उत्तराखंड की इगास जीवन्त लोक संस्कृति –डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

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उत्तराखंड की संस्कृति व विरासत अपने में कई ऐसे पर्व समेटे हुए हैं। जिनका यहां की संस्कृति में खास महत्व है। इसी क्रम में दीपावली के 11 दिन बाद मनाया जाने वाला लोकपर्व इगास- बग्वाल आज उल्लास के साथ मनाया जाएगा। भैलो व पारंपरिक नृत्य के साथ पहाड़ी व्यंजनों की खुशबू गांव ही नहीं शहर में भी महक उठेगी। युवा पीढ़ी को पहाड़ की परंपरा व संस्कृति से रूबरू कराने के लिए लोकपर्व इगास पर विभिन्न सामाजिक संगठन तैयारी पूरी कर चुके हैं।आज उत्तराखंड में ईगास पर्व की धूम है। पहाड़ में बग्वाल (दीपावली) के ठीक 11 दिन बाद ईगास मनाने की परंपरा है। दरअसल ज्योति पर्व दीपावली का उत्सव इसी दिन पराकाष्ठा को पहुंचता है, इसलिए पर्वों की इस शृंखला को ईगास-बग्वाल नाम दिया गया। गढ़वाल के जौनपुर, थौलधार, प्रतापनगर, रंवाई, चमियाला आदि क्षेत्रों में ये पर्व ज्यादा देखने को मिलता है। यह पर्व धीरे-धीरे लुप्त हो जा रहा था लेकिन हाल के समय में लोगों की जागरूकता और सोशल मीडिया की सक्रियता के कारण यह पर्व उत्तराखंड में खासकर गढ़वाल इलाके में फिर से एक बार लोगों के बीच में प्रसिद्ध हो रहा है। इसके बारे में कई लोकविश्वास, मान्यताएं, किंवदंतिया प्रचलित है. एक मान्यता के अनुसार गढ़वाल में भगवान राम के अयोध्या लौटने की सूचना 11 दिन बाद मिली थी. इसलिए यहां पर ग्यारह दिन बाद यह दीवाली मनाई जाती है. रिख बग्वाल मनाए जाने के पीछे भी एक विश्वास यह भी प्रचलित है कि उन इलाकों में राम के अयोध्या लौटने की सूचना एक महीने बाद मिली थी. दूसरी मान्यता के अनुसार दिवाली के समय गढ़वाल के वीर माधो सिंह भंडारी के नेतृत्व में गढ़वाल की सेना ने दापाघाट, तिब्बत का युद्ध जीतकर विजय प्राप्त की थी और दिवाली के ठीक ग्यारहवें दिन गढ़वाल सेना अपने घर पहुंची थी. युद्ध जीतने और सैनिकों के घर पहुंचने की खुशी में उस समय दिवाली मनाई थी। रिख बग्वाल के बारे में भी यही कहा जाता है कि सेना एक महीने बाद पहुंची और तब बग्वाल मनाई गई और इसके बाद यह परम्परा ही चल पड़ी. ऐसा भी कहा जाता है कि बड़ी दीवाली के अवसर पर किसी क्षेत्र का कोई व्यक्ति भैला बनाने के लिए लकड़ी लेने जंगल गया लेकिन उस दिन वापस नहीं आया इसलिए ग्रामीणों ने दीपावली नहीं मनाई. ग्यारह दिन बाद जब वो व्यक्ति वापस लौटा तो तब दीपावली मनाई और भैला खेला। हिंदू परम्पराओं और विश्वासों की बात करें तो इगास बग्वाल की एकादशी को देव प्रबोधनी एकादशी कहा गया है. इसे ग्यारस का त्यौहार और देवउठनी ग्यारस या देवउठनी एकादशी के नाम से भी जानते हैं. पौराणिक कथा है कि शंखासुर नाम का एक राक्षस था. उसका तीनो लोकों में आतंक था. देवतागण उसके भय से विष्णु के पास गए और राक्षस से मुक्ति पाने के लिए प्रार्थना की. विष्णु ने शंखासुर से युद्ध किया. युद्ध बड़े लम्बे समय तक चला. अंत में भगवान विष्णु ने शंखासुर को मार डाला. इस लम्बे युद्ध के बाद भगवान विष्णु काफी थक गए थे. क्षीर सागर में चार माह के शयन के बाद कार्तिक शुक्ल की एकादशी तिथि को भगवान विष्णु निंद्रा से जागे. देवताओं ने इस अवसर पर भगवान विष्णु की पूजा की. इस कारण इसे देवउठनी एकादशी कहा गया। : बग्वाल के अवसर पर गढ़वाल में बर्त खींचने की परम्परा भी है. इगास बग्वाल के अवसर पर भी बर्त खींचा जाता है. बर्त का अर्थ है मोटी रस्सी. यह बर्त बाबला, बबेड़ू या उलेंडू घास से बनाया जाता है. लोकपरम्पराओं को शास्त्रीय मान्यता देने के लिए उन्हें वैदिक-पौराणिक आख्यानों से जोड़ने की प्रवृत्ति भी देखी जाती है. बर्त खींचने को भी समुद्र मंथन की क्रिया और बर्त को बासुकि नाग से जोड़ा जाता है.भैलो खेलने का रिवाजइगास बग्वाल के दिन भैला खेलने का विशिष्ठ रिवाज है. यह चीड़ की लीसायुक्त लकड़ी से बनाया जाता है. यह लकड़ी बहुत ज्वलनशील होती है. इसे दली या छिल्ला कहा जाता है. जहां चीड़ के जंगल न हों वहां लोग देवदार, भीमल या हींसर की लकड़ी आदि से भी भैलो बनाते हैं. इन लकड़ियों के छोटे-छोटे टुकड़ों को एक साथ रस्सी अथवा जंगली बेलों से बांधा जाता है. फिर इसे जला कर घुमाते हैं. इसे ही भैला खेलना कहा जाता है. परम्परानुसार बग्वाल से कई दिन पहले गांव के लोग लकड़ी की दली, छिला, लेने ढोल-बाजों के साथ जंगल जाते हैं. जंगल से दली, छिल्ला, सुरमाड़ी, मालू अथवा दूसरी बेलें, जो कि भैलो को बांधने के काम आती है, इन सभी चीजों को गांव के पंचायती चौक में एकत्र करते हैं। पहाड़ में एकादशी को इगास के नाम से जानते हैं। एक मान्यता के अनुसार गढ़वाल में भगवान राम के अयोध्या लौटने की सूचना 11 दिन बाद मिली थी। इसलिए यह पर्व मनाया जाता है। जबकि दूसरी मान्यता यह भी है कि दीपावली के समय गढ़वाल के वीर माधो सिंह भंडारी के नेतृत्व में गढ़वाल की सेना ने दापाघाट, तिब्बत का युद्ध जीतकर विजय प्राप्त की थी और दीपावली के ठीक 11वें दिन गढ़वाल सेना अपने घर पहुंची थी। युद्ध जीतने और सैनिकों के घर पहुंचने की खुशी में उस समय दीपावली मनाई थी। इस दिन मवेशियों के लिए भात, झंगोरा का पींडू (पौष्टिक आहार) तैयार किया जाता है। उनका तिलक लगाकर फूलों की माला पहनाई जाती है। जब मवेशी पींडू खा लेते हैं तब उनको चराने वाले या गाय-बैलों की सेवा करने वाले बच्चे को पुरस्कार दिया जाता है। इस दिन घरों में पारंपरिक पकवान पूड़ी, स्वाले, उड़द की पकोड़ी बनाई जाती है। रात को पूजन के बाद सभी भैलो खेलते हैं। हर साल दीपावली के बाद बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है। बूढ़ी दिवाली खासकर पहाड़ी क्षेत्रों में मनाई जाती है। हिमाचल और उत्तराखंड के कई गांवों मेंं आज भी बूढ़ी दिवाली मनाने का प्रचलन जारी है। हर साल दीपावली के एक माह बाद बूढ़ी दीवाली मनाई जाती है। हिमाचल के सिरमौर, कुल्लू के बाहरी व भीतरी सिराज क्षेत्र शिमला के ऊपरी इलाके व किन्नौर व उत्तराखंड के कुमाऊं-गढ़वाल के कई पहाड़ी जिलों पूरा देश दीवाली मना चुका था फिर भी पहाड़ी क्षेत्र में रहने वाले लोगों ने उत्सव मनाया। जिसका नाम बाद में बूढ़ी दीवाली पड़ गया। वही हिमाचल के जिला कुल्लू का निरमंड पहाड़ी काशी से रूप में प्रसिद्ध है। यह जगह भगवान परशुराम ने बसाई थी, वे अपने शिष्यों के साथ भ्रमण कर रहे थे। एक दैत्य ने सर्पवेश में उन पर आक्रमण किया तो परशुराम ने अपने परसे से उसे खत्म किया। इस पर लोगों द्वारा खुशी मनाना स्वाभाविक था जो आज तक जारी है। इस मौके पर यहां महाभारत युद्ध के प्रतीक रूप युद्ध के दृश्य अभिनीत किए जाते हैं। देवोत्थान या देवउठनी एकादशी गुरुवार को मनाई जाएगी। इसके साथ ही विवाह आदि मांगलिक कार्य भी शुरू हो जाएंगे। प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने लाल किले से आजादी के अमृत काल में  पंच प्रण के संकल्पों के साथ आगे बढ़ने का आह्वान किया था। जिनमें से एक संकल्प यह है कि हम अपनी विरासत और संस्कृति पर गर्व करें। इगास पर्व का आयोजन उत्तराखंडी लोक संस्कृति से नयी पीढ़ी के जुड़ाव को और प्रगाढ़ बनाएगा।मुख्यमंत्री ने प्रवासी उत्तराखण्डवासियों से भी अनुरोध किया कि वे भी अपने लोक पर्व को अपने गांव में मनाने का प्रयास करें तथा प्रदेश के विकास में सहभागी बने, सभी के सामुहिक प्रयासों से हम विकल्प रहित संकल्प के साथ उत्तराखण्ड को अग्रणी राज्यों में शामिल करने में सफल होंगे।

लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।

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