रंगोली भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परंपरा और लोक-कला है।अलग अलग प्रदेशों में रंगोली के नाम और उसकी शैली में भिन्नता हो सकती है लेकिन इसके पीछे निहित भावना और संस्कृति में पर्याप्त समानता है। इसकी यही विशेषता इसे विविधता देती है और इसके विभिन्न आयामों को भी प्रदर्शित करती है। इसे सामान्यतः त्योहार, व्रत, पूजा, उत्सव विवाह आदि शुभ अवसरों पर सूखे और प्राकृतिक रंगों से बनाया जाता है। हमारी संस्कृति में विभिन्न प्रकार की लोक कलाएं मौजूद है। उन्ही में से एक प्रमुख कला है ऐपण। उत्तराखंड की स्थानीय चित्रकला की शैली को ऐपण के रूप में जाना जाता है। मुख्यतया ऐपण उत्तराखंड में शुभ अवसरों पर बनायीं जाने वाली रंगोली है। ऐपण कई तरह के डिजायनों से पूर्ण किया जाता है। फुर्तीला उंगलियों और हथेलियों का प्रयोग करके अतीत की घटनाओं, शैलियों, अपने भाव विचारों और सौंदर्य मूल्यों पर विचार कर इन्हें संरक्षित किया जाता है। ऐपण लोक संस्कृति की परिचायक होती हैं। अतः उनका मूलाधार यथावत् बनाए रखना उचित होता है। अल्पनायें पुरातन पीढ़ियों से उतरती हुई नवागत पीढ़ियों को विरासत के रूप में प्राप्त होती हैं। वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकी के इस युग में भी अल्पनाओं का महत्व बहुत कम नहीं हुआ है। हां इसके रूप में परिवर्तन अवश्य हुआ है, क्योंकि हस्त निर्मित अल्पनाओं का मुद्रित रूप प्राप्त होने लगा है। इस नवीन प्रवृत्ति के कारण अल्पना निर्माण में मनोयोग और अल्पनाओं में वैविध्य की शून्यता पनपने लगी है, चूँकि अल्पनायें केवल रेखा चित्र मात्र नहीं होती हैं, बल्कि उनमें लोक जन. मानस से जुड़ी धार्मिक एवं सामाजिक आस्थाओं की अभिव्यक्ति समाहित है। अतः उनका सरंक्षण करना आवश्यक हो जाता है।
उत्तराखण्ड में ऐपण कला कालांतर से चली आ रही मान्यताओं की अभिव्यक्ति परिलक्षित होती है। अतः इनमें तांत्रिक, मान्त्रिक एवं यांत्रिक आस्थाओं के संकेत मिलते हैं। अल्पनाओं के प्रतिरूप के फौर्म में विदेशों में भी रेखाचित्र अंकन की परम्पराएं पायी जाती है। ये रेखा चित्र पुश्तैनी विरासत का रूप प्रदर्शित करते हैं। यूरोप में प्रेत बाधा को हटाने के लिए पौण्टोग्राम का प्रयोग किया जाता है। माना जाता है कि पञ्च भूत शक्तियां समन्वित कर ऋणात्मक उर्जा से मुक्ति पाई जा सकती है। तिब्बत में दुरात्माओं से मुक्ति पाने के लिए धरती में चित्र खींच कर रेखा चित्रों का निर्माण किया जाता है, जिन्हें तिब्बती भाषा में किंलोर कहा जाता है। यहूदी धर्म में पंचकोणीय तारों का निर्माण किया जाता है। जिनका उदेश्य भी ऋणात्मक ऊर्जा के स्थान पर धनात्मक उर्जा का प्रतिस्थापन करना होता है। उन्हें यहूदी धर्म में सोलोमन की झील व डेविड का तारा कहा जाता है। गढ़वाल की ओझा परंपरा में