- उत्तराखंड की पहली महिला स्वतंत्रता सेनानी श्रीमती बिश्नी देवी शाह
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
देश की आजादी के लिए अपना सब कुछ न्योछावर करने वाले गुमनाम नायकों का जब जिक्र होगा, तो बिशनी देवी साह को जरूर याद किया जाएगा. अल्मोड़ा की रहने वालीं बिशनी देवी उत्तराखंड की पहली महिला स्वतंत्रता सेनानी थीं. आजादी की लड़ाई में जेल जाने वालीं वह पहली महिला भी थीं. अब इस गुमनाम नायिका को पहचान दिलाने के लिए अल्मोड़ा के डाक विभाग ने एक पहल की है.बिशनी देवी साह ने कई स्वतंत्रता आंदोलनों में अहम भूमिका निभाई थी. इसके बावजूद उन्हें वह पहचान नहीं मिली, जिसकी वह हकदार थीं. अब डाक विभाग ने बिशनी देवी को उनकी पहचान दिलाने के लिए लिफाफे में उनकी फोटो और उनका जीवन परिचय लिखा है, जिससे उनको सही पहचान मिल सके.बिशनी देवी का जन्म12 अक्टूबर, 1902 को बागेश्वर में हुआ था. 13 साल की उम्र में अल्मोड़ा निवासी शख्स से उनकी शादी हो गई थी. जब वह 16 साल की थीं, तो उनके पति का निधन हो गया था. जिसके बाद मायके और ससुराल वालों ने उन्हें ठुकरा दिया था. कुमाऊं के अल्मोड़ा में पहली बार बिशनी देवी ने ही तिरंगा फहराया था. राष्ट्रीय आन्दोलन में भी उत्तराखण्डी महिलाओं का अविस्मरणीय योगदान रहा है। इनमें एक बेमिसाल नाम स्व० श्रीमती बिश्नी देवी शाह का है। १२ अक्टूबर, १९०२ को बागेश्वर में जन्मी बिश्नी देवी मात्र कक्षा ४ तक ही शिक्षित थीं। एक ओर वैधव्य और दूसरी ओर सामाजिक कुरीतियों से बीच जकड़ी बिश्नी देवी राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन से जुड़ी और आजादी के लिये लगातार संघर्षरत रहीं। अल्मोड़ा में नन्दा देवी के मन्दिर में होने वाली सभाओं में भाग लेने और स्वदेशी प्रचार कार्यों में बिश्नी देवी काम करने लगीं। आन्दोलनकारियों को महिलायें प्रोत्साहित करती थीं, जेल जाते समय सम्मानित कर पूजा करती, आरती उतारतीं और फूल चढ़ाया करती थीं। १९२१ से १९३० के बीच महिलाओं में जागृति व्यापक होती गयी, १९३० तक ये स्त्रियां सीधे आन्दोलन में भाग लेने लगीं। तब अल्मोड़ा ही नहीं, रामनगर और नैनीताल की महिलाओं में भी जागृति आने लगी थी। २५ मई, १९३० को अल्मोड़ा नगर पालिका में राष्ट्रीय ध्वज फहराने का निश्चय हुआ। स्वयं सेवकों का एक जुलूस, जिसमें महिलायें भी शामिल थीं, को गोरखा सैनिकों द्वारा रोका गया। इसमें मोहनलाल जोशी तथा शांतिलाल त्रिवेदी पर हमला हुआ और वे लोग घायल हुये। तब बिश्नी देवी शाह, दुर्गा देवी पन्त, तुलसी देवी रावत, भक्तिदेवी त्रिवेदी आदि के नेतृत्व में महिलाओं ने संगठन बनाया। कुन्ती देवी वर्मा, मंगला देवी पाण्डे, भागीरथी देवी, जीवन्ती देवी तथा रेवती देवी की मदद के लिये बद्रीदत्त पाण्डे और देवीदत्त पन्त अल्मोड़ा के कुछ साथियो सहित वहां आये। इससे महिलाओं का साहस बढ़ा। अंततः वह झंडारोहण करने में सफल हुईं, दिसम्बर, १९३० में बिश्नी देवी शाह को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें अल्मोड़ा जेल में रखा गया। जेल के कष्टप्रद जीवन से वे बिल्कुल भी विचलित नहीं हुईं, वहां पर वे प्रचलित गीत की पंक्तियां दोहराती थी-
