पुराने जमाने के लोग आज भी कलाईवालों को उन लोगों के रूप में याद करते हैं, जो पीतल और तांबे के बर्तनों को कुशलता से गढ़ते थे। रसोई में इस्तेमाल किये जाने वाले बर्तनों में स्टेनलेस स्टील और एल्युमीनियम के बर्तन आने से पहले पीतल और तांबे के बर्तनों का इस्तेमाल किया जाता था। इस तरह के बर्तन भारतीय रसोई में दो कारणों से आम थे- विज्ञान और आध्यात्मिकता।अपने दैनिक जीवन में हम कॉपर या तांबे या कांस्य से बनी हुई कई वस्तुओं का प्रयोग करते हैं। इन वस्तुओं का प्रयोग आज से नहीं बल्कि वर्षों पहले से किया जा रहा है,जिसका मुख्य कारण इसकी आसानी से उपलब्धता तथा इसमें लाभदायक गुणों की उपस्थिति है। माना जाता है कि यह मनुष्य द्वारा उपयोग में लायी गयी प्रथम धातु है। पहले मानव विभिन्न प्रकार के उपकरण बनाने के लिए पत्थरों का इस्तेमाल करता था किंतु जब उसे तांबे का ज्ञान हुआ तब कांस्य युग की शुरूआत हुई। यूं तो प्राचीन काल में सोने और चांदी जैसी धातुएं भी धरती पर मौजूद थी किंतु कम उपलब्धता के कारण इनका बहुत अधिक प्रयोग नहीं किया जा सका। तांबे की सबसे खास बात यह है कि इसे आसानी से मोड़ा जा सकता है और किसी भी आकार में ढाला जा सकता है। दुनिया के सात अजूबों में से एक अजूबा मिस्र का तीसरी सहस्राब्दी ई.पू. पुराना फराओ खुफु का पिरामिड है। फराओ का मकबरा 23,00,000 पत्थर के ब्लॉक से बनाया गया था तथा इन पत्थरों को फिनिशिंग तांबे के औजारों से दी गई थी।तांबे की खोज के बाद लोगों ने सीखा कि अयस्कों से तांबा कैसे निकाला जाता है। धीरे-धीरे आभूषणों और अन्य वस्तुओं के निर्माण के लिए तांबा तथा जस्ता को मिलाकार मिश्र धातुएं तैयार की गयीं। कुछ ऐसी पांडुलिपियों की भी खोज की गयी, जिनमें तांबे से सोना बनाने के रहस्यों से संबंधित जानकारियों का उल्लेख प्राप्त हुआ। दरअसल तांबे और जस्ते के मिश्रण से पीतल प्राप्त होता है, जो कि सोने जैसा प्रतीत होता है। समय के साथ-साथ तांबे की मांग बढ़ती गयी जिससे इसका खनन भी बढ़ा। औद्योगिक तौर पर तांबे को गलाने का पहला प्रयास 8वीं शताब्दी की शुरुआत में किया गया था, जब तांबे के अयस्क की खोज रूस के यूरोपीय भाग के उत्तर में की गई थी। भारत में तांबे का उत्पादन वैश्विक उत्पादन का केवल 2% है। इसकी संभावित आरक्षित सीमा 60,000 वर्ग किमी (विश्व रिज़र्व का 2%) तक सीमित है, जिसमें 20,000 वर्ग किमी क्षेत्र अन्वेषण के अधीन है। चीन, जापान दक्षिण कोरिया और जर्मनी के साथ भारत तांबे के सबसे बड़े आयातकों में से एक है।भारत में तांबे का खनन ऐतिहासिक रूप से 2000 वर्ष
से अधिक पुराना है, किंतु औद्योगिक मांग को पूरा करने के लिए इसका उत्पादन 1960 के दशक के मध्य से किया जा रहा है। आंध्र प्रदेश, गुजरात, हरियाणा, झारखंड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मेघालय, उड़ीसा, राजस्थान आदि में तांबे की प्रमुख खदानें पायी जाती हैं। तांबे का महत्वपूर्ण गुण ये है कि यह रोगाणुरोधी है।
यह जीवाणु और विषाणु को कभी-कभी कुछ पल में ही आसानी से मार देता है। हाथों को लगातार तांबे के सम्पर्क में रखने से हाथों को साफ रखा जा सकता है। एक अध्ययन के अनुसार 1832, 1849 और 1852 में पेरिस (Paris) में फैले कोलेरा (Cholera) से वे 400 से 500 लोग अप्रभावित थे जो तांबे के कारखानों में काम