एवं कुमाऊं की जागर परम्परा धार्मिक आस्था के स्वरूप हैं। कहा जाता है कि एक महाशय को पानी की तलाश थी। उन्हें ककड़ी की एक बेल एक घर में दिखाई दी। उन्होंने घर वालों से उसका फल देने को कहा पर उनकी मांग का घरवालों पर कोई प्रभाव न हुआ, तो उन्होंने घर की गृहणी से कुछ चावल के दाने देने की प्रार्थना की। उन्होंने चावल के दाने हाथ में लिए और मुंह कपास लाकर कुछ मन्त्र पड़े और बेल पर फेंक दिये और चल दिये। उनके पीछे. पीछे बेल भी चल दी। इस उद्धरण का ऐपण कला से सीधा संबंध नहीं है, पर परोक्ष संबंध अवश्य है, क्योंकि ऐपण कला में तांत्रिक मांत्रिक संकेत अंकित किए जाते हैं। इतना अवश्य है कि आत्मा की शक्ति उर्जा के महत्व को हर क्षेत्र में जुड़ी अल्पनाओं में स्वीकारा गया है।
दिल्ली राज्य सरकार ने भी उत्तवराखण्डद मूल के पर्वतीय लोक गायक को दिल्लीर राज्य में इस संबंध में महत्वपूर्ण जिम्मेादारी सौपी है, तो ऐसा ही प्रयास उत्तराखण्ड् में किये जाने की आवश्यणकता है। ऐपण कला को पहचान देने की जरूरत है। ऐपण को कुमाऊं में प्रत्येक शुभ कार्य के दौरान पूरी धार्मिक आस्था के साथ बनाया जाता है। त्यौहारों के वक्त इसे घर की देली, मंदिर, घर के आंगन में बनाने का विषेश महत्व है। ऐपण यानि अल्पना एक ऐसी लोक कला, जिसका इस्तेमाल कुमाऊं में सदियों से जारी है। यहां ऐपण कलात्मक अभिव्यक्ति का भी प्रतीक है। इस लोक कला को अलग.अलग धार्मिक अवसरों के मुताबिक बनाया जाता है। शादी, जनेऊ, नामकरण और त्योहारों के अवसर पर हर घर इसी लोक कला से सजाया जाता है। ज्योतिषियों के मुताबिक ऐपण हर अवसर के मुताबिक बनाए जाने वाली कला है। आज भी बगैर ऐपण के कोई शुभ कार्य नहीं होते हैं।
ऐपण में सम बिंदु और विषम रेखाओं को शुभ माना गया है। देखने में भले ही ये ऐपण आसान से नजर आते है, लेकिन इन्हें बनाने में ग्रहों की स्थिति और धार्मिक अनुष्ठानों का खास ध्यान रखा जाता है। देश के हर हिस्से में रहने वाले कुमाऊंनी के घर पर आपको ऐपण देखने को मिल जाएंगे। इसके साथ ही सात समुंदर पार रहने वाले कुमाऊंनी विदेशी धरती में रहते हुए भी इस कला और अपनी संस्कृति से जुड़े हुए हैं। उत्तराखंडी लोक कला के विविध आयाम हैं। यहाँ की लोक कला को ऐपण कहा जाता है। यह अल्पना का ही प्रतिरूप है। संपूर्ण भारत के विभिन्न क्षेत्रों में लोक कला को अलग.अलग नामों जैसे बंगाल में अल्पना, उत्तर प्रदेश में चौक पूरना, गुजरात में रंगोली, मद्रास में कोलाम, राजस्थान में म्हाराना और बिहार में मधुबनी से जाना जाता है। धार्मिक अनुष्ठानों एवं संस्कारों से संबंधित क्षेत्रीय लोक कलाओं का महत्त्व सदियों से चलता चला आया है।
