प्रदेश में अनियमितता के शिकार नशा मुक्ति केंद्र, डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

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प्रदेश में केवल चार नशा मुक्ति केंद्र ही ऐसे हैं, जिन्हें राज्य सरकार ने चलाने की इजाजत दी है। इसमें एक हल्द्वानी, एक हरिद्वार और दो पिथौरागढ़ में संचालित हैं। इन नशा मुक्ति केंद्रों में क्या हो रहा है, इसकी जवाबदेही तो है, लेकिन गली-गली कुकुरमुत्तों की तरह खुल गए नशा मुक्ति केंद्र पर किसी का नियंत्रण नहीं है। यही वजह कि आए दिन प्रदेश के नशा मुक्ति केंद्रों से कभी सामूहिक दुष्कर्म तो कभी संदिग्ध मौतों के खबर सामने आती है। नशा मुक्ति केंद्र खोलने के लिए भारत सरकार के सामाजिक न्याय और आधिकारिता मंत्रालय से मान्यता जरूरी है। साथ ही राज्य के समाज कल्याण विभाग में अनिवार्य रूप से रजिस्ट्रेशन होना चाहिए। अब हल्द्वानी की ही बात करें तो यहां सिर्फ केंद्र इसमें खरा उतरता है, जबकि मौजूदा वक्त में आधा दर्जन से ज्यादा नशा मुक्ति केंद्र यहां संचालित हैं। कुछ ने तो बिना नाम पते के घर में कारोबार खोल लिया है। जबकि प्रदेश में ऐसे कितने नशा मुक्ति केंद्र इसकी गणना आज तक नहीं हुई। ऐसे नशा मुक्ति केंद्र नशे से जकड़े युवाओं के परिवार की मजबूरी का फायदा उठाते हैं। ऐसे परिवार से नशा मुक्ति केंद्र 30 से 40 हजार रुपए आसानी से ऐंठ लेते हैं। अब राज्य सरकार ऐसे नशा मुक्ति केंद्रों की नाक में नकेल डालने जा रही है। राज्य सरकार नशा मुक्ति केंद्र का एक अलग सचिवालय खोलने की तैयारी में है और जल्द ही यह अस्तित्व में दिखाई देगा। डीआईजी ने बताया कि नशा मुक्ति केंद्रों पर सरकार गंभीर है और जल्द ही इसको लेकर नई गाइडलाइन सामने आएगी। इसको लेकर एक अलग सचिवालय की व्यवस्था भी की जा रही है। अभी तक तक नहीं हुई है नशा मुक्ति केंद्र बिना मेडिकल स्टाफ के संचालित नहीं किया जा सकता। इसके लिए केंद्र में डॉक्टर के साथ नर्स और ट्रेंड स्टाफ का होना जरूरी है। हालांकि अधिकांश नशा मुक्ति केंद्रों में इसके उलट काम होते हैं। कइयों तो मरीजों का नशा छुड़ाने के लिए उन्हें यातनाएं तक दी जाती है। ऐसा तब किया जाता है, जब भर्ती मरीज नशे के लिए तड़पता और उग्र हो जाता है। देहरादून, हरिद्वार, हल्द्वानी समेत कई नशा मुक्ति केंद्रों में मरीजों की मौतों ने तमाम सवाल खड़े किए। मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में सचिवालय में नार्को समन्वय की बैठक हुई थी और बैठक में मुख्यमंत्री ने राज्य में दो सरकारी नशामुक्ति केंद्र खोलने की बात कही थी। कहा था कि प्रदेश में संचालित नशा मुक्ति केंद्रों के लिए सख्त गाइडलाइन बनाएं और एंटी ड्रग्स टास्क फोर्स को सक्रिय करने के निर्देश दिए थे। मुख्यमंत्री ने 2025 तक ड्रग्स फ्री देवभूमि के लिए अधिकारियों को निर्देश दिए थे और इसे मिशन मोड पर लेने को कहा था। मुख्यमंत्री ने अपर मुख्य सचिव को ड्रग्स फ्री देवभूमि अभियान की नियमित समीक्षा करने के निर्देश दिए थे और जिला स्तर पर ये जिम्मेदारी डीएम को सौंपी गई थी। सूत्र बताते है कि पहले भी कुछ नशा मुक्ति केंद्रों में कुव्यवस्था और मारपीट की खबरें मिलती रहती हैं। लेकिन हर बार उनको नजरंदाज किया जाता रहा है। जबकि सरकारी एजेंसियों के पास इसका कोई रिकॉर्ड नहीं है। वहीं सूत्र बताते हैं कि देहरादून में करीब 100 ऐसे नशा मुक्ति केंद्र चल रहे हैं, अभी तक इन केंद्रों को लेकर कोई सरकारी पॉलिसी नहीं है। आरोप है कि नशे की आदत छुड़ाने के लिए जो लड़कियां यहां भर्ती होती थीं, नशा मुक्ति केंद्र में भर्ती युवतियों को सेक्स के बदले  नशा/ड्रग्स परोसा जाता था। इस केंद्र का संचालक विद्यादत्त भी इन युवतियों को खोज रहा था। सूत्रों के अनुसर जैसे ही इनमें से एक लड़की को पुलिस ने खोज निकाला वह अपना फोन बंद कर भाग निकला। वहीं पूछताछ से पता चला कि इन युवतियों में से एक के साथ उसने दुष्कर्म किया और बाकी के साथ अश्लील छेड़छाड़ की गई है। वहीं पुलिस ने केंद्र की डायरेक्टर को तो गिरफ्तार कर लिया था, जनकारी के अनुसार दून में नशा मुक्ति केंद्र में युवतियों से दुष्कर्म और छेड़खानी के आरोपी संचालक को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है।जिस तरह से ड्रग्स देकर नाबालिग लड़कियों के साथ बलात्कार करने का मामला सामने आया है, वह बहुत संवेदनशील है, इसी को देखते हुए जनपद स्तर पर संचालित होने वाले स्पेशल टास्ट फोर्स के अधीन काम करने वाली एंटी ड्रग्स टास्क फोर्स को नशा मुक्ति केंद्र की गोपनीय व आकस्मिक तरीके से छापेमारी की कार्रवाई करने के निर्देश दिए गए हैं, इसके पता चल पाएगा की नशा मुक्ति केंद्रों ने ड्रग्स कहां से सप्लाई हो रही है। युवाओं में बढ़ती नशे की प्रवृत्ति को लेकर गहरी चिंता जताने वाली प्रदेश सरकार ने अपने स्तर पर एक अदद नशा मुक्ति केंद्र स्थापित करने तक की जहमत नहीं उठाई। ये तथ्य हैरान करने वाला है कि प्रदेश में सरकारी क्षेत्र का एक भी नशा मुक्ति केंद्र नहीं है। सभी नशा मुक्ति केंद्र स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से संचालित हो रहे हैं।विडंबना यह है कि राज्य गठन के 22 साल बाद भी सरकार ने इन नशा मुक्ति केंद्रों के पंजीकरण और लाइसेंस की व्यवस्था तक नहीं की। निदेशक समाज कल्याण कहते हैं,‘नशे के खिलाफ जन जागरूकता को लेकर एक विस्तृत कार्ययोजना तैयार की गई है, जिसमें नशामुक्ति केंद्रों के लाइसेंस का प्रावधान रखा गया है। यह तथ्य भी सामने आया है कि प्रदेश में जहां तहां चल रहे नशामुक्ति केंद्रों के बारे में नशा विरोधी अभियान की नोडल एजेंसी समाज कल्याण विभाग को कोई जानकारी नहीं है। विभागीय रिकार्ड के हिसाब से प्रदेश में नैनीताल, हरिद्वार, पिथौरागढ़ व चमोली में चार नशा मुक्ति केंद्र संचालित हो रहे हैं और इन सभी के संचालक गैर सरकारी संगठन हैं।यह जानकारी भी विभाग के पास इसलिए उपलब्ध है, क्योंकि इन चारों संगठनों को केंद्रीय अनुदान लेने की प्रक्रिया पूरी करने के लिए विभाग से संस्तुति करानी होती है। एनजीओ और निजी क्षेत्र द्वारा संचालित केंद्रों के अपने नियम कायदे हैं। चूंकि इन पर निगाह रखने के लिए सरकार का कोई प्रभावी तंत्र नहीं है, लिहाजा इनके भीतर चल रही गतिविधियों को लेकर उठने वाले सवालों के जवाब भी नहीं मिल पाते हैं। देहरादून में एक अधिवक्ता द्वारा आर.टी.आई. के तहत मांगी गई सूचना में यह खुलासा हुआ था कि कई केंद्रों का न तो पंजीकरण हुआ है और न ही अन्य सुविधाएं जैसे प्रशिक्षित स्टाफ, सी.सी.टी.वी. कैमरे, दैनिक रजिस्टर और शिकायती रजिस्टर हैं। यह तो केवल एक उदाहरण भर है। देश के अनेक हिस्सों में चल रहे ज्यादातर नशा मुक्ति एवं पुनर्वास केंद्र कई तरह की अनियमितताओं के शिकार हैं।
गौरतलब है कि ‘सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय’ के अंतर्गत चलने वाले ‘नशा मुक्त भारत अभियान’में कई तरह की योजनाएं क्रियान्वित की जा रही हैं। इस मंत्रालय द्वारा एक सर्वेक्षण के अनुसार देश में 60 मिलियन से अधिक नशीली दवाओं के उपयोगकर्ता हैं, जिनमें बड़ी संख्या में 10 से 17 वर्ष की आयु के युवा हैं। पूरे  देश में ‘नशा मुक्त भारत अभियान’ कई स्वैच्छिक संगठनों की भागीदारी के साथ चल रहा है। इन संगठनों को सरकार की तरफ से वित्तीय सहायता भी प्रदान की जाती है।इस अभियान के तहत कई तरह के जागरूकता कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। साथ ही स्कूलों, उच्च शिक्षण संस्थानों और विश्वविद्यालय परिसरों पर भी ध्यान केंद्रित करने का दावा किया जा रहा है। निश्चित रूप से सरकार के दावे अपनी जगह सही हैं और वह इस दिशा में काम भी करती दिखाई दे रही है। लेकिन जमीन पर दावों की हकीकत कुछ और ही दिखाई देती है। यह सही है कि इस संबंध में सरकार की मंशा पर सवाल नहीं उठाया जा सकता लेकिन सरकार की यह मंशा उसी रूप में धरातल पर भी उतरे, इसका इंतजाम सरकार को ही करना होगा।दरअसल हमें यह समझना होगा कि नशा मुक्ति केंद्रों की व्यवस्था में थोड़ी-सी भी लापरवाही इस संदर्भ में सरकारी नीतियों के ठीक ढंग से क्रियान्वयन में तो बाधा बनेगी ही, नशे की लत के शिकार युवाओं के भविष्य पर भी प्रश्नचिन्ह लगाएगी। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि सरकार कोशिश करने के बाद भी नशा मुक्ति केंद्रों की स्थिति सुधार नहीं पा रही है। इन केंद्रों में व्यवस्था ठीक न होने के कारण कई बार मरीजों एवं केंद्र संचालकों में टकराव की स्थिति भी उत्पन्न हो जाती है।देश के विभिन्न हिस्सों में कई नशा मुक्ति केंद्र तो अवैध रूप से संचालित हो रहे हैं। इन केंद्रों में तो मनोचिकित्सक की व्यवस्था होती है और न ही प्रशिक्षित कर्मचारी मनोवैज्ञानिक रूप से मरीजों का उपचार करने में सक्षम हो पाते हैं। जब मरीज का मनोवैज्ञानिक रूप से उपचार नहीं होता है तो वह भी जल्दी ही इन केंद्रों से अपना पीछा छुड़ाने की कोशिश करने लगता है। फलस्वरूप मरीज की स्थिति ‘न घर के, न घाट के’ वाली हो जाती है। ऐसे केंद्र मनोवैज्ञानिक रूप से उपचार करने का दावा तो करते हैं लेकिन इस प्रक्रिया को गंभीरता के साथ क्रियान्वित नहीं कर पाते।हालांकि कई नशा मुक्ति केंद्रों के संचालक यह शिकायत भी करते रहते हैं कि उन पर इतने नियम-कानून लाद दिए जाते हैं कि व्यावहारिक रूप से उन्हें पूरा करना संभव नहीं हो पाता। इस व्यवस्था से जो केंद्र संचालक ईमानदारी से इस क्षेत्र में काम करना चाहते हैं वे हतोत्साहित होते हैं। बहरहाल अब समय आ गया है कि सरकार और केंद्र संचालक व्यवहारिकता और ईमानदारी से इस दिशा में काम करें ताकि सार्थक परिणाम सामने आ सकें।

लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।

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