उत्तराखंड की संस्कृति एवं परंपराओं ही नहीं, यहां के खान.पान में भी विविधता का समावेश है। पौष्टिक तत्वों से जौ पृथ्वी पर सबसे प्राचीनकाल से कृषि किये जाने वाले अनाजों में से एक है। इसका उपयोग प्राचीन काल से धार्मिक संस्कारों में होता रहा है। संस्कृत में इसे यव कहते हैं। रूस, यूक्रेन, अमरीका, जर्मनी, कनाडा और भारत में यह मुख्यतः पैदा होता है। जौ होरडियम डिस्टिन जिसकी उत्पत्ति मध्य अफ्रीका और होरडियम वलगेयर जो यूरोप में पैदा हुआ, इसकी दो मुख्य जातियाँ हैं। इनमें द्वितीय अधिक प्रचलित है। इसे समशीतोष्ण जलवायु चाहिए। यह समुद्रतल से 14,000 फुट की ऊँचाई तक पैदा होता है। यह गेहूँ के मुकाबले अधिक सहनशील पौधा है। इसे विभिन्न प्रकार की भूमियों में बोया जा सकता है, पर मध्यम, दोमट भूमि अधिक उपयुक्त है। खेत समतल और जलनिकास योग्य होना चाहिए। प्रति एकड़ इसे 40 पाउंड नाइट्रोजन की आवश्यकता होती है, जो हरी खाद देने से पूर्ण हो जाती है। अन्यथा नाइट्रोजन की आधी मात्रा कार्बनिक खाद, गोवर की खाद, कंपोस्ट तथा खली और आधी अकार्बनिक खाद ऐमोनियम सल्फेट और सोडियम नाइट्रेट के रूप में क्रमशः बोने के एक मास पूर्व और प्रथम सिंचाई पर देनी चाहिए। असिंचित भूमि में खाद की मात्रा कम दी जाती है। वर्तमान की वैश्विक परिस्थितियों के कारण खाद्य उत्पादन में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जिससे खाद्य संकट की स्थिति पैदा हो सकती है और इस वजह से भुखमरी और कुपोषण जैसे हालात बन सकते हैं। इन परिस्थितियों से निपटने के लिए तथा वैश्विक अर्थव्यवस्था को जोखिम से बचाने के लिए मोटे अनाजों की खेती को प्रोत्साहित किया जा रहा है। साथ ही इसके उपभोग को बढ़ाने के लिए, इसे लोकप्रिय बनाने के भी भरपूर प्रयास किए जा रहे हैं। मोटे अनाज छोटे-छोटे दानों वाले ऐसे अनाज होते हैं, जो पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं। इनके अंतर्गत ज्वार, बाजरा, मक्का, जौ, मडुवा, कंगनी, कुटकी, रागी, कोदों, चीना, और सावां जैसे कई अनाज आते हैं, जो फाइबर व पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं। इसीलिए इन्हें सुपरफूड भी कहा जाता है। कृषि मंत्रालय ने 10 अप्रैल 2018 को इसे पोषक अनाज घोषित किया था। विशेषज्ञों का मानना है कि पोषक अनाजों से 3.5 गुना ज्यादा पोषण प्राप्त होता है। इनमें बीटा-कैरोटीन, नाइयासिन, विटामिन-बी 6, फोलिक एसिड, पोटेशियम, मैग्नीशियम, जस्ता आदि खनिज लवण और विटामिन भरपूर मात्रा में पाए जाते हैं। इनमें पोषण के साथ-साथ औषधीय गुण भी मौजूद होते हैं, जिससे शरीर की पाचन क्रिया मजबूत होती है तथा ये रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं। आयुर्वेद के अनुसार ये ओजवर्धक और बलवर्धक होते हैं। मोटे अनाजों को अपने भोजन में शामिल करने से कब्ज और अपच जैसी समस्याओं से बचा जा सकता है तथा ब्लड प्रेशर, कोलेस्ट्रॉल आदि कई बीमारियों के खतरे को कम किया जा सकता है। आईसीएआर और भारतीय बाजरा अनुसंधान संस्थान की एक रिपोर्ट के अनुसार, मोटे अनाजों में लगभग 7.12 फीसदी प्रोटीन, 2.5 फीसदी वसा, 65.75 फीसदी कार्बोहाइड्रेट और 15.20 फीसदी खाने वाला फाइबर होता है। जई यानी ओट्स जो आजकल सुबह नाश्ते में खाया जाता है, काफी पौष्टिक होता है और इसमें फाइबर बहुत ज्यादा होता है।