कर रहे थे। इसके अलावा वे लोग भी सुरक्षित बचे थे जो तांबे के वाद्ययंत्र बजाते थे। यदि तांबे की वस्तुओं का प्रयोग अस्पताल, भारी ट्रेफिक वाले क्षेत्रों आदि में किया जाता है, तो लोगों के स्वास्थ्य सुधार में सहायता की जा सकती है। रोग़ाणु कठोर सतह पर 4 से 5 दिन तक ज़िन्दा रहते हैं। जब हम सतह को छूते हैं तो यह हमारी नाक, मुंह, आंख के द्वारा शरीर में प्रवेश कर जाते है तथा हमें प्रभावित करते हैं। जब रोगाणु तांबे की सतह पर
आता है, तब तांबा विद्युत आवेशित आयन उत्सर्जित करता है, जोकि रोगाणु की बाह्य झिल्ली को नष्ट कर उसके डीएनए या आरएनए को भी नष्ट कर देते हैं।तांबे का पहला दर्ज चिकित्सा उपयोग सबसे पुरानी पुस्तकों में से
एक स्मिथ पैपिरस में मिलता है, जिसे 2600 और 2200 ई.पू. के बीच लिखा गया था। इसमें यह उल्लेखित है कि तांबे का उपयोग सीने के घावों और पीने के पानी को कीट-मुक्त करने के लिए किया जाता था। मिस्र और बेबीलोन के सैनिक संक्रमण को कम करने के लिए अपने खुले घावों की सतह को कांसे की तलवारों (जोकि तांबे और टिन से बनी होती थी) से छीलते थे। अध्ययनों से पता चला है कि तांबा उन रोगाणुओं को नष्ट करने में सक्षम है जो हमारे जीवन को सबसे अधिक खतरे में डालते हैं। यह कई रोगाणुओं को नष्ट करने में सक्षम है,
जिनमें नोरोवायरस, एमआरएसए ई कोलाई के विषाणुयुक्त प्रकार तथा कोरोना वायरस अध्ययन के अनुसार तांबे की सतह को लगभग चार घंटे में ही मार सकती है। यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। प्राचीन काल के दौरान भी, भारतीय पुजारी पानी का भंडारण अपने तांबे के कमंडल में करते थे जिससे पानी लंबे समय तक ताज़ा रहता था। इस पानी को ताम्र जल के रूप में जाना जाता है। भारत सहस्राब्दियों से तांबे के बर्तनों का उपयोग कर रहा है। अब भी, भारतीय दैनिक अनुष्ठान करने के लिए ताम्बा पंचपात्र का उपयोग करते हैं।
आयुर्वेद के अनुसार, तांबा तीन दोषों- वात, कफ और पित्त के बीच संतुलन बनाए रखने तथा बढ़ती उम्र के लक्षणों को नियंत्रित करने में भी मदद करता है। उत्तराखंड की धरती को अगर आंदोलनों की धरती कहा जाए तो गलत नहीं होगा. 1921 का कुली बेगार आन्दोलन, 1930 का तिलाड़ी आन्दोलन, 1984 का नशा नहीं
रोजगार दो आन्दोलन, 1994 का उत्तराखंड राज्य प्राप्ति आन्दोलन, ऐसे छोटे बड़े कई आंदोलनों ने यह बात सिद्ध की है कि यहां की मिट्टी में पैदा हुआ हर इंसान अपने हक की लड़ाई लड़ना जानता है, फिर वो पुरुष हो या फिर महिला जियोग्राफिकल इंडिकेशन टैग मिलने से ग्लोबल मार्केट में धूम मचाएंगे उत्तराखंड के 5
प्रोडक्ट, जानें इनकी खासियत हिमालयी राज्य उत्तराखंड में पारंपरिक तरीके से बनाए जाने वाले पांच उत्पादों को भारत सरकार की ओर से जीआई टैग यानी जियोग्राफिकल इंडिकेशन दिया गया है. अब ये प्रोडक्ट ग्लोबल मार्केट में अपनी धूम मचाने के लिए तैयार हैं. इन प्रोडक्ट में ऐपण, थुलमा कंबल, थुमला दन, ताम्र शिल्प और
रिंगाल के उत्पाद शामिल हैं. इन प्रोजक्ट को जीआई टैग मिलने से ग्लोबल मार्केट में अपनी पहचान मिलेगी.