विवाहोत्सवों पर निर्मित कलाओं में बारीकियों का विशेष महत्त्व होता है। ऐपण भावनाओं का दर्पण होत्ते हैं। कुमाऊं की जागर परम्परा में देवी देवताओं एवं अन्य क्षेत्रीय देवताओं की आराधनायें शामिल होती हैं जिनमें भू.तत्व चावल शामिल होती हैं जिनमें भू. तत्व चावल जल तत्व एवं अग्नि तत्व का महत्व माना जाता है। तांत्रिक, मांत्रिक परंपराओं की अनेक विधियां जिनका यहां विवरण देना अप्रासंगिक होगा, इन ऐपण कला आकृतियों को प्रभावित करती हैं।
सर जाँन बुडराफ के अनुसार मध्यकालीन हिन्दू धर्म बहुत अंशों में तांत्रिक है। प्रचलित और गूढ़ दोनों हिन्दू धर्मों में तंत्र विद्या का काफी समावेश है। तंत्र, वह धर्म शास्त्र है, जिसके संबंध में यह कहा जाता है किशिव ने कलियुग के विशिष्ट शास्त्र के रूप में इसे प्रस्तुत किया है। यहां यह बात प्रस्तुत करना इसलिए जरुरी है क्योंकि पूरे उत्तराखण्ड में शिव और शक्ति की पूजा होती है। अतः इससे ऐपणों का सीधा संबंध है। ऐपण कला में अनेक चिन्हों का उपयोग होता है, पर उनमें कुछ प्रमुख तिलक, मंगल.कलश, स्वस्तिक, शंख, ॐ, दीपक आदि हैं। तीक चिन्ह हैं। जहां डमरू और त्रिशूल शिर्वाचन के प्रतीक हैं। ॐ शंख और घंटी शक्ति साधना के उपादान हैं। ॐ, परमब्रह्म त्रिदेव शक्ति का प्रतीक है। स्वास्तिक विघ्नहर्ता का प्रतीक है और विस्तार समीष्ट का भी। मयूर एवं कमल वागदेवी मां सरस्वती और कमलासन लक्ष्मी के प्रतीक हैं। तोता प्रकृति का प्रतीक है और तिलक धर्मदात्री पृथ्वी का प्रतीक माना गया है। ऐपण में भी इनके अनुरूप आस्थाएं निहित होती हैं। ऐपण निर्माण में प्रयुक्त सामाग्री से अधिकांश उत्तराखंडी जन मानस परिचित है इनमें गेरू और बिस्वार मुख्य हैं।
समय के अनुसार ऐपण कला में रंगीन एवं रेखिकीय कला में आंशिक परिवर्तन हुए हैं पर उनकी आकृतियां मूल आकृतियों के अनुरूप ही बनी रही हैं। इनमें दशहरा द्वारपट्ट या द्वारपट्टा एक उदारण है। चूंकि इसमें रोली, कुमकुम, चावल औरअष्टगंध का प्रयोग होता है। अतः अल्पनाओं का मूल धर्म ही है। धर्म का कोई भी पक्ष हो सकता है। जो मानव आस्था पर आधारित हो। अल्पना संस्कृति में द्वार पट्टा ऋणात्मक शक्ति के प्रभाव का निवारण करता है। कृषि और प्रकृति से और मानव का कृषि से अटूट संबंध रहा है इस दृष्टि से मानव का प्रकृति से अविच्छेद नाता बना रहा है। वैसे भी उत्तराखण्ड का जीवन कृषि, पशुपालन एवं सीमा प्रहरी से जुड़ कर प्रकृतिके वरद.हस्त से पलता रहा है। उत्तराखण्ड शैव क्षेत्र होने की दृष्टि से यहां वायु तत्व की प्रधानता रही है। जिसमें शिव गण गणादि के पूजा कार्य कू प्रधानता रही है। शक्ति क्षेत्र होने के नाते यहां मनसा देवी सर्प से रक्षा करने वाली देवी और शीतला देवी छोटी माता की देवी के रूप आधारित रही है। शक्ति की आराधना के लिए उनका आसन स्थापित करना आवश्यक होता है। पीठ देवी देवताओं का आसन माना जाता है। इसलिए उत्तराखण्ड की ऐपण निर्माण कला में सरस्वती पीठ, देवी पीठ, लक्ष्मी पीठ, शिव.शक्ति पीठ का निर्माण किया जाता है।
उत्तराखण्ड में कृषि पर निर्भरता होते हुए भी कृषि उत्पादों का अंकन अल्पनाओं में कम परिलक्षित होता है। संभवतः देवी देवताओं के सापेक्ष कृषि पक्ष को प्रधानता नहीं मिल पाई है। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के इस युग में ऐपण कला भी उपेक्षित हुई है। नई पीढ़ी इसे श्रम साध्य कार्य मानने लगी है। कला और प्रोद्योगिकी दो अलग पक्ष हैं। एक चैतन्य से जुड़ा हुआ है और दूसरा यांत्रिक जड़ता से जुड़ा हुआ है। दीवाली का त्यौहार नजदीक ही है। इस त्यौहार में कुमाऊ के सभी घरों को ऐपण से सजाया जायेगा। ऐपण एक पारंपरिक कुमाऊनी चित्रकला है। इस लोक चित्रकला का सभी स्थानीय धार्मिक अनुष्ठानों में महत्वपूर्ण स्थान है। इसके तहत विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों तथा त्यौहारों पर घरों की दीवारों, देहरियों, आँगन एवं पूजा स्थलों पर शुभ.मांगलिक प्रतीकों को उकेरा जाता है। इससे मिलती जुलती पारंपरिक चित्रकलाएँ देश के कई हिस्सों में अन्य नामों के साथ मौजूद हैं।
उत्तराखण्ड के विभिन्न त्यौहारों तथा मांगलिक अवसरों पर बनाये जाने वाले ऐपण का विशिष्ट रूप एवं विधान होता है। इसमें प्राकृतिक रंगों सेए गेरू एवं पिसे हुए चावल के आटे के घोल बिस्वार, विभिन्न आकृतियां बनायी जाती है। ऐपण का अर्थ है लीपना। लीप शब्द का अर्थ है, अंगुलियों से रंग लगाना, न कि ब्रश से रंगना। इस विधा में गेरु की पृष्ठभूमि पर बिस्वार अथवा कमेछ मिट्टी से विभिन्न अलंकरण किये जाते हैं। कुमाऊनी महिलाओं की सतत अभ्यास से दक्ष ऊंगलियां ऐपण के शानदार चित्रांकन को अंजाम देती हैं। ऐपण का चित्रांकन भीतर से बाहर की ओर किया जाता है। केन्द्र से शुरू कर बाहर की परिधि की ओर विस्तार दिया जाता है। ऐपण के विषय त्यौहार अथवा अनुष्ठान की पूर्वनिर्धारित परंपरा से तय होते हैं।
दीपावली के अवसर पर कुमाऊं के घर.घर ऐपण से सज जाते हैं। दीपावली के अवसर पर देहरी, दरवाजों, आंगन, फर्श व कमरों में ऐपण के रूप में लक्ष्मी की पदावलियां चित्रित की जाती हैं। महिलाएं गेरू के ऊपर सफ़ेद बिस्वार से हाथ की बंद मुट्ठी की मदद से घर के बाहर से अन्दर की ओर जाते हुए लक्ष्मी के पैर बनाती हैं। मुट्ठी के छाप से बनी पैर की आकृति के ऊपर अंगूठा और उंगलियां बनायी जाती हैं। लक्ष्मी के इन दो पैरों के बीच में एक पर गोल निशान या फूल की आकृति भी बनायी जाती है। बीच में बनाया जाने वाला यह निशान लक्ष्मी के आसन कमल तथा धन.संपत्ति का प्रतीक माना जाता है। पूजा कक्ष में भी लक्ष्मी के चौकी बनायी जाती है। इस चौकी पर ही गन्ने से निर्मित, पारंपरिक परिधानों तथा आभूषणों से सुसज्जित धन, ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी को स्थापित किया जाता है। मान्यता है कि ऐसा करने से लक्ष्मी प्रसन्न होकर घर परिवार को धनधान्य से पूर्ण करती है। इनके साथ फूल मालाओं, सितारों, बेल.बूटों व स्वास्तिक चिन्हों के ऐपण भी बनाये जाते हैं। आजकल की दौड़ती.भागती जिंदगी में ऐपण पक्के रंगों से ब्रश कि सहायता से बनाए जाने का चलन बढ़ने लगा है। ख़ास तौर से कुमाऊ के शहरों में ऐपण पक्के रंगों से ही बनाये जा रहे हैंण् इससे भी आगे शहरों में ऐपण के प्लास्टिक स्टिकरों के नए चलन की भी शुरुआत हो चुकी है। इस तरह ऐपण बनाने की मेहनत और दक्षता से भी छुटकारा मिल जाता है।
पिथौरागढ़ में रहने वाली निशा पुनेठा पिथौरागढ़ की पुनेठा से कला के साथ अपनी रचनात्मकता का सफ़र जारी रख सकने की उज्जवल की कामना है। ऐसा मुमकिन नहीं। उनके रहते उत्तराखण्ड की लोककला, संस्कृति का भविष्य सुनहरा है। ऐसी ही एक कलाकार है निशा पुनेठा, बेहतरीन चित्रकार निशा ने ऐपण की लोकविधा को नए मुकाम पर पहुंचा दिया है पर्वतीय अंचलों में आज भी ऐपण पारंपरिक तौर तरीकों से ही बनाये जा रहे हैं। ऐपण की परंपरा को बचाए रखने के लिए कई व्यक्ति तथा संस्थाएँ सक्रिय भूमिका निभा रही हैं। दोनों प्रवृत्तियों में भेद करने की आवश्यकता है तभी ऐपण कला जीवित रह पाएगी। अल्पनाओं को प्रशिक्षण केन्द्रों में आबध्द नहीं किया जा सकता है। मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति होने के कारण इनकी बनावट में परिवर्तन की संभावना रहती है। अल्पनायें परम्पराओं से संबंद्ध होती हैं अतः इनके मौलिक रेखांकन में विशेष परिवर्तन नहीं किया जाता हैण् पूर्व उत्तकराखण्डं सरकार ने इस कला को विलुप्तअ होने से बचाने के लिए ऐपण विभाग तक बना दिया था और राज्यज सरकार के हर कार्यालय में ऐपण चित्र लगाने की प्रेरणा दी थी, इसमें महिलाओं को लक्ष्मी चौकी, विवाह चौकी दिवाली की चौकी तैयार करने के तरीके सिखाए जाने चाहिए। ऐपण बनाने का हुनर सीख कर जहां हम सब अपनी इस कला से जुड़ेगे और रोजगार को भी बढावा मिलेगा अत. ज्यादा सा ज्यादा लोगो को ऐपण से जोड़ना चाहिए राज्य में नये रोजगारों का सृजन इससे रोजगार के लिए गांवों से शहरों की ओर हो रहे पलायन पर भी रोक लगेगी। उत्तराखंड की स्थानीय चित्रकला की शैली को ऐपण के रूप में जाना जाता है। मुख्यतया ऐपण उत्तराखंड में शुभ अवसरों पर बनायीं जाने वाली रंगोली है । ऐपण कई तरह के डिजायनों से पूर्ण किया जाता है। फुर्तीला उंगलियों और हथेलियों का प्रयोग करके अतीत की घटनाओं, शैलियों, अपने भाव विचारों और सौंदर्य मूल्यों पर विचार कर इन्हें संरक्षित किया जाता है।.
उत्तराखंड में ऐपण का अपना एक अहम स्थान है। लोक कलाओं को सहेजने में कुमाऊंवासी किसी से कम नहीं है। यही वजह है कि यहां के लोगों ने सदियों पुरानी लोक कलाओं को आज भी जिंदा रखा है।
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