भारत में मोटे अनाजों की खेती सदियों से की जाती रही है। सिंधु घाटी सभ्यता यानी लगभग 3000 ईसा पूर्व भारत में मोटे अनाजों की खेती होती थी, इसके साक्ष्य पाए गए हैं। जानकारों के अनुसार सबसे पहले भारत से ही मोटे अनाज की कई किस्मों की खेती की शुरुआत हुई थी। इसके अलावा पश्चिम अफ्रीका, चीन और जापान आदि देशों में भी मोटे अनाज की कई अन्य किस्मों का विकास किया गया। वर्तमान में 130 से अधिक देशों में मोटे अनाजों की खेती होती है और ये एशिया और अफ्रीका के लगभग 50 करोड़ से अधिक लोगों का पारंपरिक भोजन बन चुका है। मोटे अनाजों को कम उपजाऊ भूमि और कम पानी में उगाया जा सकता है। इसलिए गेहूं और चावल जैसे अनाजों की अपेक्षा इन्हें उगाना आसान होता है। इनमें कीटों से लड़ने की रोग प्रतिरोधक क्षमता होती है। इसके अलावा इन्हें उर्वरकों व खादों की कम आवश्यकता होती है, जिससे इनकी उत्पादन लागत काफी कम हो जाती है। इस कारण गरीब किसान भी इनकी खेती आसानी से कर सकते हैं और अधिक लाभ कमा सकते हैं। विश्व स्तर पर मोटे अनाजों की सबसे प्रमुख फसल ज्वार है। इसके प्रमुख उत्पादक देश यूएसए, चीन, आॅस्ट्रेलिया, भारत, अर्जेंटीना, नाइजीरिया और सूडान हैं। इतिहास के प्राथमिक स्रोतों से पता चलता है कि मनुष्यों ने सबसे पहले ज्वार की ही खेती की थी। इसके अलावा बाजरा एक दूसरी प्रमुख फसल है, जो भारत और कुछ अफ्रीकी देशों में प्रमुख रूप से उपजाया जाता है। भारत में अधिकांश मोटे अनाजों की खेती खरीफ के मौसम में होती है। कृषि मंत्रालय के अनुसार, देश में 2015-16 से 2019-20 तक मोटे अनाजों का उत्पादन 44.01 मिलियन टन था। 2018-19 के दौरान सकल कृषि उत्पादन में मोटे अनाजों का योगदान लगभग 7 फीसदी तक रहा। इनमें मुख्य रूप से बाजरा, ज्वार और रागी का उत्पादन किया गया। भारत में अधिकांश मोटे अनाज गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र, कर्नाटक आदि राज्यों में उपजाए जाते हैं। भारत में ज्वार की खेती मुख्य रूप से महाराष्ट, कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश, तमिलनाडु, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और उत्तर प्रदेश में होती है तथा बाजरे का उत्पादन करने वाले प्रमुख राज्य राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र हैं। जौ की पैदावार सबसे ज्यादा राजस्थान और उत्तर प्रदेश में है तो रागी कर्नाटक और उत्तराखंड में उगाई जाती है। साल 2020-21 के दौरान देश में ज्वार का उत्पादन लगभग 4.78 मिलियन टन और बाजरे का उत्पादन लगभग 10.86 मिलियन टन हुआ था। वर्ष 2020-21 में महाराष्ट ने ज्वार का और राजस्थान ने बाजरे का देश में सबसे अधिक उत्पादन किया था। कुमाऊं के पर्वतीय इलाकों में माघ पंचमी अर्थात वसंत पंचमी को रक्षाबंधन व हरेला पर्व की तरह मनाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। इस दिन हर आवासीय मकान या गौशाला की चौखट पर गोबर और जौ का श्रृंगार किया जाता है। पर्वतीय गांवों में मनाए जाने वाले लोक पर्व प्रकृति के साथ लगाव व रिश्तों की महत्ता व पवित्रता का संदेश देते हैं। माघ मास में बसंत पंचमी का लोकपर्व भी इनमें एक है। इस पर्व पर सुबह महिलाएं गोबर.मिट्टी से घर.आंगन, ओखल लीपने के बाद चौखट पर गोबर व जौ लगाती हैं। जौ को देवी देवता को चढ़ाने के बाद बहन. बेटियों द्वारा सिर पूजन किया जाता है। दशकों पहले तक विवाहित बेटियां इस पर्व पर मायके जरूर आती थीं, मगर आधुनिकता के दौर में अब यह परंपरा चंद गांवों तक सिमट गई है।
संस्कृतिकर्मी बताते हैं कि वसंत पंचमी प्रकृति प्रेम दर्शाता है। इस दिन से कुमाऊं में बैठकी होली का दूसरा चरण शुरू होता है। आयो नवल वसंत, सखी ऋतु राज कहायो… जैसे होली राग फिजां में गूंजते हैं। मकर संक्रांति को आरंभ बैठकी होली वसंत पंचमी के बाद श्रृंगार पर आधारित गाई जाती हैं। जोशी बताते हैं कि यह पर्व अन्न के महत्व को समझने का भी है। गांव से तेजी से हो रहे पलायन तथा जंगली जानवरों के बढ़ते आतंक का असर लोक पर्वों पर भी पड़ा है। बंजर होती खेती की वजह से अब जौ की खेती नाम मात्र होती है। सैकड़ों गांवों में अब धान, गेहूं, मडुवा, बाजरा, कूंण, चौलाई, मादिरा के साथ जौ की खेती बंद हो चुकी है। इस वजह से वसंत पंचमी पर गांवों में अब मुख्य द्वार पर जौए गोबर लगाने की परंपरा ही बंद हो गई है। बृजमोहन जोशी कहते हैं कि पहाड़ के लोगों को जड़ों की ओर लौटना ही होगा। यहां की परंपराएं, मान्यताओं का संरक्षण नहीं होगा तो इसका समाज पर नकारात्मक असर पडऩा तय है। बीज बचाओ आंदोलन के लिए पहचाने जाने वाले किसान किसानों के लिए यह एक शानदार उदाहरण है।विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान ने वर्तमान में उत्तर पश्चिमी पर्वतीय क्षेत्रों में लगभग 59 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में वर्षा आधारित जौ की खेती की जाती है। संस्थान के वैज्ञानिक ने जौ की यह नई किस्म वीएल जौ.118 विकसित की है। हाल ही में स्वामी केशवानंद राजस्थान कृषि विवि के कृषि शोध केंद्र दुर्गापुर, जयपुर में हुई 51वीं अखिल भारतीय गेहूं तथा जौ अनुसंधानकर्ताओं की गोष्ठी में वीएल जौ.118 की पहचान की गई। उन्होंने बताया कि वीएल जौ.118 की बुवाई के लिए 15 अक्तूबर से नवंबर के प्रथम सप्ताह का समय उपयुक्त है। 160 से 170 दिन में पकने वाली यह किस्म काफी उपयोगी है। पर्वतीय भाग में इस अवधि में जौ की औसत उपज 12.23 क्विंटल प्रति हैक्टेयर हैए जबकि वीएल जौ.118 में पौने तीन गुनी अधिक 34.9 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देने की क्षमता है। संस्थान के वैज्ञानिक ने बताया कि रबी के सीजन में कम वर्षा होने के उपरांत भी इस किस्म ने अच्छी पैदावार दी है। उन्होंने बताया कि परीक्षण में पिछले तीन वर्षों में इस प्रजाति ने उत्तराखंड तथा हिमाचल के वर्षा आधारित क्षेत्रों में 90.84 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की औसत से पैदावार दी है। परीक्षणों में इस प्रजाति ने वर्षा आधारित क्षेत्र में 60 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक नत्रजन के प्रति अच्छे परिणाम दिए हैं। यह प्रजाति पीली, भूरी तथा गेरुई रोग के लिए भी प्रतिरोधी है। इस प्रजाति में लगभग दस फीसदी प्रोटीन पाया जाता है। पौधे की ऊंचाई 75.80 सेमी होती है। उन्होंने बताया कि छिल्के सहित मोटे दाने वाली इस किस्म के उत्पादन से उत्तर पश्चिमी पर्वतीय क्षेत्रों में जौ की उत्पादकता में वृद्धि होगी। उत्तराखंड में कृषि के क्षेत्र में काम कर रही संस्था हिमालयन एक्शन रिसर्च सेंटर हार्क के मुख्य कार्यकारी अधिकारी ने बताया कि पहाड़ में खेती उत्पादन कम हो रहा है। इसकी कई वजह हैं। सरकार और स्थानीय लोगों को मिलकर इसके उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए काम करने की जरूरत है। मार्केट में इनकी मांग अधिक है, लेकिन इस हिसाब से उत्पादन काफी कम है। बताया कि संस्था की ओर से चमोली, उत्तरकाशी, देहरादून, बागेश्वर आदि जिलों में पहाड़ी अनाजों की खेती और उत्पाद तैयार करने का काम किया जा रहा है। संस्था के अंतर्गत 38 संगठन काम कर रहे हैं और करीब 45 हजार लोग इस रोजगार जुड़े हुए हैं। जौ एक विशेष प्रकार का अन्न है. इसका धार्मिक व सांस्कृतिक महत्व तो है ही, साथ ही यह शरीर के लिए भी गुणकारी है. जौ का आटा शरीर का पाचन सिस्टम दुरुस्त रखता है, तो दिल को मजबूती भी प्रदान करता है. यह हानिकारक केलोस्ट्रोल को भी रोकता है, सैकड़ों वर्षों से आहार के अलावा जौ का उपयोग मदिरा के लिए भी किया जा रहा था. लेकिन प्राचीन काल में इस मदिरा (आसव) का प्रयोग शरीर को रोगों से दूर रखने के लिए किया जाता था. प्रमाण कहते हैं कि जौ से मदिरा बनाने का पहला ज्ञात नुस्खा प्राचीन मेसोपोटामिया के नगर बेबीलोनिया में 2800 ईसा पूर्व का है. उस काल में जौ के पानी का उपयोग विभिन्न औषधीय प्रयोजनों के लिए भी किया जाता था. भारत के प्राचीन आयुर्वेदिक ग्रंथ (सातवीं-आठवीं ईसा पूर्व) ‘चरकसंहिता’ में जौ के आहार व आसव के रूप में गुण-अवगुणों का वर्णन किया गया है.
यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं तथा लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।