भारतीय हिमालय में, समुद्र तल से 2,200 मीटर ऊपर, एक छोटे से संग्रहालय में, एक समुदाय के बदलावों की झलक, कांच से ढके खांचों में बंद हैं। इस संग्रहालय में भूटिया समुदाय की पिछली पीढ़ियों के बारे में जानकारी देने वाली वस्तुएं संरक्षित हैं। इनमें कुछ कपड़े, आभूषण, घरेलू सामान, धुंधली तस्वीरें व नक्शे इत्यादि हैं।एक समय, भारत-तिब्बत व्यापार मार्ग के संरक्षक, भूटिया, कुमाऊं में काफी ऊंचाइयों पर रहने वाले बेहद समृद्ध समुदायों में से एक हुआ करते थे। यह क्षेत्र अब भारतीय राज्य उत्तराखंड है, जो नेपाल से जुड़ा हुआ है। पिछले 60 वर्षों में, इस समुदाय के जीवन का तरीका नाटकीय रूप से बदल गया है।1962 के चीन-भारत युद्ध के बाद व्यापार मार्ग बंद हो गए और आजीविका के अवसरों की तलाश में, उत्तराखंड का भूटिया समुदाय, ऊंचे पहाड़ों की जोहार घाटी से हिमालय की तलहटी वाले शहरों में आने लगे। आज, वे व्यापार और वाणिज्य के बजाय, पशुधन, कृषि और हस्तशिल्प से जीवन यापन करते हैं। भूटिया, जिस तलहटी शहर में गए उनमें से एक मुनस्यारी है। यहीं पर साल 2000 में स्थानीय इतिहासकार शेर सिंह पांगटे ने ट्राइबल हेरिटेज म्यूजियम की स्थापना की थी। इसके अंदर, ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरों की पंक्तियों को 1980 के दशक के रंगीन प्रिंटों के साथ प्रदर्शित किया गया है। ये तस्वीरें जोहार घाटी के कुछ हिस्सों के ग्रामीण जीवन को दर्शाती हैं जिनका अस्तित्व अब खत्म हो चुका है। इन तस्वीरों में बहुत पहले बीत चुके समय की स्मृति और उदासी की झलक हैं। जोहार घाटी में अब कोई भूटिया परिवार स्थायी रूप से नहीं रहता है; साल भर केवल सेना और सड़क कर्मचारी ही रहते हैं। लगभग 20 परिवार, अपना साल जोहार घाटी और मुनस्यारी के बीच बांटते रहते हैं।सरल भाषा में इसे माइग्रेशन यानी प्रवास के रूप में जाना जाता है। कई लोग हर साल मई की शुरुआत में अपनी मूल जमीन पर आते हैं और सर्दियों में वापस लौट जाते हैं। यह एक तरह से अपनी खेती की भूमि पर कब्जा बनाए रखने का तरीका है। लेकिन धीरे-धीरे पैतृक घरों और अपनेपन की भावना में कमी आना स्वाभाविक है।यह लगभग 50 किलोमीटर की यात्रा है, जो 1,220 मीटर की ऊंचाई पर मुनस्यारी और मिलम के बीच है, जो जोहार घाटी का सबसे ऊंचा गांव है जो अभी भी बसा हुआ है।पुरुष और महिलाएं, यहां तक कि बुजुर्ग, जब तक वे सक्षम हैं, इस जोखिम भरे इलाके में कठिन यात्रा जारी रखते हैं। इस यात्रा में चट्टानों के किनारे संकरे रास्तों में चलना पड़ता है। बारिश और चट्टानों के गिरने का खतरे की बीच लोग यात्रा करते हैं। धाराओं के पार जाना होता है, जो पुराने रास्तों को बहा ले जाती है और लगभग हर मौसम में नए मार्ग बनाती है। विस्मय और बेजोड़ सुंदरता से भरी विशाल घाटियों से गुजरना होता है।हालांकि, उच्च हिमालय में बदलती जलवायु ने इस यात्रा को ज्यादा कठिन और अधिक अप्रत्याशित बना दिया है। 2012 तक, पिथौरागढ़, जिस जिले में मुनस्यारी स्थित है, में औसत वार्षिक तापमान 1911 की तुलना में 0.58 डिग्री सेल्सियस अधिक था। यह राज्य के किसी भी अन्य जिले से अधिक था। बारिश भी अधिक अनिश्चित हो गई है।व्यापार और कृषि से होने वाली अपनी आय को खो चुकी पुष्पा लासपाल, मापांग गांव में अपनी जीविका के लिए यात्रियों और सड़क कर्मियों को भोजन बेचती हैं। वह कहती हैं, “पहले, हम प्रवास के लिए योजना बना सकते थे और बेहतर तैयारी कर सकते थे। अब जब हम बारिश की सबसे कम उम्मीद करते हैं, उस समय ही बारिश हो जाती है। इससे राशन और अन्य जरूरी चीजों के साथ यात्रा करना बहुत कठिन हो जाता है।”उदाहरण के लिए इस साल, अप्रत्याशित तरीके से बारिश समय से पहले शुरू हो गई, जिससे लोगों की यात्रा देर में- मई के आखिर से जून के शुरुआत में- शुरू हुई। जलवायु परिवर्तन के ऐसे प्रभाव, भूटिया समुदाय की परेशानियों को बढ़ाते हैं जिससे जोहार की पारंपरिक संस्कृति का नुकसान होता है।