डड्वार’ गढ़वाल में दिया जाने वाला एक प्रकार का पारितोषिक है, जिसे प्राचीन काल में तीन लोगों को दिया जाता था। ब्राह्मण, लोहार और औजी। मैत्री संस्था की अध्यक्ष कुसुम जोशी ने कहा है कि धीरे-धीरे यह परंपरा खत्म होती जा रही है। इसके बदले अब लोग पैसे दे रहे हैं। सालभर में चेत महिने इन्हें दिया जाता है।
डड्वार में फसल पकने के बाद पहला हिस्सा कुल देवताओं को दिया जाता था। वहीं संग्राद, बग्वाल पर घर पर आकर ढोल बजाने शादी विवाह और शुभ कार्यों में काम करने की भरपाई करने के बदले औजी को भी डड्वार दिया जाता इन का मुख्य व्यवसाय शादी विवाह और शुभ कार्यों में ढोल दमों और मसकबाज बजाना था। इसके साथ ही ये लोग गांव में सिलाई का काम भी करते थे। डड्वार, फसल का एक हिसा होता है जो प्रत्येक फसल पर दिया जाता है।
कुसुम जोशी ने कहा कि डड्वार श्रम के बदले दिया जाने वाला पारितोषिक है, गढ़वाल में प्राचीन काल में जब सांकेतिक मुद्रा नहीं थी, तब श्रम के बदले डड्वार, बौरु आदि दिया जाता था। वस्तु विनिमय भी उस समय किया जाता था। जैसे चौलाई, सोयाबीन के बदले नमक, तेल लेना। इसके लिए गढ़वाल में तब वस्तु के बदले पैसे दिए जाने लगे।
उन्होंने कहा कि हमारे गांवों में आज भी डड्वार जैसी परंपरायें कुछ हद तक जिंदा है। आज आधुनिक भारत में कैस लेस में पेटीएम, गुगल एप, यूपीआई, ऑनलाइन मनी ट्रासफर जैसी व्यवस्थाएं आ गई हैं। जिसमें ऑनलाइन ही कहीं से भी सामान मंगवा सकते हैं। हम चाहते है प्रवासी लोग इन्हें अपने माँगलिक कार्यक्रमों बुलाऐं इनको रोज़गार मिलेगा कुछ जगह शादीयों लोग ज़बर्दस्ती इनको शराब पिलाते है जिससे इनकी आर्थिक पर गहरा असर पडता है पलायन बाद लोगों ने इन्हें बुलाना कम कर दिया इनवे सामाने रोजी रोटी की समस्या उत्पन्न होगी।