उत्तराखण्ड़ का वह जिला जो अपनी पहचान सांस्कृतिक नगरी के रुप में रखता है अल्मोड़ा की कला और संस्कृति इस शहर को औरों से अलग बनाती है। साहित्य,कला हो या राजनीति इस शहर के कई बड़े हस्ताक्षर देश विदेश में जाने जाते हैं। स्वामी विवेकानंद भी इस शहर में पहुंचे और यहां कई स्थानों पर तपस्या की।
स्व.गोविंद बल्लभ पंत, स्व.सुमित्रानंदन पंत, मुरली मनोहर जोशी, प्रसून जोशी और बद्री दत्त पांडे जैसे लोगों का यह शहर अपनी संस्कृति ही नहीं बल्कि अपनी ताम्र कला के लिए भी विदेशों में जाना जाता रहा है। एक समय था जब अल्मोड़ा के टम्टा मोहल्ला की गलियों से गुजरते हुए आपको हर समय टन-टन की आवाज सुनाई
देती थी। यह आवाज ताबा हैंडीक्राफ्ट कारीगरों के घरों से आती थी। क्योंकि दिन रात मेहनत करके वह ताबे के बड़े सुंदर बर्तनों को आकार दिया करते थे। उस दौर में अल्मोड़ा के तांबा हैंडीक्राफ्ट का सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में भी बोलबाला हुआ करता था। लेकिन जैसे-जैसे साल बीतते रहे यह आवाजें भी गायब सी हो
गई हैं।एक दौर ऐसा भी था जब अल्मोड़ा कि हर दुकान में आपको गगरी नजर आती थी जिसे स्थानीय भाषा में गागर भी कहा जाता है। परंपरा यह थी की लड़की की शादी में गगरी देना अनिवार्य था।कभी कभी ऐसा भी होता था कि एक ही शादी में एक से अधिक गगरी मिल जाती थी। लेकिन समय के साथ तांबे की जगह स्टील व
सिल्वर के बर्तनों ने ले ली, तौली व भडडू की जगह कुकर ने ली तो गागर की जगह स्टील की गगरी ने ले ली।वहीं तांबा कारीगरों को इस बात की चिंता सताने लगे कि देश में जब मशीनीकरण हो जाएगा तो शायद उनका काम भी छिन जाएगा, हुआ भी कुछ ऐसा ही जैसे-जैसे तांबे के काम को मशीनों के जरिए किया जाने लगा हैंडीक्राफ्ट के मजदूरों के हाथ से मानो काम छिन सा गया।जिस अल्मोड़ा के टम्टा मोहल्ला में एक जमाने में मजदूरों के पास सांस लेने की फुर्सत नहीं थी, आज उसी टम्टा मोहल्ला की हालत यह है कि मजदूरों के पास काम नहीं है, क्योंकि व्यापारी मशीनों से मुनाफा भी कमा रहे हैं, और कम समय में ज्यादा उत्पाद भी प्राप्त कर
रहे हैं।अल्मोड़ा के टम्टा मोहल्ला में रहने वाले तांबा हैंडीक्राफ्ट के कारीगर का कहना है कि,अब तो ऐसा लगता है कि शायद तांबा कारीगरी का यह हुनर उनकी पीढ़ी में ही खत्म हो जाएगा। नयी पीढ़ी इस काम को नहीं करना चाहती है। क्योंकि इसमें मेहनत ज्यादा है और कमाई ना के बराबर है।सुनील टम्टा कहते हैं की एक वह भी दौर था जब वह महीने भर तांबे के बर्तनों का आर्डर भी पूरा नहीं कर पाते थे, क्योंकि डिमांड बहुत ज्यादा
