बाईस साल बाद भी सपनों की राजधानी गैरसैंण अधूरे हैं राज्य के लिए संघर्ष करने वाले आंदोलनकारियों के सपने डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

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गैरसैंण को स्थाई राजधानी बनाने की मांग साठ के दशक में पहली बार उठी थी। इस मांग को उठाने
वाले कोई और नहीं, बल्कि पेशावर कांड के महानायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली थे। यही वजह रही कि
उत्तराखंड क्रांति दल ने उस दौर में गैरसैंण को गढ़वाली के नाम पर चंद्रनगर रखा था। उत्तराखंड
आंदोलनकारियों के मन में तीन बातें घूम रही थी. उत्त प्रदेश से अलग होने पर इस क्षेत्र को
इसकी संसाधनों पर विकसित करेंगे. इसके लिए पर्यटन, बागवानी, जल स्त्रोत, योग, आयुर्वेद
जडी बूटी, पांरपरिक लघु उद्यम, शिक्षा और होटल रेस्त्रा तमाम चीजों से बहतर राज्य के
रूप में आगे लाया जाएगा. कहीं न कहीं पड़ोसी हिमाचल ने अपनी स्थापना के साथ ही
अपने आधार पर जिस तरह विकास किया उसकी कोई कल्पना लोगों के मन में थी. इसके
लिए लोगों के मन में अपेक्षा थी कि राज्य बनने ही गांवों कस्बों का विकास होने लगेगा.
लेकिन सरकारी आंकडों के उलट उम्मीद धरी रह गई. उत्तराखंड के दूरदराज के गांवों के लिए
देहरादून और तरा के दूसरे शहर उसी तरह अपरिचित बने रहे जैसे कभी वह लखनऊ दिल्ली
को देखते थे. इन स्थितियों में लोगों में यह भावना उमड़ी है कि देहरादून को राजधानी
बनाकर राज्य संवर नहीं सकता. वही हालात बने रहेंगे.देहरादून राजधानी के रूप में सामने
आई तो कई विसंगतियां बढती गई. राज्य में खनन होता रहा. उर्जा स्वास्थ्य शिक्षा के
विभाग चरमराए. राज्य गति नहीं पकड़ सका. ऐसे में अब उत्तराखंड के लोगों को यही
उम्मीद लगती है कि शायद उत्तराखंड के पहाडों में राजधानी बने तो स्थिति संभलेंगी. इसके
लिए आंदोलन यात्राएं हो रही हैं. शहरों में भी पर्चे बांटते लोग दिख रहे हैं. गैरसैण की बात
केवल गांवों से नहीं हो रही, बल्कि मुबई दिल्ली जैसे शहरों से भी सामजिक संस्थाएं गैरसैण
के लिए यात्राएं निकाल है. उत्तरप्रदेश से एक अलग राज्य उत्तराखंड बनाने के साथ ही उसकी
राजधानी गैरसैंण को बनाने की मांग उठने लगी थी। राज्य आंदोलनकारियों और उत्तराखंड
क्रांति दल ने समय-समय पर इसकी मांग के लिए आंदोलन तेज किया। उनका अलग राज्य
गठन का ये संघर्ष 9 नवंबर 2000 को खत्म हुआ और उत्तराखंड को राज्य का दर्जा मिला।
हालांकि फिर उत्तराखंड की राजधानी गैरसैंण न होकर देहरादून (अस्थाई) बन गई। इसको

लेकर फिर से आंदोलन शुरू हुए और राज्य आंदोलनकारियों ने 'पहाड़ी प्रदेश की राजधानी
पहाड़ हो' का नारा बुलंद किया। इसलिए गैरसैण को जनभावनाओं की राजधानी भी कहा
जाने लगा।उत्तराखंड की भौगोलिक स्थिति के अनुसार इसका 65 प्रतिशत क्षेत्र पर्वतीय और
35 प्रतिशत क्षेत्र मैदानी है। उत्तराखंड राज्य आंदोलन के समय भी गैरसैण को प्रस्तावित
राजधानी माना गया था। इधर उत्तराखण्ड के प्रबुद्ध सामाजिक संगठनों ने भी गैरसैण को ही
प्रस्तावित राजधानी के रूप में शामिल किया। उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन के समय प्रमुख नारे
“आज दो अभी दो, उत्तराखण्ड राज्य दो” नारे में भी राज्य निर्माण व गैरसैण को स्थाई
राजधानी बनाने की परिकल्पना ही लोगों के मन में विद्यमान थी। उत्तराखण्ड क्रांति दल ने
1992 में गैरसैण को उत्तराखंड की औपचारिक राजधानी तक घोषित कर दिया था। यही नहीं,
आंदोलनकारी ने पेशावर कांड के महानायक वीर चंद्रसिंह गढ़वाली के नाम पर गैरसैण में एक
पत्थर रख इसका नाम चंद्रनगर रख दिया था।सन 1994 में गैरसैंण राजधानी को लेकर
157 दिन का क्रमिक अनशन किया गया। जिसे देखते हुए सन 1994 में उत्तरप्रदेश के
तत्कालीन सरकार द्वारा रमाशंकर कौशिक की अगुवाई में एक समिति का गठन किया गया
था, इस समिति द्वारा सरकार को जो रिपोर्ट दी गई उसमें उत्तराखण्ड राज्य के साथ- साथ
गैरसैण राजधानी की भी अनुशंसा की गयी थी।09 नवंबर 2000 को उत्तराखण्ड राज्य के
अस्तित्व में आने के बाद गैरसैण राजधानी की मांग राज्य भर में उठने लगी। सन 2002 में
गैरसैण राजधानी आंदोलन के लिए श्रीनगर में ‘उत्तराखण्ड महिला मोर्चा’ ने रैली निकाली और
‘गैरसैण राजधानी आंदोलन समिति’ का गठन किया।बाबा मोहन उत्तराखण्डी ने तो लगभग
13 बार इस मुद्दे को लेकर भूख हड़ताल की तथा साल 2004 में इसी माँग को लेकर
लगातार 38 दिनों तक भूख हड़ताल में रहने के बाद उन्होंने अपने प्राणो का बलिदान दे
दिया। इसी को देखते हुए सरकार द्वारा इस मुद्दे को सुलझाने के लिए दीक्षित आयोग का
गठन किया गया।दीक्षित आयोग द्वारा राजधानी के सर्वश्रेष्ठ स्थल चयन हेतु 5 स्थलों को
चिन्हित किया। जिनमें देहरादून, काशीपुर , रामनगर, ऋषिकेश, और गैरसैण का नाम
उल्लेखित था। दीक्षित आयोग द्वारा गठित समिति द्वारा 80 पृष्ठों की रिपोर्ट 17 अगस्त
2008 को उत्तराखण्ड विधान सभा में पेश की गयी। इस रिपोर्ट में दीक्षित आयोग द्वारा
देहरादून को राजधानी के लिए योग्य पाया गया तथा भौगोलिक परिस्थिति तथा भूकंपीय
आंकड़ों का हवाला देकर गैरसैंण को अनुपयुक्त घोषित कर दिया।2012 में उत्तराखंड सरकार
द्वारा गैरसैण में एक केबिनेट बैठक का आयोजन किया। इस बैठक के बाद सन 2013 में
गैरसैण जी0 आई0 सी0 मैदान में विधानसभा भवन का शिलान्यास किया गया तथा गैरसैण
के 14 किलोमीटर दूर भराड़ीसैण में विधानसभा का भूमि पूजन कार्यक्रम किया गया। सन

2014 में इसी भवन में तीन दिवसीय विधानसभा सत्र का आयोजन किया गया जो मात्र डेढ़
दिनों में ही समाप्त हो गया था।दीक्षित आयोग द्वारा गठित समिति द्वारा जिस क्षेत्र को
राजधानी हेतु अनुपयुक्त पाया गया था, वर्ष 2013 की विनाशकारी आपदा में उस क्षेत्र को
कोई नुकसान नहीं हुआ। सर्वप्रथम इसी क्षेत्र की सड़कें ठीक हो पाई जिसमें यातायात
व्यवस्था द्वारा राशन, चिकित्स्य या अन्य प्रकार की मदद लोगो तक पहुंच सकी।गैरसैण में
राजधानी न बनने से इस क्षेत्र से लोगों का पलायन बहुत हो रहा था। यदि गैरसैण को स्थाई
राजधानी बना दिया जाता तो उस दिशा में इस क्षेत्र में अच्छे स्कूलों का निर्माण होता। यदि
शासन-प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारी इस क्षेत्र में रहते तो चिकित्सा, यातायात और रोज़गार
के क्षेत्र में नई- नई सुविधाओं की उपलब्धता होती और दुरूह क्षेत्र में रहने वाले ग्रामीणों को
भी सरकारी सुविधाओं का लाभ मिल पाता। पहाड़ के बहुत लोग देहरादून नहीं जा पाते या यूँ
कह लीजिए कि उनकी पहुंच सचिवालय या विधानसभा तक नहीं होती जिस कारण कई लोग
अपने कार्य नहीं करवा पाते। यदि सरकार द्वारा इसको ग्रीष्मकालीन राजधानी की जगह
स्थाई राजधानी घोषित कर दिया गया होता तो इस क्षेत्र में रोज़गार, चिकित्सा, पर्यटन व
यातायात की बहुत सुविधा मिल जाती। अन्य राज्यों के और विदेशी प्रतिनिधि मंडल जो
सरकार से मिलने आते हैं या सरकार के साथ मिलकर कार्य करते हैं उनके इस क्षेत्र में आने
से पर्यटन व्यवसाय को बहुत फ़ायदा हो सकता है।उत्तराखण्डी के सपनों की राजधानी गैरसैंण
07.53 वर्ग किलोमीटर का यह क्षेत्र है जो समुद्र तट से 5741 फीट की ऊंचाई पर स्थित है।
इसको राजधानी के रूप में देखने का सपना 60 के दशक में पेशावर कांड के नायक चंद्रसिंह
गढ़वाली द्वारा देखा गया था। इसलिए उन्हीं के नाम से इस क्षेत्र को चंद्रनगर भी कहा जाने
लगा।स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार के मुद्दों को लेकर राज्य की जनता आए दिन सड़कों पर
रहती है। पहाड़ी राज्य की भौगोलिक परिस्थितियों के हिसाब से उत्तराखंड में योजनाओं को
लागू करने में कई तरह की समस्याएं भी आती हैं।लेकिन जब भी सरकार की इच्छा शक्ति
हुई तो योजना ने परवान चढ़ी, लेकिन जब भी राज्य सरकार वोटबैंक और अपने राजनीतिक
लाभ के लिए विकास कार्यों को टालती रही तो इसका नुकसान भी जनता को उठाना पड़ा है।
आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार सरकारों के लिए बड़ी चुनौती बना हुआ है। उत्तराखंड
स्थापना दिवस 22 साल से राजधानी और भू कानून का मुद्दा बरकरार आज उत्तराखंड को
बने 22 साल पूरे हो चुके हैं. उत्तराखंड अपने 23वें साल में प्रवेश कर गया है. लेकिन
विडंबना देखिए कि 22 के उत्तराखंड के सपने आज भी अधूरे हैं. गैरसैंण स्थाई राजधानी, भू
कानून और पहाड़ में विकास की गंगा आज भी सपना बना हुआ है. उत्तराखंड स्थापना
दिवसः 22 साल से राजधानी और भू कानून का मुद्दा बरकरार आज उत्तराखंड को बने 22

साल पूरे हो चुके हैं. उत्तराखंड अपने 23वें साल में प्रवेश कर गया है. लेकिन विडंबना देखिए
कि 22 के उत्तराखंड के सपने आज भी अधूरे हैं. गैरसैंण स्थाई राजधानी, भू कानून और
पहाड़ में विकास की गंगा आज भी सपना बना हुआ है.ऐसे में जिस उदेश्य के साथ राज्य का
गठन किया गया था, वो सपना अभी भी अधूरा लग रहा है.
लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।

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