और सुविधाओं के अभाव के सवाल पर मुख्यमंत्री ने बताया कि सरकार कोशिश कर रही है कि अटल आयुष्मान उत्तराखंड योजना से रजिस्टर्ड सरकारी और गैर सरकारी अस्पतालों में लोगों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधा मुहैया कराई जा सके बदहाल स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर करने के लिए करने होंगे कई काम
लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।

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