उत्तराखंड में प्राकृतिक संसाधनों पर जनता के हक की लड़ाई तिलाड़ी कांड डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

 

क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार.
मिट्टी, पानी और बयार,  जिन्दा रहने के आधार.
तिलाड़ी कांड एक माह या एक साल में उपजा आंदोलन नहीं था। ब्रिटिश सरकार  ने वनो के अनियमित दोहन को रोकने के लिए वन सम्पदा दोहन के अधिकार आपने हाथ में ले लिए। इसी को आगे बढ़ाते  हुए ,टिहरी रियासत ने 1885 में वन बंदोबस्त शुरू किया। और 1927 में रवाई घाटी में भी वन बंदोबस्त शुरू कर दिया गया।  इसमें ग्रामीणों के जंगलों  अधिकार ख़त्म कर दिए। वन संपदा के प्रयोग पर कर लगा दिए गए। पारम्परिक त्योहारों पर भी रोक लगा दी गई।  एक भैस एक गाय और एक जोड़ी बैल से अधिक पशु रखने पर एक पशु पर एक रूपये साल का कर थोप दिया गया। इसकी वजह से रवाई घाटी के स्थानीय लोगों में रोष बढ़ने लगा। नए वन बंदोबस्त में वनो पे पशु चराने पर शुल्क , नदियों में मछली मरना भी बंद करवा दिया। आलू की उपज पर प्रतिमन एक रुपया कर लगा दिया। इस प्रकार के कर जनता के ऊपर थोप दिए गए। इससे जनता में आक्रोश फ़ैल गया।उत्तराखंड के इतिहास में तिलाड़ी को याद करने का मतलब है, प्रतिकार की एक सशक्त धारा को याद करना. एक ऐसे समय और व्यक्तियों को भी याद करना जो अपनी थाती को बचाने के लिये लड़ने और सच के साथ खड़े होने की ताकत से भरे हैं. उत्तरकाशी की यमुना घाटी में स्थित बडकोट के पास है तिलाड़ी. टिहरी रियासत ने जनता के हक-हकूकों को छीनने के लिये दमनकारी नीतियों का सहारा लिया था. इसके खिलाफ जनता तिलाड़ी के मैदान में रणनीति बनाने के लिये सभा कर रही थे. लोगों का गुस्सा भी बढ़ रहा था. दमनकारी नीतियों, नौकरशाही, बेगार, प्रभु सेवा, बढ़े हुये करों से भी यह प्रतिकार जुड़ा था. देश में आजादी के आंदोलन की हलचल का प्रभाव भी इस आंदोलन में था. रवांई घाटी में रियासती प्रशासन के दमन के खिलाफ हालांकि प्रतिकार के स्वर 1820 से ही शुरू हो गये थे. 1835 में सकलाना तथा रवांई में आंदोलन चला. 1851 में सकलाना की अठूर पट्टी में आंदोलन हुआ. उस समय गन्तूर, रामसिराई और रंवाई में ढंढक दबाये गये. राजशाही के क्रूर दमन के खिलाफ जनवरी 1887 को ढंढक हुआ. कुजड़ी में 1903 में ढंढक हुई. 1906 में खास पट्टी में ढंढक हुई. 1915 में जंगलाती बंदोबस्त तथा सौण्या सेर एवं बिसाउ प्रथा के खिलाफ कडाकोट, रमोली और सकलाना पट्टियों में हुआ. उसके बाद 1927-28 में नये वन बंदोबस्त द्वारा जंगलात के अधिकारों को सीमित किया गया. इससे रंवाई प्रतिरोध की पृष्ठभूमि बनी. इस दौर में राजगढ़ी वन आंदोलन चला. मई 1930 में रंवाई में जिस आंदोलन की अभिव्यक्ति हुई वह न तो एकएक हुई घटना थी और न सिर्फ वन अधिकारों को सीमित करना ही उसका अकेला कारण था. जंगलात की नई व्यवस्था के अन्तर्विरोधों तथा रवांई की जनता को इसने असंतोष को अतिरिक्त ऊर्जा दी.खैर, इस पर लंबी बातचीत होगी. फिलहाल तिलाड़ी के शहीदों पर. 1927-28 में टिहरी राज्य में जो वन व्यवस्था की गई उसमें वनों की सीमा निर्धारित करते समय ग्रामीणों के हितों की जान-बूझ कर अवहेलना की गई, इससे वनों के निकट के ग्रामों में गहरा रोष फैल गया. रवांई परगने में वनों की जो सीमा निर्धारित की गई उसमें ग्रामीणों ने आने-जाने के रास्ते, खलिहान और पशुओं के बांधने के स्थान भी वन सीमा में चले गये. जिससे ग्रामीणों के चरान, चुगान और घास-लकड़ी काटने के अधिकार बंद हो गये. वन विभाग की ओर से आदेश दिये गये कि सुरक्षित वनों में ग्रामीणों को कोई अधिकार नहीं दिये जा सकते.टिहरी रियासत की वन विभाग की नियमावली के अनुसार राज्य के समस्त वन राजा की व्यक्तिगत सम्पत्ति मानी जाती थी, इसलिये कोई भी व्यक्ति किसी भी वन्य जन्तु को अपने अधिकार के रूप में बिना मूल्य के प्राप्त नहीं कर सकता. यदि राज्य की ओर से किसी वस्तु को निःशुल्क प्राप्त करने में छूट दी जायेगी तो वह महाराजा की विशेष कृपा पर दी जायेगी. जो सुविधायें वनों में जनता को दी गई है, उन्हें महाराजा स्वेच्छानुसार जब चाहे रद्द कर सकेंगे. उस समय आज की जैसी सुविधायें नहीं थी, पशुओं से चारे से लेकर कृषि उपकरणों से लेकर बर्तनों तक के लिये भी लोग जंगलों पर ही आश्रित थे, लेकिन जब जनता शासन तंत्र से पूछती कि जंगल बंद होने से हमारे पशु कहां चरेंगे? तो जबाब आता था कि ढंगार (खाई) में फेंक दो. यह बेपरवाह उत्तर ही वहां के लोगों के विद्रोह की चिंगारी बनी. टिहरी रियासत के कठोर वन नियमों से अपने अधिकारों की रक्षा के लिये रवांई के साहसी लोगों नें ‘आजाद पंचायत’ की स्थापना की और यह घोषणा की गई कि वनों के बीच रहने वली प्रजा का वन सम्पदा के उपभोग का सबसे बड़ा अधिकार है. उन्होंने वनों की नई सीमाओं को मानने से अस्वीकार कर दिया तथा वनों से अपने उपभोग की वस्तुयें जबरन लाने लगे.इस प्रकार से रंवाई तथा जौनपुर में ग्रामीणों का संगठन प्रबल हो गया, आजाद पंचायत की बैठक करने के लिये तिलाड़ी के थापले में चांदाडोखरी नामक स्थान को चुना गया. इस प्रकार वन अधिकारों के लिये आन्दोलन चरम बिन्दु पर 30 मई, 1930 को पहुंचा, तिलाड़ी के मैदान में हजारों की संख्या में स्थानीय जनता इसका विरोध करने के लिये एकत्रित हुई और इस विरोध का दमन करने के लिये टिहरी रियासत के तत्कालीन दीवान चक्रधर दीवान के नेतृत्व में सेना भी तैयार थी. आजाद पंचायत को मिल रहे जन समर्थन की पुष्टि हजारों लोगों का जनसमूह कर रहा था, इससे बौखलाये रियासत के दीवान ने जनता पर गोली चलाने का हुक्म दिया. जिसमें अनेक लोगों की जानें चली गई और सैकड़ों घायल हो गये. तिलाड़ी गोली कांड के 88 वर्ष पूरे हो चुके हैं लेकिन जनता द्वारा प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार के लिये की जा रही माँग को दबाने के उद्देश्य से अंजाम दिये गए इस कांड की याद आज भी उत्तराखण्ड के बाशिन्दों के जेहन में ताजा है। 30 मई 1930 को हुए इस गोली कांड में शहीद हुए लोगों का बस इतना कसूर था कि वे तत्कालीन टिहरी के राजा की आज्ञा के बिना ही अपने हक-हकूक के लिये महापंचायत कर रहे थे। प्रदेश की यमुना घाटी में हुआ यह गोली कांड दर्शाता है कि तत्कालीन समय में भी वहाँ की जनता वनों और उन पर अपने अधिकार को लेकर सजग थी। यही वजह है कि यह क्षेत्र आज भी वन सम्पदा से परिपूर्ण है।उत्तरकाशी जनपद के बड़कोट नगरपालिका के अर्न्तगत तिलाड़ी यमुना नदी के किनारे बसा का वह स्थान जहाँ टिहरी के राजा के कारिन्दों ने सैकड़ों लोगों को गोलियों से भून डाला था। लोग वहाँ राजा से गौचुगान की जगह को प्रतिबन्ध से बाहर करने की माँग को लेकर इकठ्ठा हुए थे। वे जंगलों से घास, लकड़ी, पत्ती चुनने के अधिकार को बहाल करने की माँग कर रहे थे। टिहरी के राजा द्वारा लोगों के इस अधिकार पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। लोगों का तर्क था कि जंगल की सुरक्षा जब वे ही करते हैं तो उससे जुड़े संसाधनों पर राजा का प्रतिबन्ध क्यों? इसी विषय पर मंथन के लिये लोग तिलाड़ी में महापंचायत करने के लिये जमा हुए थे जिसकी भनक राजा के कारिन्दों को लग गई। जिसके बाद वहाँ जमा लोगों को राजा की सेना ने घेर लिया और उन्हें अपनी जान बचाने का भी मौका नहीं मिला। सेना ने उन्हें तीन तरफ से घेर रखा था जबकि चौथी तरफ यमुना नदी उफान पर थी। राजा के सैनिकों ने निहत्थी जनता पर खूब गोलियाँ दागीं जिससे सैकड़ों लोग शहीद हो गए। तिलाड़ी प्रकरण को इतिहास के पन्नों में प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण का आन्दोलन करार दिया गया है।बता दें कि सन 1949 के बाद हर वर्ष 30 मई को बड़कोट तहसील में यमुना नदी के किनारे स्थित तिलाड़ी में शहीद दिवस मनाया जाता है। इतना ही नहीं प्रोफेसर आर. एस. असवाल के नेतृत्व में वर्ष 2006 में इस गोली कांड के नाम पर ‘‘तिलाड़ी स्मारक सम्मान समिति’’ का गठन किया गया। समिति द्वारा हर साल किसी विशेष क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान देने वाले व्यक्ति को ‘‘तिलाड़ी सम्मान’’ से सम्मानित किया जाता है।इस आयोजन की अपनी ही खासियतें हैं। पहली कार्यक्रम का मुख्य अतिथि वही होता है जिसे समिति द्वारा सम्मानित करने के लिये चुना जाता है। इसके अलावा कार्यक्रम की अध्यक्षता करने के लिये शहीदों के परिजनों में से किसी एक को आमंत्रित किया जाता है। विशुद्ध रूप से यह आयोजन सामाजिक सरोकार से जुड़े लोगों के लिये समर्पित है। इसकी दूसरी खासियत है इसमें शामिल होने वाले लोग यमुना घाटी के संरक्षण से सम्बन्धित किसी गम्भीर मुद्दे पर अपना पक्ष प्रस्तुत करते हैं और उससे सम्बन्धित प्रस्ताव पर अपनी मंजूरी देते हैं। इसके अलावा लोग हर वर्ष पेड़, पानी और पर्यावरण संरक्षण से जुड़े मुद्दों पर मिलकर काम करने की शपथ लेते हैं। यही वजह है कि राज्य में सर्वाधिक सघन वन यमुना घाटी में ही मौजूद हैं।यमुना घाटी में ही पली-बढ़ी राज्य महिला आयोग की पूर्व अध्यक्षा कहती हैं कि सम्मान देना जितना ही आसान है उतना ही कठिन है सम्मानित किये जाने वाले लोगों का चयन। उन्होंने कहा कि तिलाड़ी के नाम पर दिया जाने वाला सम्मान इसे हासिल करने वाले लोगों को किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिये संघर्ष करने की प्रेरणा देता है। तिलाड़ी आन्दोलन की प्रासंगिकता न सिर्फ वनोंत्पाद पर हक-हकूक की बहाली से जुड़ी है बल्कि 30 मई 1930 के बाद ही पहाड़ के लोगों ने बड़ी संख्या में भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में शिरकत किया। वे कहते हैं कि ऐसा इसलिये भी था कि तिलाड़ी गोली कांड जलियावाला बाग कांड के ही समान था। पूर्व जिला पंचायत अध्यक्ष कहते हैं कि तिलाड़ी गोली कांड राजशाही के खिलाफ सबसे बड़ी जंग बनकर सामने आया जिसके सबसे बड़े पक्षधर श्रीदेव सुमन रहे। पत्रकार कहते हैं तिलाड़ी में शहीद हुए रणबांकुरों की सन्तानें उत्तराखण्ड की यमुना घाटी को इकोनोमिक घाटी के नाम से विख्यात कर रहे हैं और सेव सहित नगदी फसल के उत्पादन का झंडा देश भर में बुलन्द कर रहे हैं।30 मई वो तारीख है जिस दिन उत्तराखंड से संबंध रखने वाले हर एक इंसान की आंखें नम हो जाती है. इस तारीख को एक क्रूर राजा ने उस नरसंहार को अंजाम दिया थामामूली अपराधों में सजा काट रहे जौनपुर के कैदी कुछ माह बाद ही जब जेल से बाहर खुले आसमान के नीचे आये तो उनके आंखों में अपने क्षेत्र को सोवियत में बदलने का क्रांतिकारी सपना था. लिहाजा, वो सीधे अपने क्षेत्र में गये और सोवियतों (आजाद पंचायत) के बारे में राजशाही से पीड़ित जनता को बताया. अब सभी आजाद सोवियत का सपना देखने लगा.यहीं से तिलाड़ी क्रांति की नींव पड़ी. उस वक्त के दस्तावेजों पर अगर गौर किया जाये तो तिलाड़ी के लोगों ने राजशाही के सामानंतर आजाद पंचायत का गठन कर लिया था. याद रहे, ये देश की पहली आजाद पंचायत थी, जिसकी अवधारणा रूस की सोवियत से लिया गया. बाद में इसी आजाद पंचायत को कुचलने के लिये तिलाड़ी कांड हुआ. उसी दौरान टिहरी के राजा नरेंद्र शाह ने भी कार्ल मार्क्स को पढ़ना शुरू किया. राजा नरेंद्र शाह की वो किताबें राजपुर रोड स्थित उनके परिवार के एक सदस्य की लाईब्रेेरी में भी है.मेरठ षडयंत्र से तिलाड़ी नरसंहार का इतिहास में अभी कई शोध होने बाकी है लेकिन, अगर कोई देहरादून जेल के दस्तावेजों को खंगाले तो उस वक्त के रिकॉर्ड में जौनपुर के उन कैदियों की सूची मिल सकती है, जिससे ये एक छुपा हुआ इतिहास सामने आ सकता है. मैं कवायदों में जुटा हूं. देखते हैं कितना सफल हो पाता हूं. सवाल बस ये है कि तिलाड़ी की जनता ने कैसे आज़ाद पंचायत का नारा दिया जिसके ज़ख्म आज भी ताज़ा हैं. तिलाड़ी कांड में अपने प्राणों की आहुति देने वाले शहीदों को भावपूर्ण श्रद्धांजलि!

लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।

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