मोटा अनाज (मिलेट्स) को भारत ही नहीं अपितु विश्व पटल डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

कोदा-झंगोरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे’, उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान बच्चे से लेकर बूढ़ों तक की जुबां पर यह नारा आम था। लेकिन, राज्य गठन के 22 वर्षों बाद प्रदेश में कोदा-झंगोरा मिलना किस कदर मुश्किल हो चला है, यह बात महिला और बाल विकास परियोजना से जुड़े विभिन्न समूहों से बेहतर और कौन जानता होगा। असल में शासन ने प्रदेश के आंगनबाड़ी केंद्रों में दिए जाने वाले टेक-होम राशन की सूची में संशोधन कर कोदा(मंडुवा) और झंगोरा के साथ ही गहथ और काला भट जैसी स्थानीय दालों को अनिवार्य कर दिया है। यही आदेश अब योजना के संचालन में गले की फांस बन रहा है। तमाम प्रयासों के बावजूद समूह पर्याप्त मात्रा में इन उत्पादों का इंतजाम नहीं कर पा रहे।  कभी उत्तर प्रदेश का अंग रहे इस हिमाचली राज्य को बनाने के लिए शुरू हुए जनांदोलनों में ‘कोदा झंगोरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे’ का नारा जन जन की जुबान पर था। राज्य गठन का वह स्वप्न तो साकार हुआ ही, कोदा, झंगोरा को राष्ट्रीय ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय पहचान भी मिल गई। प्रधानमंत्री के ड्रीम प्रोजेक्ट नमामि गंगे में गंगा विचार मंच के प्रान्त संयोजक ने अपने एक यात्रा वृत्तांत का जिक्र करते हुए बताया कि उन्होंने हाल ही में उत्तरकाशी से देहरादून जाते समय चिन्यालीसौड़, कुमराड़ा मार्ग पर छोटे से स्टेशन नागथली मणि में एक दुकान पर चाय पीने रुके। वहां मिठाई के काउंटर पर सजी मिठाइयों पर उनके नाम के बोर्ड लगे थे। वह उन पर लिखे नामों जैसे कोदा की बर्फी, झंगोरा की बर्फी, लौकी की बर्फी, चुकंदर की बर्फी के साइन बोर्ड देखकर हतप्रभ रह गए। बताते हैं कि इस दुकान में इन्ही मोटे अनाज से बनी मिठाइयों से सजी थी। लोग भी आ रहे थे और इन मोटे अनाज से बनी मिठाइयों को खरीद भी रहे थे और मौके पर बड़े चाव से लोग खा भी रहे थे। वह इन मोटे अनाज से बनी मिठाई के बारे में दुकान के मालिक समाजसेवी बिष्ट ने कोतवाल के हवाले से बताया कि कोरोनाकाल में जब उनकी दुकान बंद हो गई, तब उन्होंने विचार किया कि आज तक पहाड़ के लोग मोटे अनाज को केवल भोजन के रूप में खाने तक ही सीमित हैं। क्यों न इसकी मिठाई बनाई जाए। उन्होंने प्रयोग के तौर पर पहले घर और गांव में ही मोटे अनाज की मिठाई बनाकर लोगों को खिलाई। लोगों को पसन्द आने और अच्छा प्रोत्साहन मिलने पर उन्होंने लॉकडाउन खत्म होने पर अपनी मिठाई की दुकान में मोटे अनाज की मिठाई बनाकर बेचना शुरू कर दिया। कोतवाल ने साफगोई से बताया कि, मिलेटस यानी कोदा, झंगोरा, मंडुवा की बर्फी बनाने का कोई अलग फार्मूला नहीं है। दूसरी मिठाइयों की तरह ही इसको बनाया जाता है। यह पूरी तरह रसायनमुक्त यानी कैमिकल फ्री होती है। यह अलग बात है कि चीनी में यदि कोई रासायन होगा तो वह इसमें भी होगा। उनके अनुसार, शुद्ध देसी घी से बनी मोटे अनाज की मिठाई की कीमत बढ़ जाती हैऑर्डर मिलने पर देशी घी की मिठाई भी बनाई जाती है।देश भर में आयोजित हो रही जी-20 की बैठकों में भी आजकल उत्तराखंड के मोटे अनाज को भोजन में विशेष रूप से अतिथियों के लिए परोसा जा रहा है। ऐसे में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस नए प्रयोग को एक नया मुकाम मिल सकेगा। उल्लेखनीय है कि उत्तराखंड में झंगोरा को सामान्य चावल की तरह खाने की रिवाज थी। बाद में इसकी खीर लोकप्रिय और प्रचलित हो गई। झंगोरा की खीर गांव की थाली से होकर बाजार के होटलों से होते हुए फाइव स्टार तक पहुंच गई। शादी समारोह और पाटिर्यों में मोटे अनाज से बने खाद्य महत्वपूर्ण डिश हो गए। कंडाली की सब्जी, कोदे की रोटी, गहत का गहतवाणी अथवा सूप, गहत का फाणू किसी भी समारोह में स्टेटस सिंबल बन गया है। गरीब पहाड़ी ग्रामीण की थाली से मोटा अनाज आज प्रधानमंत्री की थाली तक जा पहुंचा।गौरतलब है कि देश में ज्वार, बाजरा, रागी (मडुआ), जौ, कोदो, झंगोरा, कौणी, मार्शा, चीणा, सामा, बाजरा, सांवा, लघु धान्य या कुटकी, कांगनी और चीना फसलों को मोटे अनाज के तौर पर जाना जाता है। आदिकाल से पहाड़ में मोटे अनाज की भरमार हुआ करती थी। लेकिन तब मोटे अनाज को खाने वालों को दूसरे दर्जे का समझा जाता था। उस समय मोटे अनाज की उपयोगिता और इसके गुणों से लोग ज्यादा विंज्ञ नहीं थे। जानकारी का भी अभाव था। समय के साथ-साथ मोटे अनाज की पैदावार भी कम होने लगी, क्योंकि लोगों ने मोटे अनाज की जगह दूसरी फसलों को तवज्जो देना शुरू कर दिया और समाज की धारणा के अनुसार लोग चावल धान की फसल की ओर बढ़ गए। समय फिर लौट के आया और स्वस्थ स्वास्थ्य के लिए मोटे अनाज के भरपूर गुणों से लोग परिचित हुए। सेहत के लिए सभी तरह से फायदेमंद होने व लाइलाज बीमारी के इलाज में मोटे अनाज का सेवन रामबाण साबित होता है। इसलिए फिर से बाजार में इस पहाड़ी मोटे अनाज की भारी मांग होने लगी है। बाजार में मोटे अनाज की डिमांड मांग ज्यादा होने लगी तो मोटा अनाज फिर से खेतों में लौटने लगा। ग्रामीण भी मोटे अनाज की फसलों को उगाने में रुचि दिखाने लगे हैं। आज पहाड़ों के बाजार से मोटा अनाज प्राप्त करना भी अपने आप में एक चमत्कार है। बाजार में मोटा अनाज कम और मांग ज्यादा है। खाद्यान्न के क्षेत्र में भारत की आत्मनिर्भरता हमारी आहार संबंधी चुनौतियों से निपटने का पहला पड़ाव थी। इसमें कोई संशय नहीं है कि विगत साढ़े आठ वर्षों में हमने प्रधानमंत्री के नेतृत्व और मार्गदर्शन में भारत सरकार, किसानों एवं कृषि विज्ञानियों के प्रभावी प्रयासों के बल पर अनाज उत्पादन में अधिशेष यानी सरप्लस की स्थिति हासिल की है। आज हमारे अनाज भंडार भरे पड़े हैं। इस बीच हमने अपनी दूसरी आहार संबंधी चुनौती पर भी विजय प्राप्ति की दिशा में कार्य आरंभ कर दिया है। यह दूसरी आहार चुनौती प्रत्येक भारतवासी की थाली में पर्याप्त पोषण से युक्त आहार पहुंचाने से जुड़ी है। समय के साथ यह आवश्यक हो जाता है कि हम अपनी आहार संबंधी आदतों में बदलाव करें। कार्बोहाइड्रेड से ज्यादा ध्यान प्रोटीन, खनिज तत्वों, विटामिंस और फाइबर पर केंद्रित करने की जरूरत है। बदलती जीवनशैली में स्वस्थ शरीर के लिए आहार में मिलेट्स को जोड़ना आवश्यक एवं अपरिहार्य हो गया है। भोजन में मोटे अनाज का उपयोग शरीर को स्वस्थ्य रखने का अच्छा विकल्प साबित हो सकता है। देश के कोने-कोने में उपलब्ध खाद्य पदार्थों के हिसाब से ही खाना बनाया जाता है।