“जेल ना समझो बिरादर, जेल जाने के लिये,
यह कृष्ण मन्दिर है प्रसाद पाने के लिये।”
जेल से रिहाई के बाद बिश्नी देवी जी खादी के प्रचार में जुट गईं। उस समय अल्मोड़ा में खादी की दुकान नहीं थी, चरखा १० रुपये में मिलता था। उन्होंने चरखे का मूल्य घटवाकर ५ रुपये करवाया और घर-घर जाकर महिलाओं को दिलवाया, उन्हें संगठित कर चरखा कातना सिखाया। उनका कार्यक्षेत्र अल्मोड़ा से बाहर भी बढ़ने लगा, २ फरवरी, १९३१ को बागेश्वर में महिलाओं का एक जुलूस निकला तो बिश्नी देवी ने उन्हें बधाई दी और सेरा दुर्ग (बागेश्वर) में आधी ना्ली जमीन और ५० रुपये दान में दिये। वे आन्दोलनकारियों के लिये छुपकर धन जुटाने, सामग्री पहुंचाने तथा पत्रवाहक का कार्य भी करतीं थीं। राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रियता के कारण ७ जुलाई, १९३३ में उन्हें गिरफ्तार कर फतेहगढ़ जेल भेज दिया गया, उन्हें ९ माह की सजा और २०० रुपये जुर्माना हुआ। जुर्माना न देने पर सजा और बढ़ाई गई, वहां से रिहा होने के बाद १९३४ में बागेश्वर मेले में धारा १४४ लगी होने के बावजूद उन्होंने स्वदेशी प्रदर्शनी करवाई। डिप्टी कमिश्नर ट्रेल के आतंक में भी बिश्नी देवी शाह का कार्य विधिवत चलता रहा। इसी मध्य रानीखेत में हरगोबिन्द पन्त के सभापतित्व में कांग्रेस सदस्यों की एक सभा हुई, जिसमें कार्यकारिणी में महिला सदस्य के रुप में इन्हें निर्वाचित किया गया। १० से १५जनवरी, १९३५ में बागेश्वर में लगाई गई प्रदर्शनी हेतु उन्हें प्रथम श्रेणी का प्रमाण पत्र मिला। अल्मोड़ा नन्दा देवी के मैदान में और फिर २३ जुलाई, १९३५ को अल्मोड़ा के मोतिया धारे के समीप नये कांग्रेस भवन में बिश्नी देवी शाह तथा विजय लक्ष्मी पंडित ने झंडा फहराया। विजय लक्ष्मी पंडित बिश्नी देवी के कार्यों से अत्यन्त प्रभावित हुईं। बिश्नी देवी सामान्य परिवार में जन्मी अल्प शिक्षित महिला थीं। विनय, सहिष्णुता, मृदु व्यवहार, अनुशासन आदि गुणों के कारण वे कांग्रेस की सफल कार्यकर्ता बनीं। वे स्थानीय और राष्ट्रीय नेताओं के सम्पर्क में सदा से ही रहीं। सामाजिक बंधनों तथा रुढिवादिता के विरुद्ध आगे बढ़ते हुए संघर्ष करना उनकी चारित्रिक विशेषता थी। उनके बारे में लोग कहते थे-
“खद्दर की ही धोती पहने, और खद्दर का ही कुर्ता,
एक हाथ में खद्दर का झोला और दूजे में सुराज्यी तिरंगा।”
१० अक्टूबर, १९३० को दैनिक अमृत बाजार पत्रिका ने उनकी कार्यकुशलता के बारे में लिखा: “समस्त उत्तर प्रदेश में अल्मोड़ा और नैनीताल आगे आये हैं, विशेषकर अल्मोड़ा। उसमें बिश्नी देवी की भूमिका सर्वप्रथम है। बिश्नी देवी अदम्य उत्साह और साहस से युक्त महिला हैं। अपने वैधव्य की रिक्तता को उन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़कर पूरा कर दिया।” महिला कार्यकर्ता होने के कारण स्वाधीनता के बाद उन्हें भी कोई महत्व नहीं मिला, उनका अपना कोई न था। आर्थिक अभाव में उनका अन्तिम समय अत्यन्त कष्टपूर्ण स्थिति में बीता। आजादी की लड़ाई में वह जेल भी गईं. 