थी और सभी लोग हैंडीक्राफ्ट काम को ही पसंद किया करते थे। महंगा होने के बावजूद लोग तांबा खरीदा करते थे।शादियों के सीजन में गगरी और तांबे के तौले बनाने का काम उनके पास सबसे ज्यादा रहता था लेकिन अब हालात ऐसे हैं कि उनको बाजार में जाकर काम मांगना पड़ता है। सुनील टम्टा बताते हैं कि अब मशीनों से तांबे
का काम ज्यादा हो रहा है, समय बच रहा है और उत्पाद ज्यादा मिल रहा है मशीनों से किया गया काम हैंडीक्राफ्ट की तुलना में सस्ता है इसलिए व्यापारी भी मशीनों से ही काम करवा रहे हैं उनके पास अब वह काम आ रहा है जो मशीनों से नहीं किया जा सकता है या जो बर्तन पुराने हो गए हैं उन्हें नई चमक देनी है।सरकारों से भी तांबा हैंडीक्राफ्ट के कारीगर नाराज नजर आते हैं, क्योंकि सरकारें वादा करती रही कि अल्मोड़ा की ताम्र नगरी को बेहतर और आधुनिक बनाया जाएगा लेकिन 1992 में बनाई गई ताम्र नगरी में आज भी तकनीकी के मामले में कुछ नहीं है।अल्मोड़ा में हरिप्रसाद टम्टा शिल्प कला संस्थान के जरिए तांबा हैंडीक्राफ्ट के क्षेत्र में प्रगति के सपने भी दिखाए गए लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।मशीनों से काम सुगमता और कम समय में ज्यादा उत्पाद के तौर पर हो रहा है इसलिए लोग हैंडीक्राफ्ट की ओर कम जा रहे हैं सरकारों को तांबा कारीगरों को तकनीक से युक्त बनाने की जरूरत है और मशीनों के तौर पर उन्हें सब्सिडी भी दी जानी चाहिए जिससे वह मशीनों के जरिए भी अपना कार्य कर सकें।तांबा हैंडीक्राफ्ट का काम विदेशों में भी बड़े पैमाने पर पसंद किया
जाता है।अल्मोड़ा और उसके आसपास के क्षेत्रों में घूमने आने वाले पर्यटक काफी मात्रा में तांबे के बर्तनों को खरीदते हैं विदेशों से बड़े पैमाने पर इनकी डिमांड भी आती है। ऐसे में सरकार को चाहिए कि तांबा हैंडीक्राफ्ट को बचाने के लिए योजनाएं शुरू की जाए। तांबा हैंडीक्राफ्ट से जुड़े कारीगरों को तकनीक से युक्त बनाने के साथ-साथ उन्हें मशीनों में सब्सिडी भी दी जाए।उत्तराखण्ड़ में तांबे के बर्तनों का उपयोग प्राचीन काल से ही होता आया है, यहां उस दौर में तांबे के बर्तनों में भोजन बनाने की प्रथा थी। तांबे को बहुत शुद्ध माना गया है, इसलिए लोग तांबे के बर्तनों में ही खाना पकाते थे और तांबे के बर्तनों में रखा हुआ पानी पीते थे। तांबे के तौले (भात पकाने के लिए बड़े बर्तन) भड्डू (दाल बनाने के लिए बड़े बर्तन) गागर (गगरी) केसरी, फिल्टर, लोटे, दीये प्रमुख थे, जिनकी मांग हमेशा से बाजार में रही है। उत्तराखंड के वाद्य यंत्रों में तुतरी, रणसिंह और भौखर हमेशा से प्रमुख रहे हैं, जिन्हें तांबे से बनाया जाता था, और यह सारे काम हैंडीक्राफ्ट का काम करने वाले कारीगर ही
किया करते थे। तांबे का पानी स्वास्थ्य के लिए लाभदायक माना जाता है। अल्मोड़ा में हस्तनिर्मित तांबे के बर्तन शुद्ध तांबे के होते हैं। जिनको कारीगर पिघलाकर हथौड़े से पीट-पीटकर बनाते हैं। दीपावली के समय में तांबे के
बर्तनों की काफी डिमांड रहती है। चंद शासनकाल में सिक्कों की ढलाई से लेकर मौजूदा पारंपरिक तांबे के बर्तनों तक का अल्मोड़ा का सफर बेहद समृद्ध रहा। चंद वंश की राजधानी में हुनरमंद तामता बिरादरी की टकसाल ने
तमाम उतार चढ़ाव देखे। वक्त के साथ ताम्र शिल्पियों की हस्तकला पर मशीनीयुग की काली छाया क्या पड़ी, बुलंदियों पर रही ताम्रनगरी धीरे-धीरे उपेक्षा से बेजार होती चली गई। अब पर्वतीय राज्य के जिन सात उत्पादों को जीआइ टैग मिला है, उनमें यहां के तांबे से बने उत्पाद भी शामिल हैं। वैसे तो घरेलू बर्तन मसलन फौला, तौला के साथ धार्मिक आयोजनों में प्रयुक्त होने वाले पंचधारा, मंगल परात, गगार, कलश ने अल्मोड़ा को देश- विदेश तक पहचान दिलाई है। पारंपरिक ठनक कारखानों की बजाय आधुनिक फैक्ट्रियों में मशीनों से ताम्र उत्पाद बनने लगे। इससे ताम्र नगरी की टकसाल संकट में पड़ गई। हालांकि हरिद्वार महाकुंभ में तत्कालीन आइजी कुमाऊं की पहल पर यहां से अतिथियों के लिए 500 फौले, गागर व कलश बनवाए गए। आजादी के
बाद ताम्रनगरी फिर बुलंदियों की ओर बढ़ी। यहां के बने पराद (परात), गागर व कलश की भारी मांग रहती थी। मांगलिक व धार्मिक कार्यक्रमों के लिए फौले, गगरी, पंच एवं अघ्र्यपात्र, जलकुंडी ही नहीं शिव मंदिरों के लिए ताम्र निर्मित शक्ति की मांग अभी बरकरार है। महाराष्ट्र सहित पूरे देश भर में "फैमिली डॉक्टर" के नाम से
विख्यात आयुर्वेदाचार्य डॉ बालाजी तांबे को इस साल केंद्र सरकार द्वारा मरणोपरांत पद्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया है. सरकार की तरफ से आयुर्वेदाचार्य डॉक्टर बालाजी तांबे को पद्मश्री पुरस्कार (मरणोपरांत) से सम्मानित किया गया है भारत के अलावा विदेश में भी डॉक्टर तांबे ने आयुर्वेद को नई ख्याति प्रदान की थी. आधमिक्ता, योग और आयुर्वेद को लेकर उन्होंने कई सारी पुस्तकें भी लिखी थीं. आयुर्वेदिक पद्धति के जरिए लोगों के उपचार करने के लिए आयुर्वेदाचार्य ने महाराष्ट्र के लोनावला में " आत्मसंतुलना गांव" नाम के एक
चिकित्सा केंद्र की शुरुआत की थी. देश और विदेश के अलग-अलग हिस्सों से आए हुए लोगों का केंद्र में आयुर्वेदिक पद्धति से उपचार किया जाता था
लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।