जिसमें बर्तन में खाना बनाने से लेकर स्वादिष्ट खाना तैयार करना और उसको स्टोर करने के अलग-अलग तरीके हैं। इनमें प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा, विटामिन, मिनरल आदि की उपलब्धता अलग-अलग हो सकती है। पर शरीर को स्वस्थ्य रखने के लिए उन खाद्य पदार्थों का सेवन ठीक होता है जिनमें पोषक तत्वों की भरपूर उपलब्धता हो।पहाड़ की पुरानी खाद्य परंपरा में ऐसे ही खाद्य पदार्थों से तैयार भोजन का  उपयोग कर शरीर को लंबे समय तक फिट रखा जाता था।
दाल, चावल, रोटी, सब्जी के साथ ही अरसा, कंडाली का साग, फाणा, चेसा, कापली आदि का सेवन कर लोग बीमारियों से मुक्त रहते थे। पनचक्की में तैयार होने वाला आटा पेट की बीमारियों के लिए बहुत लाभप्रद है।पूर्व में लोग पनचक्की में तैयार होने वाले आटा का ही उपयोग करते थे। सिलबट्टे में पिसे मसाले भी शरीर को स्वस्थ्य रखने में कारगर साबित होते हैं। शरीर में खून की कमी को दूर करने के लिए लोहे के बर्तन में तैयार होने वाला खाना लाभप्रद होता है।कांसा, तांबा व भडू में धीमी आंच में भोजन तैयार करना पहाड़ की पुरानी परंपरा रही है। क्योंकि ये बर्तन मिनरल के भी स्रोत हैं। माइक्रो व मैक्रो मिनरल शरीर में पाचन व मेटाबॉल्जिम क्रियाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कि वर्तमान में बाजार में बिकने वाला दूध व दूध से तैयार होने वाले अन्य उत्पाद भी मिलावटी हैं। इनका सेवन शरीर के अंगों को नुकसान पहुंचा सकता है। जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में मिलने वाला शुद्ध दूध, मट्टा व पल्तर विटामिन, मिनरल आदि की आपूर्ति शरीर को भरपूर मात्रा में करते हैं।यह इसलिए भी कि वहां पर जानवर को दूषित चारा के बजाय प्राकृतिक चारा खिलाया जाता है। मोटा अनाज कोदा, झंगोरा, चौंसी, लाई, राई, चौलाई आदि शुगर के मरीजों के लिए वरदान है।खाद्य पदार्थों में मिलावट को रोकने के लिए सख्त कानून बनाने और भोजन में मोटे अनाजों का अधिकाधिक उपयोग करने से कई तरह की बीमारियों से बचने के साथ ही शरीर को लंबे समय तक स्वस्थ्य रखा जा सकता है। सेहत के लिए सभी तरह से फायदेमंद होने व लाइलाज बीमारी के इलाज में मोटे अनाज का सेवन रामबाण साबित होता है। इसलिए फिर से बाजार में इस पहाड़ी मोटे अनाज की भारी मांग होने लगी है। बाजार में मोटे अनाज की डिमांड मांग ज्यादा होने लगी तो मोटा अनाज फिर से खेतों में लौटने लगा। ग्रामीण भी मोटे अनाज की फसलों को उगाने में रुचि दिखाने लगे हैं। आज पहाड़ों के बाजार से मोटा अनाज प्राप्त करना भी अपनेआप में एक चमत्कार है। बाजार में मोटा अनाज कम और मांग ज्यादा हैलेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।

 

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