73 साल की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष में केंद्र सरकार ने अपने ही देश में भुला बिसरा दिए गए स्वतंत्रता सेनानियों की याद का जो सिलसिला शुरू किया है, उसमें अन्य आयोजनों के साथ पुस्तक प्रकाशन भी प्रमुख है. भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने अमर चित्र कथा के साथ मिलकर स्वतंत्रता संग्राम के 75 गुमनाम नायकों पर सचित्र पुस्तकों को प्रकाशित करने का निर्णय लिया है, उनमें बिश्नी देवी शाह, सुभद्रा कुमारी चौहान, दुर्गावती देवी, सुचेता कृपलानी, अक्कम्मा चेरियन, अरुणा आसफ अली और रानी गाइदिन्ल्यू की कहानियां शामिल हैं. बिश्नी देवी शाह एक ऐसी महिला थीं, जिन्होंने उत्तराखंड में बड़ी संख्या में लोगों को स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने के लिए प्रेरित किया. सुभद्रा कुमारी चौहान सबसे महान हिंदी कवियों में से एक थीं, जो स्वतंत्रता आंदोलन में भी एक प्रमुख हस्ती थीं. दुर्गावती देवी वह बहादुर महिला थीं, जिन्होंने जॉन सॉन्डर्स की हत्या के बाद भगत सिंह को सुरक्षित निकलने में मदद की और उनके क्रांतिकारी दिनों के दौरान भी अनेक रूप में सहायता की.इस पुस्तक में शामिल प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी सुचेता कृपलानी की ख्याति देशव्यापी थी. आप न केवल महात्मा गांधी की बेहद प्रिय थीं, बल्कि आपने स्वतंत्र भारत की पहली महिला मुख्यमंत्री के रूप में उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य की सरकार का नेतृत्व किया. पुस्तक में केरल के त्रावणकोर में स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रेरणादायक नेता अक्कम्मा चेरियन की कहानी भी शामिल है, उन्हें महात्मा गांधी द्वारा ‘त्रावणकोर की झांसी की रानी’ नाम दिया गया था. अरुणा आसफ अली एक प्रेरणादायक स्वतंत्रता सेनानी थीं, जिन्हें
शायद 1942 में भारत छोड़ो
आंदोलन के दौरान मुंबई में
भारतीय राष्ट्रीय ध्वज फहराने के लिए सबसे ज्यादा याद किया जाता है. आंध्र प्रदेश में महिलाओं की
मुक्ति के लिए एक अथक संघर्ष करने वाली कार्यकर्ता दुर्गाबाई
देशमुख एक प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी और संविधान सभा की
सदस्य भी थीं. नागा आध्यात्मिक और राजनीतिक नेता रानी
गाइदिन्ल्यू ने मणिपुर, नागालैंड
और असम में अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह का नेतृत्व किया. राष्ट्रपति ने कहा कि सभी देशवासी आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। ज्ञात-अज्ञात स्वाधीनता सेनानियों का स्मरण करना हम सभी का कर्तव्य है। बागेश्वर में जन्मीं बिशनी देवी शाह ने स्वाधीनता संग्राम के दौरान अल्मोड़ा नगर-पालिका-भवन पर तिरंगा लहराया और गिरफ्तार की गईं। वे साधारण परिवार की
अल्प-शिक्षित महिला थीं। लेकिन भारत के स्वाधीनता संग्राम को उनके द्वारा दिया गया योगदान असाधारण है..
लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं।