सालों में अनियंत्रित विकास माध्यम बना जोशीमठ के अस्तित्व खोने का, डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

सीमांत क्षेत्र में रहने वालों की सुविधा के लिए आधुनिक विकास का मॉडल लाना चाहते हैं। वहां चौड़ी सड़कें, पर्यटन, सुरंग आधारित बांध जैसी अनेकों योजनाएं जो हिमालय को हिला कर रख रही है, कुछ इसी तरह के अनेकों ऐसे भारी निर्माण कार्य करना चाहते हैं, जिससे चंद दिनों की सुख-सुविधा से लोग रू—ब—रू हो सकते हैं।लेकिन इस तरह के मॉडल के कारण ही आजकल मध्य हिमालय क्षेत्र में स्थित चमोली जिले की प्रसिद्ध धार्मिक नगरी और शंकराचार्य की तपस्थली ज्योतिर्मठ जिसे जोशीमठ भी कहते हैं, यहां भारी भू-धंसाव के कारण अलकनंदा की ओर फिसलता नजर आ रहा है।जोशीमठ चीन की सीमा पर भारत का एक अंतिम शहर है। इसी स्थान से होकर हर वर्ष लाखों- लाख तीर्थयात्री एवं पर्यटक औली, बद्रीनाथ, हेमकुंड साहिब और फूलों की घाटी की यात्रा करते हैं। नीति माना तक पहुंचने का रास्ता भी यहीं से है। सीमांत क्षेत्र होने के कारण यह सैनिकों का इलाका भी है। बद्रीनाथ से आ रही अलकनंदा, धौलीगंगा, ऋषि गंगा की गोद में बसा हुआ जोशीमठ ढालदार पहाड़ के टॉप पर बसा हुआ है, जहां पर पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए बड़े निर्माण कार्यों को तवज्जो दी गई। वैज्ञानिक कहते हैं कि इस स्थान का निर्माण हिमालय के अन्य ऊंचे पहाड़ों की तरह ग्लेशियर द्वारा लाई गई मिट्टी के कारण हुआ है, जो अत्यंत संवेदनशील है। जोशीमठ में शीतकाल के समय भगवान बद्रीश भी निवास करते हैं। 1970 में धौलीगंगा में आई बाढ़ के प्रभाव के कारण पातालगंगा से लेकर हेलंग और ढाक नाला तक अपार जनधन की हानि हुई थी, उस समय भी कहते हैं कि यहां पर वनों का व्यावसायिक दोहन हो रहा था। इस क्षेत्र का उस समय वैज्ञानिकों ने अध्ययन किया था और 1972-73 में चिपको आंदोलन की शुरुआत भी इसी क्षेत्र से हुई थी। इसी दौरान 1975 में मिश्रा कमेटी ने सरकार को सुझाव दिया था कि जोशीमठ में किसी भी तरह का भारी निर्माण कार्य न करवायें, क्योंकि इन जगहों पर बर्फ के पहाड़ के अस्तित्व को बचाने के लिए उसके आसपास की जैव विविधता को बचाने की एक पहल भी की गई थी, लेकिन हिमालय की इस खूबसूरती को नजरअंदाज करते हुए पर्यटन के नाम पर बहुमंजिला इमारतों का निर्माण, भारी खनन कार्य और उससे अधिक से अधिक कमाई हो सके उस तरफ एक लालच बनता गया है। इसका परिणाम यह रहा कि जोशीमठ में पिछले 50 सालों के दौरान अधिक से अधिक लोगों के आवागमन के कारण अनियंत्रित भवनों का निर्माण हुआ है। अब स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि विशेषज्ञ कह रहे हैं कि भू-धंसाव का कारण बेतरतीब भवन निर्माण, घरों से निकलने वाले बेकार पानी का रिसाव, ऊपरी मिट्टी का कटाव, मानवजनित विकास के कारण जलधारा के प्राकृतिक प्रभाव में आ रही है। रुकावट के कारण जल निकासी का कोई रास्ता न मिलने की वजह से पहाड़ पर बसे हुए लोगों की अमूल्य संपत्ति जमीन के अंदर धीरे-धीरे समाती नजर आ रही है।यहां जोशीमठ की तलहटी से गुजरने वाली अलकनंदा नदी के बगल के किनारे से तपोबन विष्णुगाड़ परियोजना(520 मेगावाट) का निर्माण किया जा रहा है। इसकी सुरंग में हो रहे विस्फोटों ने जोशीमठ शहर की धरती को बुरी तरह हिलाकर रख दिया है। स्थानीय लोग वर्षों से इस परियोजना का विरोध कर रहे हैं, जिसका विरोध पिछले दिनों हेलंग गांव की महिलाओं ने किया है। उनके चारागाह पर बांध निर्माण करने वाली एनटीपीसी कंपनी ने कब्जा कर दिया था और महिलाएं जब वहां घास लेने गई तो उन्हें घास काटने से रोका गया। गांव की महिलाओं की पीठ से घास का बोझ भी छीना गया था, जिस पर पूरे राज्य में काफी बवाल हुआ। लेकिन तब भी राज्य और केंद्र सरकार की समझ में यह बात नहीं आई, लेकिन जब वर्तमान में जोशीमठ के अस्तित्व पर खतरे के बादल मंडराने लगे तो गैर सरकारी वैज्ञानिकों की तरह सरकारी वैज्ञानिक भी कहने लगे हैं कि जोशीमठ के भू-धंसाव का बड़ा कारण जल विद्युत परियोजना के सुरंग निर्माण से भी है। जनवरी के प्रथम सप्ताह में इस परियोजना की सुरंग के निर्माण का कार्य रोक दिया है।चिंताजनक है कि यहां पर लंबे समय से काम कर रही जोशीमठ-औली रोपवे का संचालन भी नहीं हो पा रहा है, क्योंकि इसके चारों ओर जगह जगह भूस्खलन और भू-धंसाव हो रहा है। यहां पर 700 से अधिक घरों में चौड़ी दरारें पड़ने के कारण लोग घर छोड़ने को मजबूर हो गए हैं। राज्य की सरकार ने एनटीपीसी और एनएचपीसी के माध्यम से लगभग 4000 फैब्रिकेटेड घरों के निर्माण के लिए स्थान चयन करने के लिए कहा है, जहां पर प्रभावित लोग भविष्य में सुरक्षित निवास कर सके।
आपदा प्रबंधन का दावा करने वाली व्यवस्था इस क्षेत्र में हिमालय की संकरी भौगोलिक संरचना को नजरअंदाज करके चौड़ी सड़कों का निर्माण करवा रही है, जिसका मलवा नदियों में उड़ेला जा रहा है। इसी स्थान से होकर जाने वाले चारधाम सड़क चौड़ीकरण के दौरान दो लाख से अधिक पेड़ों को काटा गया है। जबकि इन पेड़ों को बचाकर यहां की भौगोलिक स्थिति को ध्यान में रखकर मजबूत व सुदृढ़ सड़क बन सकती थी और मलवा का सही ढंग से निस्तारण करके नदियों में जाने से रोका जा सकता था, लेकिन निर्माण कर्ताओं ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया। सुप्रीम कोर्ट द्वारा रवि चोपड़ा की अध्यक्षता में गठित समिति ने इस क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों को बचाने व हिमालय की संवेदनशीलता जैसे- बाढ़, भूस्खलन, भूकंप को ध्यान में रखकर संयमित निर्माण करने की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित किया था। इसके बावजूद भी उन्हें समिति से ही हटा दिया गया। वहां ऐसे लोगों को जिम्मेदारी सौंपी गयी है ,जो उत्तराखंड जैसे हिमालय राज्य में बड़े निर्माण कार्यों को अंजाम दे रहे हैं और कहीं भी हिमालय को बचाने की बात उनके दिल में नहीं है और तीर्थ स्थलों को पर्यटन स्थल बनाने की कुचेष्टा कर रहे हैं। इसलिए जोशीमठ जैसी स्थिति हमें देखने को मिल रही है। उत्तराखंड समेत हिमालय क्षेत्र के राज्यों में सैकड़ों ऐसी जगह है, जहां धरती के नीचे रेल, बांध और अन्य तरह की सुरंगों के निर्माण के कारण गांव के गांव जमींदोज होने लगे हैं। लोग रो रहे हैं चिला रहे हैं, लकिन कोई सुनने के लिए तैयार नहीं है। जोशीमठ के लिए तब जागृत हुए जब अनेकों संघर्षों को भुलाकर जोशीमठ नगर अपना अस्तित्व खोने लगा है। पर्यावरणीय और पारिस्थितिक क्षति से जुड़ी लागत की तुलना में जलविद्युत परियोजनाओं में वापसी निवेश लागत बहुत कम है। जोशीमठ इस बात का स्पष्ट उदाहरण है कि हिमालय में क्या नहीं करना चाहिए।”प्रकृति के साथ जो छेड़छाड़ हो रहा है उससे विनाश बढ़ रहे हैं और सरकार इस विनाश को स्वयं कर रही है। राज्य आंदोलनकारियों उनके गीतों का स्वर होता था कि जब हमारा उत्तराखंड राज्य बनेगा तो हमारी सरकार होगी तथा राज्य आंदोलनकारियों ने जो संघर्ष किया है,उसकी बदौलत शिक्षा स्वास्थ्य रोजगार की हमारी समस्याएं दूर होंगीं। मगर एक कवि के रूप में उत्तराखंड राज्य बनने के बाद बदलाव की जो तस्वीर गिर्दा ने देखी थी,उसके बारे में निराश होकर वे व्यंग्यपूर्ण लहजे में कहने लगे थे- ‘कुछ नहीं बदला कैसे कहूँ, दो बार नाम बदला-अदला, चार-चार मुख्यमंत्री बदले, पर नहीं बदला तो हमारा मुकद्दर,और उसे बदलने की कोशिश तो हुई ही नहीं।’

लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।

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