आओ एक दिया जलाएं,उत्तराखंड की समृद्ध लोक संस्कृति के प्रतीक “ईगास” का त्योहार मनाए
देहरादून। उत्तराखंड, एक ऐसा प्रदेश जहां की संस्कृति कर्इ रंगों से भरी हुर्इ है। जहां की बोली में एक मिठास है। जहां हर त्योहार को अनूठे अंदाज में मनाया जाता है। इगास-बग्वाल यानी दीपावली भी एक ऐसा ही त्योहार है जो उत्तराखंड की परंपराओं को जीवंत कर देता है।
पहाड़ में बग्वाल दीपावली के ठीक 11 दिन बाद ईगास मनाने की परंपरा है। दरअसल ज्योति पर्व दीपावली का उत्सव इसी दिन पराकाष्ठा को पहुंचता है, इसलिए पर्वों की इस शृंखला को ईगास-बग्वाल नाम दिया गया। इस मौके पर विभिन्न संस्थाओं की ओर से सांस्कृति कार्यक्रम का आयोजन करते हैं।
सुबह से लेकर दोपहर तक होती है गोवंश की पूजा
ज्योतिषाचार्यों के अनुसार हरिबोधनी एकादशी यानी ईगास पर्व पर श्रीहरि शयनावस्था से जागृत होते हैं। इस दिन विष्णु की पूजा का विधान है। देखा जाए तो उत्तराखंड में कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से ही दीप पर्व शुरू हो जाता है, जो कि कार्तिक शुक्ल एकादशी यानी हरिबोधनी एकादशी तक चलता है। देवताओं ने इस अवसर पर भगवान विष्णु की पूजा की। इस कारण इसे देवउठनी एकादशी कहा गया। इसे ही ईगास-बग्वाल कहा जाता है। इन दोनों दिनों में सुबह से लेकर दोपहर तक गोवंश की पूजा की जाती है। मवेशियों के लिए भात, झंगोरा, बाड़ी, मंडुवे आदि से आहार तैयार किया जाता है। जिसे परात में कई तरह के फूलों से सजाया जाता है।
सबसे पहले मवेशियों के पांव धोए जाते हैं और फिर दीप-धूप जलाकर उनकी पूजा की जाती है। माथे पर हल्दी का टीका और सींगों पर सरसों का तेल लगाकर उन्हें परात में सजा अन्न ग्रास दिया जाता है। इसे गोग्रास कहते हैं। बग्वाल और ईगास को घरों में पूड़ी, स्वाली, पकोड़ी, भूड़ा आदि पकवान बनाकर उन सभी परिवारों में बांटे जाते हैं, जिनकी बग्वाल नहीं होती।
भैलो खेल होता है मुख्य आकर्षण का केंद्र
ईगास-बग्वाल के दिन आतिशबाजी के बजाय भैलो खेलने की परंपरा है। खासकर बड़ी बग्वाल के दिन यह मुख्य आकर्षण का केंद्र होता है। बग्वाल वाले दिन भैलो खेलने की परंपरा पहाड़ में सदियों पुरानी है। भैलो को चीड़ की लकड़ी और तार या रस्सी से तैयार किया जाता है। रस्सी में चीड़ की लकड़ियों की छोटी-छोटी गांठ बांधी जाती है। जिसके बाद गांव के ऊंचे स्थान पर पहुंच कर लोग भैलो को आग लगाते हैं। इसे खेलने वाले रस्सी को पकड़कर सावधानीपूर्वक उसे अपने सिर के ऊपर से घुमाते हुए नृत्य करते हैं। इसे ही भैलो खेलना कहा जाता है। मान्यता है कि ऐसा करने से मां लक्ष्मी सभी के कष्टों को दूर करने के साथ सुख-समृद्धि देती है। भैलो खेलते हुए कुछ गीत गाने, व्यंग्य-मजाक करने की परंपरा भी है।
प्रत्येक उत्तराखंडी मनाए ईगास, अपने घरों में जलाएं दीये : बलूनी
भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता व राज्यसभा सांसद अनिल बलूनी ने प्रत्येक उत्तराखंड वासियों से आग्रह किया है कि वह अपने राज्य की विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान के लिए ईगास (बूढ़ी दीपावली) का त्योहार अवश्य मनाएं। उन्होंने ईगास पर घरों में दिए जलाने की भी अपील की। राज्य के पहाड़ में मनाए जाने वाले इस पारंपरिक त्योहार को जन-जन के बीच दीपावली, होली व अन्य पर्वों की तरह लोकप्रिय बनाने की मुहिम के तहत सांसद बलूनी ने अपने फेसबुक अकाउंट पर एक वीडियो अपलोड किया है। इस वीडियो के जरिये उन्होंने लोगों से यह अपील की। उन्होंने एक वीडियो संदेश के जरिये प्रदेशवासियों को ईगास मनाने का आग्रह किया। उन्होंने लिखा है कि दीपावली के 11वें दिन 25 नवंबर को ईगास या बूढ़ी दिवाली मनाई जाएगी। पिछले साल मैंने कहा था कि ईगास का त्योहार मैं अपने गांव में जाकर मनाऊंगा। दुर्भाग्य से मैं अस्वस्थ हो गया। मैंने फिर भी देखा कि ईगास का त्योहार बड़ी संख्या में लोगों ने उत्साह से मनाया। 25 नवंबर को ईगास का त्योहार है। मेरा प्रत्येक उत्तराखंडवासी से आग्रह है कि वह अपने उत्तराखंड की विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान के लिए ईगास का त्योहार मनाएं। घरों में दीये जलाएं। अपने स्वजनों के साथ ईगास उत्साह के साथ मनाएं।
बलूनी की अपील का दिखा असर
उत्तराखंड के पारंपरिक त्योहार ईगास के प्रति प्रदेशवासियों में रुचि जगाने और उन्हें प्रेरित करने के लिए बलूनी पिछले कुछ सालों से लगातार प्रयास कर रहे हैं। उनका यह प्रयास रंग ला रहा है। राजनीति से जुड़े लोग अब धीरे-धीरे अपने गांवों में ईगास मनाने को लेकर प्रेरित हो रहे हैं। नैनीताल-ऊधमसिंह नगर के सांसद अजय भट्ट 25 नवंबर को अपने पैतृक गांव जाएंगे। उन्होंने कहा कि गांव में ईगास मनाने की तैयारियां जोरों पर हैं। इस कार्यक्रम के जरिये उनका यह संदेश है कि देश विदेश में निवास कर रहे उत्तराखंड के प्रवासी अपनी विरासत और परंपरा के संरक्षण के लिए आगे आएं। 25 नवंबर को ईगास अपने गांव में मनाने का संकल्प लें। बकौल भट्ट, लोक परंपराओं और संस्कृति को बचाने के लिए हम सभी को एकजुट होना होगा।