राज्य गठन नहीं बन पाया सपनों का उत्तराखंड, नेताओं-ब्यूरोक्रेसी ने किया बंटाधार कोदा झंगोरा खाएंगे, सपनों का उत्तराखंड बनाएंगे के नारे से शुरू हुआ स्वाद और ऊपरी चमक-दमक की वजह से चलन से बाहर होने की कगार पर खड़े मोटे अनाज की डिमांड पिछले तीन वर्षों में दोगुना बढ़ गई है। परंतु राज्य गठन के 22 वर्ष बाद भी सरकार और विभागीय प्रयास रकबा बढ़ा पाने में नाकाम रहे हैं।मोटे अनाजों को लेकर जिस तरीके से जागरूकता बढ़ गई है। इसी अनुरूप डिमांड भी बढ़ रही है। अब घरों में ही नहीं, बल्कि रेस्टोरेंट्स में भी मोटे अनाज से बने भोजन आर्डर किया जाने लगा है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से इसका रकबा लगातार कम होता जा रहा है। इसका कारण खेती प्रति किसानों का मुंह मोडऩा बड़ा कारण है। वह गेहूं, चावल, चना, मटर, मसूर, सोयाबीन में ही लाभ की संभावनाएं देखते हुए अधिक उत्पादन कर रहे हैं।नई पीढ़ी का भी रुझान खेती को लेकर नहीं दिखता। हमने बदलते समय के साथ ही पारंपरिक उपज और खानपान की घोर उपेक्षा की है। यही कारण है कि वर्ष 2001- 2002 में जहां हम एक लाख 31 हजार हेक्टेयर पर्वतीय भूमि में मंडुवे का उत्पादन करते थे। जो 2021-22 में सिमटकर 90 हजार हेक्टेयर रह गया है। इसी प्रकार झिंगुरे का उत्पादन क्षेत्रफल 67 हजार हेक्टेयर से घटकर 40 हजार हेक्टेयर हो गया है। इन दोनों ही अनाजों के उपज के क्षेत्रफल में राज्य गठन के बाद से करीब 35 प्रतिशत कमी हुई है।मोटे अनाज में पौष्टिकता होने के साथ ही अनेक प्रकार के खाद्य-औषधीय गुण भी हैं। ये रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के साथ ही मधुमेह के रोगियों के लिए भी फायदेमंद है। मोटे अनाज में कैल्शियम आयरन, फास्फोरस, मैग्नीशियम, जस्ता, पोटेशियम, विटामिन बी-6 और विटामिन बी-3 पाया जाता है। यही वजह है कि प्रधानमंत्री मोदी ने कूनो में मोटे-अनाज का जिक्र करके लोगों का ध्यान एकाएक इस ओर खींचा था।संयुक्त निदेशक ने बताया कि मोटे अनाज की डिमांड बढ़ी है, इसलिए रकबा बढ़ाने को लेकर किसानों को लगातार जागरूक किया जा रहा है। इसके लिए सेमीनार और कार्यशालाएं भी आयोजित की जा रही हैं। पिछले तीन वर्षों में पारंपरिक कृषि विकास योजना से हमने कम क्षेत्रफल में मोटे अनाजों का अधिक उत्पादन किया है। बदली परिस्थितियों में जमीन ‘जहरीली’ हो रही तो फसलें भी। रासायनिक उर्वरकों के बेतहाशा उपयोग ने खेती की जो दुर्दशा की है, उससे सभी विज्ञ हैं। हालांकि, जो पैदावार हो रही, वह मात्रात्मक रूप में अधिक जरूर है, मगर गुणवत्ता में बेदम। सूरतेहाल, ऐसा अन्न खाने से सेहत पर असर तो पड़ेगा ही और यही मौजूदा दौर की सबसे बड़ी चिंता भी है। इस सबको देखते हुए थाली में बदलाव व विविधता लाना समय की मांग है। उत्तराखंड की ‘बारानाजा’ फसल पद्धति में वह सब मिलता है, जिसकी आज दरकार है। भले ही यहां के पहाड़ी क्षेत्र में सदियों से चलन में मौजूद इस पद्धति से पैदावार कम हो, लेकिन पौष्टिकता के मामले में इनका कोई सानी नहीं है। बारानाजा की फसलों में सूखा और कीट-व्याधि से लडऩे की भी जबर्दस्त क्षमता है, जो आज के बिगड़े मौसम चक्र को देखते हुए एक मजबूत विकल्प पेश करती है। यही वजह रही कि अकाल-दुकाल में बारानाजा बचा रहा। आज जरूरत इस बात की है कि इस पद्धति को ज्यादा से ज्यादा बढ़ावा दिया जाए।लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं।