हिन्दी के प्रथम डी. लिट डॉ पीतांबर दत्त बड़थ्वाल

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड की संस्कृति को जानेंगे विदेशी मेहमान

डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
डाॅ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल का जन्म पौड़ी जनपद के लैंसडाउन से तीन किलोमीटर दूर कोडिया पट्टी के पाली गांव में 13 दिसंबर, 1901 में हुआ था। उनके पिता का नाम पं. गौरीदत्त बड़थ्वाल था। वे अच्छे ज्योतिष और कर्मकांडी विद्वान थे। बहुत शुरुआती समय में उन्होंने घर में ही संस्कृत की पुस्तकों का अध्ययन शुरू कर दिया था। और ‘अमरकोष’ जैसे ग्रन्थ पढ़ डाले। जब वे मात्र दस साल के थे उनके पिता का निधन हो गया। उनके ताऊ पं. मणिराम बड़थ्वाल ने उनका पालन-पोषण किया। उनकी कोई संतान नहीं थी। पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल जी की प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हुई। आगे की पढ़ाई के लिये वे श्रीनगर चले गये, लेकिन वहां से उन्हें बहुत जल्दी लखनऊ जाना पड़ा। यह उनके जीवन का नया मोड़ था। यहां 1920 में कालीचरण हाईस्कूल से उन्होंने सम्मान के साथ मैट्रिक और हाईस्कूल की परीक्षा पास की। उन दिनों इस विद्यालय में हिन्दी के सुप्रसिद्ध विद्वान, आलोचक श्यामसुन्दर दास प्रधानाध्यापक थे। उनके सान्निध्य में आने के बाद उनका हिन्दी भाषा और साहित्य की यात्रा का मार्ग प्रशस्त हुआ। इसके बाद वे कानपुर चले गये और यहां के डीएवी कालेज से 1922 में इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण की। कानपुर प्रवास के दौरान उनका संपर्क अन्य गढ़वाली छात्रों के साथ हुआ। सबने निश्चय किया कि पर्वतीय छात्रों का एक संगठन बनाया जाय और ‘हिलमैन’ नाम से पत्र निकाला। वे जितनी अच्छी हिन्दी और संस्कृत लिखते थे, अब अंग्रेजी भी उतनी ही अच्छी और अबाध गति से लिखने लगे।आगे की पढ़ाई के लिये बनारस हिन्दू विश्विद्यालय में प्रवेश लिया। यहां बीमार पड़ने के कारण गांव आना पड़ा। स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण दो साल तक गांव में ही रहना पड़ा। उनका 1922 से 1924 तक का समय बहुत बुरा रहा। पिता के निधन के बाद जिन ताऊ ने उन्हें अपनी छाया दी थी उनका भी निधन हो गया। इस बीच उन्होंने ‘अम्बर’ उपनाम से कवितायें लिखना शुरू कर दिया। उनकी कवितायें ‘पुरुषार्थ’ मासिक में छपने लगी। इस बीच गढ़वाल में पड़े अकाल में अपने साथियों के साथ मिलकर असहाय, भूखे और ज़रूरतमंदों की सेवा की। तब ‘पुरुषार्थ’ में उनकी एक कविता प्रकाशित हुई-
अन्यायियों का वज्र बनकर कर विभंजक हे ह्रदय,
पर दीनजन दुःख ताप सम्मुख मोम बन तू हे ह्रदय,
सम्राट तू बन, इंद्रियां हों तव प्रजाजन हे ह्रदय,
सत्कार्य में संलग्न सतत भूल तन-मन हे ह्रदय।
वे दुबारा बनारस गये और 1926 में बीए की परीक्षा उत्तीर्ण की। तब श्यामसुन्दर दास यहां हिन्दी के विभागाध्यक्ष थे। उसी साल विश्वविद्यालय में एमए हिन्दी की कक्षाएं शुरू हुई। वे हिन्दी के पहले बैच के विद्यार्थी के रूप में नामांकित हुये। उन्होंने 1928 में प्रथम श्रेणी में एमए की परीक्षा पास की। इस परीक्षा में उन्होंने ‘छायावाद’ पर विस्तृत और विद्वतापूर्ण निबंध लिखा। उससे श्यामसुन्दर दास बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने इस निबंध को विश्वविद्यालय की ओर से छपाना चाहा, लेकिन विश्वविद्यालय में ऐसा कोई प्रावधान न होने से यह संभव नहीं हो पाया। श्याम सुन्दर दास ने उनके इस विषय को शोध के लिये चुन लिया। वे अपने शोध कार्य में लग गये। इसी बीच 1930 में उनकी नियुक्ति विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक के तौर पर हो गयी। उन्होंने 1929 में एलएलबी परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली। उनके शोध कार्य और अध्ययन को देखते हुये ‘काशी नागरी प्रचारिणी सभा’ ने अपने यहां उन्हें शोध विभाग का अवैतनिक संचालक नियुक्ति किया। इस काम को करते हुये उन्होंने बहुत वैज्ञानिक तरीके से कई महत्वपूर्ण ग्रन्थों की तालिकायें तैयार कीं। इस दौरान वे अपने शोध की तैयारी में लगे रहे। दो-तीन वर्षों के अथक परिश्रम के बाद उन्होंने 1931 में अपना शोध प्रबंध विश्वविद्यालय में जमा किया। उनके शोध का विषय था- ‘हिन्दी काव्य में निर्गुणवाद।’ इस शोध के परीक्षक थे- ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में उर्दू-हिन्दी के विभागाध्यक्ष डाॅ. टी ग्राहम वैली, प्रयाग विश्वविद्यालय के दर्शन शास्त्र विभाग के प्रो. रामचंद्र दत्तात्रेय और श्याम सुन्दर दास। डाॅ. वैली ने इसे पीएचडी के लिये ही उपयुक्त माना। उन्होंने दुबारा इसमें संशोधन कल प्रस्तुत किया। उन्हें 1933 में विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में डी-लिट की उपाधि दी गई। इसके साथ ही वे हिन्दी विषय में ‘डाक्टरेट’ करने वाले पहले शोधार्थी बन गये। इसके साथ ही उनकी ख्याति भी बढ़ने लगी। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनके शोधपरक लेख प्रकाशित होने लगे। उनकी गिनती हिन्दी के बड़े विद्वानों में होने लगी और उन्हें कई सम्मेलनों में बुलाया जाने लगा।पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल के पास शोध का व्यापक फलक था। हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी के असाधारण विद्वान होने के कारण उनका शोध और अध्ययन बहुत गहरा था। एक तरह से उन्होंने आजादी से पहले अपने शोध से हिन्दी के लिए नये रास्ते और संभावनाएं तलाशी। उनका शोध प्रबंध ‘निर्गुण स्कूल इन हिन्दी पोयट्री’ शैक्षिक अनुसंधान के लिये मील का पत्थर थी। उन्होंने कबीर को पूर्ववर्ती सिद्ध संप्रदाय से जोड़कर इतिहास की अन्तवर्ती धारा को पाटने का काम किया। डाॅ. बड़थ्वाल का काम इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि उन्होंने ऐसे समय पर यह शोध किया जब संतवाणियां प्रकाशित नहीं थी। उन्होंने सबसे पहले यह स्थापित किया कि नाथ, सिद्ध और संतकवि उपनिषदों के घाट पर बहते योग प्रवाह में डुबकी लगाकर खड़े हैं। डाॅ. पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल का जन्म पौड़ी जनपद के लैंसडाउन से तीन किलोमीटर दूर कोडिया पट्टी के पाली गांव में 13 दिसंबर, 1901 में हुआ था। उनके पिता का नाम पं. गौरीदत्त बड़थ्वाल था। वे अच्छे ज्योतिष और कर्मकांडी विद्वान थे। बहुत शुरुआती समय में उन्होंने घर में ही संस्कृत की पुस्तकों का अध्ययन शुरू कर दिया था। और ‘अमरकोष’ जैसे ग्रन्थ पढ़ डाले। जब वे मात्र दस साल के थे उनके पिता का निधन हो गया। उनके ताऊ पं. मणिराम बड़थ्वाल ने उनका पालन-पोषण किया। उनकी कोई संतान नहीं थी। पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल जी की प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हुई। आगे की पढ़ाई के लिये वे श्रीनगर चले गये, लेकिन वहां से उन्हें बहुत जल्दी लखनऊ जाना पड़ा। यह उनके जीवन का नया मोड़ था। यहां 1920 में कालीचरण हाईस्कूल से उन्होंने सम्मान के साथ मैट्रिक और हाईस्कूल की परीक्षा पास की। उन दिनों इस विद्यालय में हिन्दी के सुप्रसिद्ध विद्वान, आलोचक श्यामसुन्दर दास प्रधानाध्यापक थे। उनके सान्निध्य में आने के बाद उनका हिन्दी भाषा और साहित्य की यात्रा का मार्ग प्रशस्त हुआ। इसके बाद वे कानपुर चले गये और यहां के डीएवी कालेज से 1922 में इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण की। कानपुर प्रवास के दौरान उनका संपर्क अन्य गढ़वाली छात्रों के साथ हुआ। सबने निश्चय किया कि पर्वतीय छात्रों का एक संगठन बनाया जाय और ‘हिलमैन’ नाम से पत्र निकाला। वे जितनी अच्छी हिन्दी और संस्कृत लिखते थे, अब अंग्रेजी भी उतनी ही अच्छी और अबाध गति से लिखने लगे।आगे की पढ़ाई के लिये बनारस हिन्दू विश्विद्यालय में प्रवेश लिया। यहां बीमार पड़ने के कारण गांव आना पड़ा। स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण दो साल तक गांव में ही रहना पड़ा। उनका 1922 से 1924 तक का समय बहुत बुरा रहा। पिता के निधन के बाद जिन ताऊ ने उन्हें अपनी छाया दी थी उनका भी निधन हो गया। इस बीच उन्होंने ‘अम्बर’ उपनाम से कवितायें लिखना शुरू कर दिया। उनकी कवितायें ‘पुरुषार्थ’ मासिक में छपने लगी। इस बीच गढ़वाल में पड़े अकाल में अपने साथियों के साथ मिलकर असहाय, भूखे और ज़रूरतमंदों की सेवा की। तब ‘पुरुषार्थ’ में उनकी एक कविता प्रकाशित हुई-
अन्यायियों का वज्र बनकर कर विभंजक हे ह्रदय,
पर दीनजन दुःख ताप सम्मुख मोम बन तू हे ह्रदय,
सम्राट तू बन, इंद्रियां हों तव प्रजाजन हे ह्रदय,
सत्कार्य में संलग्न सतत भूल तन-मन हे ह्रदय।
वे दुबारा बनारस गये और 1926 में बीए की परीक्षा उत्तीर्ण की। तब श्यामसुन्दर दास यहां हिन्दी के विभागाध्यक्ष थे। उसी साल विश्वविद्यालय में एमए हिन्दी की कक्षाएं शुरू हुई। वे हिन्दी के पहले बैच के विद्यार्थी के रूप में नामांकित हुये। उन्होंने 1928 में प्रथम श्रेणी में एमए की परीक्षा पास की। इस परीक्षा में उन्होंने ‘छायावाद’ पर विस्तृत और विद्वतापूर्ण निबंध लिखा। उससे श्यामसुन्दर दास बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने इस निबंध को विश्वविद्यालय की ओर से छपाना चाहा, लेकिन विश्वविद्यालय में ऐसा कोई प्रावधान न होने से यह संभव नहीं हो पाया। श्याम सुन्दर दास ने उनके इस विषय को शोध के लिये चुन लिया। वे अपने शोध कार्य में लग गये। इसी बीच 1930 में उनकी नियुक्ति विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक के तौर पर हो गयी। उन्होंने 1929 में एलएलबी परीक्षा भी उत्तीर्ण कर ली। उनके शोध कार्य और अध्ययन को देखते हुये ‘काशी नागरी प्रचारिणी सभा’ ने अपने यहां उन्हें शोध विभाग का अवैतनिक संचालक नियुक्ति किया। इस काम को करते हुये उन्होंने बहुत वैज्ञानिक तरीके से कई महत्वपूर्ण ग्रन्थों की तालिकायें तैयार कीं। इस दौरान वे अपने शोध की तैयारी में लगे रहे। दो-तीन वर्षों के अथक परिश्रम के बाद उन्होंने 1931 में अपना शोध प्रबंध विश्वविद्यालय में जमा किया। उनके शोध का विषय था- ‘हिन्दी काव्य में निर्गुणवाद।’ इस शोध के परीक्षक थे- ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में उर्दू-हिन्दी के विभागाध्यक्ष डाॅ. टी ग्राहम वैली, प्रयाग विश्वविद्यालय के दर्शन शास्त्र विभाग के प्रो. रामचंद्र दत्तात्रेय और श्याम सुन्दर दास। डाॅ. वैली ने इसे पीएचडी के लिये ही उपयुक्त माना। उन्होंने दुबारा इसमें संशोधन कल प्रस्तुत किया। उन्हें 1933 में विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में डी-लिट की उपाधि दी गई। इसके साथ ही वे हिन्दी विषय में ‘डाक्टरेट’ करने वाले पहले शोधार्थी बन गये। इसके साथ ही उनकी ख्याति भी बढ़ने लगी। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनके शोधपरक लेख प्रकाशित होने लगे। उनकी गिनती हिन्दी के बड़े विद्वानों में होने लगी और उन्हें कई सम्मेलनों में बुलाया जाने लगा।पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल के पास शोध का व्यापक फलक था। हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी के असाधारण विद्वान होने के कारण उनका शोध और अध्ययन बहुत गहरा था। एक तरह से उन्होंने आजादी से पहले अपने शोध से हिन्दी के लिए नये रास्ते और संभावनाएं तलाशी। उनका शोध प्रबंध ‘निर्गुण स्कूल इन हिन्दी पोयट्री’ शैक्षिक अनुसंधान के लिये मील का पत्थर थी। उन्होंने कबीर को पूर्ववर्ती सिद्ध संप्रदाय से जोड़कर इतिहास की अन्तवर्ती धारा को पाटने का काम किया। डाॅ. बड़थ्वाल का काम इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि उन्होंने ऐसे समय पर यह शोध किया जब संतवाणियां प्रकाशित नहीं थी। उन्होंने सबसे पहले यह स्थापित किया कि नाथ, सिद्ध और संतकवि उपनिषदों के घाट पर बहते योग प्रवाह में डुबकी लगाकर खड़े हैं। इस धरती ने साहित्यकारों को साहित्य सृजन की प्रेरणा देने का कार्य किया है। यहां का शांत एवं आध्यात्मिक वातावरण साहित्य एवं शिक्षा के लिये अनुकूल रहा है। राज्य में लोक भाषाओं को बढावा देने के लिये स्कूलों में इसे अनिवार्य किया गया है। उन्होंने कहा कि बढते शहरीकरण के इस दौर में लोगों को अपनी मातृभाषा के प्रति लगाव कुछ कम हुआ है। इमें इस लगाव को बढावा देने के प्रयास करने होंगे। यह हम सभी के सामुहिक प्रयासों से ही सम्भव हो सकेगा। उन्होंने कहा कि संविधान की आठवीं सूची में राज्य की समृद्ध भाषा बोलियों को स्थान मिले इसके भी प्रयास किये जायेंगे। उन्होंने कहा कि उत्तराखण्ड भाषा संस्थान नये प्रयोग एवं सुधारात्मक प्रयासों से विभिन्न भाषाओं के साहित्यकारों को आगे बढाने का प्रयास करेगा। उन्होंने कहा कि अपनी भाषा बोली व संस्कृति को जिन्दा रखना बडी बात हैलेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।

 

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