इसका सबसे प्रमुख उदाहरण मिलम ग्लेशियर-घाटी के निवासियों के लिए पानी का मुख्य स्रोत- है। दशकों से, ग्लेशियर के कठिन मार्ग पर विजय प्राप्त करने के इच्छुक ट्रेकर्स के लिए, यह कर पाना सबसे बड़ा पुरस्कार साबित होता रहा है। ट्रेकिंग मार्गों की पुरानी तस्वीरों में काफी नदियां और जल निकाय नजर आते हैं। एक बुजुर्ग निवासी द् थर्ड पोल को बताते हैं कि पहले ग्लेशियर मिलम गांव तक पहुंचते थे।अब, ग्लेशियर का अगला हिस्सा गांव के ऊपर की ओर 8 किलोमीटर तक घट गया है। 1954 और 2006 के बीच, मिलम ग्लेशियर औसतन 25 मीटर प्रति वर्ष पीछे हट चुका है।आज जैसे-जैसे गांव से पानी की आपूर्ति दूर होती जा रही है, मिलम में खेती और दैनिक जीवन कठिन होता जा रहा है।घराट, यानी पहाड़ की वो चक्की जो बिजली से नहीं बल्कि पानी के वेग से अनाज पीसने के लिए इस्तेमाल की जाती थी, कभी हिमालय के पहाड़ों में आम थी। कई नदियों और नालों में बढ़ते तापमान और पानी के कम प्रवाह ने घराट को अतीत की बात बना दिया है। अब घराट बहुत कम बचे हैं और कहीं-कहीं ही दिखते हैं।एक दशक से अधिक समय से, मिलम से मुनस्यारी को जोड़ने वाली सड़क बनाने का काम चल रहा है। यह काम 2027 तक पूरा होने वाला है। तब तक, इस बात की आशंका काफी ज्यादा है कि भूटिया संस्कृति, ऊंचाई तक पहुंचने की जगह और अधिक फीकी हो जाए।खान-पान से लेकर कपड़ों तक और आजीविका से लेकर दैनिक दिनचर्या तक के शौका समुदाय के जीवन में बदलावों की तरफ किसी का भी ध्यान नहीं गया है। कुमाऊं में भूटिया को स्थानीय रूप से शौका समुदाय के रूप में जाना जाता है।बटर टी, पहले साल भर प्रयोग में लाया जाने वाला जोहार पेय पदार्थ रहा है। अपनी गर्म तासीर की वजह से मूल रूप से अब यह सर्दियों में पिया जाने वाला पेय पदार्थ है। पहली बार आजमाने की इच्छा रखने वाले आगंतुकों के लिए भी इसे एक पेय के रूप में परोसा जाता है।बटर टी यानी मक्खन वाली चाय बनाने के लिए परंपरागत दुमका की जगह अब आधुनिक बटर चर्नर ने ले ली है। दुमका, लकड़ी का एक बड़ा बर्तन होता है जो अब ज्यादातर रसोईघरों में किनारे पड़ा रहता है। बटर चर्नर, उपयोग और कम मात्रा में चाय बनाने के लिए अधिक सुविधाजनक है। मुनस्यारी में ट्राइबल हेरिटेज म्यूजियम के पास बाजार में भीषण गर्मी की दोपहर में किशोरों का एक समूह एक स्थानीय स्टोर पर आइस लॉली खरीद रहा है। वे पर्यावरण के मुद्दों और जलवायु परिवर्तन के बारे में व्यापक जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से स्थानीय युवा क्लब द्वारा मुनस्यारी में आयोजित होने वाले एक आगामी कार्यक्रम के बारे में चर्चा कर रहे हैं जो अपशिष्ट प्रबंधन से संबंधित है।ये किशोर एक आधुनिक और पर्यावरण के प्रति जागरूक भविष्य के लिए अपनी सोच को आवाज देते हैं, जिसमें समावेशी पर्यटन को बढ़ावा देने की बात है। इनमें उचित अपशिष्ट प्रबंधन, संवेदनशील विकास, वन्यजीव पर्यटन और होमस्टेस इत्यादि शामिल हैं। आजीविका के ऐसे अवसरों के माध्यम से ही वे समुदाय के लिए एक नई राह बनाना चाहते हैं। तेजी से बदलती दुनिया के बीच यह उम्मीद बंधी हुई है कि नए और पुराने के बीच कहीं मध्य स्थान भी मिल जाएगा और बेहतरी के लिहाज से कुमाऊं के भूटियाओं की विरासत खत्म नहीं होगी।उत्तराखंड के पहाड़ों में लुप्त होती भूटिया संस्कृति की एक झलक नहीं होगी ऐसे में जिस उदेश्य के साथ राज्य का गठन किया गया था, वो सपना अभी भी अधूरा लग रहा है. तेजी से बदलती दुनिया के बीच यह उम्मीद बंधी हुई है कि नए और पुराने के बीच कहीं मध्य स्थान भी मिल जाएगा और बेहतरी के लिहाज से कुमाऊं के भूटियाओं की विरासत खत्म नहीं होगी। लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।