देहरादून। चैत के महीने की संक्रांति को, जब ऊंची पहाड़ियों से बर्फ पिघल जाती है, सर्दियों के मुश्किल दिन बीत जाते हैं, उत्तराखंड के पहाड़ बुरांश के लाल फूलों की चादर ओढ़ने लगते हैं, तब पूरे इलाके की खुशहाली के लिए फूलदेई का त्योहार मनाया जाता है। ये त्योहार आमतौर पर किशोरी लड़कियों और छोटे बच्चों का पर्व है।
फूलदेई के दिन लड़कियां और बच्चे सुबह-सुबह उठकर फ्यूंली, बुरांश, बासिंग और कचनार जैसे जंगली फूल इकट्ठा करते हैं। इन फूलों को रिंगाल (बांस जैसी दिखने वाली लकड़ी) की टोकरी में सजाया जाता है। टोकरी में फूलों-पत्तों के साथ गुड़, चावल और नारियल रखकर बच्चे अपने गांव और मुहल्ले की ओर निकल जाते हैं। इन फूलों और चावलों को गांव के घर की देहरी, यानी मुख्यद्वार पर डालकर लड़कियां उस घर की खुशहाली की दुआ मांगती हैं। इस दौरान एक गाना भी गाया जाता है-
फूलदेई, छम्मा देई…जतुकै देला, उतुकै सही…दैणी द्वार, भर भकार…..
पौड़ी गढ़वाल जनपद के कल्जीखाल ब्लॉक के घँडियाल क्षेत्र के रहने वाले पत्रकार जगमोहन डाँगी लंबे समय से लोकपर्व फूलदेई को लेकर न सिर्फ अपनी खबरों के माध्यम से जन-जन तक पहुचाने का कार्य कर रहे हैं। साथ ही बच्चों को फूलदेई पर्व को लेकर जागरूक करने के साथ ही इस पर्व की महत्ता भी बताते रहते हैं। जगमोहन डाँगी बच्चों के बीच ख़ासा लोकप्रिय हैं।