rajasthan: प्रकृति का मनुष्यों पर बहुत योगदान है। लेकिन फिलहाल मनुष्यों ने प्रकृति को बहुत आहत किया है। लेकिन प्राचीन काल में मनुष्यों ने पर्यावरण संरक्षण के लिए अनेक कुर्बानियां दी है। पर्यावरण को बचाने के लिए अपनी जान तक कुर्बान कर दी। आज हम ऐसे है ही एक कुर्बानी की बात कर रहे है जिन्होनें पेड़ों को बचाने के लिए अपनी तीनों बेटियों के साथ कुर्बानी दे दी थी । नाम है अमृता देवी बिश्नोई। सीमा पर खड़े जवान देश की रक्षा और हमारी सुरक्षा के लिए अपनी जान कुर्बान कर देते है लेकिन कुछ पर्यावरणविद ऐसे भी थे जो प्रकृति का महत्व समझते थे और उनको बचाने हेतु अपनी जान कुर्बान कर दी
तीनों बेटियों को लेकर पेड़ों के साथ कट गई अमृता देवी बात है राजस्थान के जोधपुर की। आज से हजारों वर्ष पहले सन् 1730 में जोधपुर के राजा अभयसिंह ने अपने भवन में नव निर्माण के लिए सैनिकों के आदेश दिया। वह आदेश था कि भवन में निर्माण के लिए लकड़ी की आवश्यकता है जाओ और शुद्ध लकड़ी की व्यवस्था करों। महाराजा अभय सिंह ने अपने आदमियों को खेजड़ी के पेड़ों से लकड़ियाँ प्राप्त करने का आदेश दिया था। सैनिक निकल पड़े खेजड़ली गांव में लकड़ी तोड़ने के लिए। थार रेगिस्तान में होने के बाद भी बिश्नोई गांवों में बहुत हरियाली थी और खेजड़ी के पेड़ बहुतायत में थे। यह वह स्थान है जहाँ चिपको आंदोलन की उत्पत्ति भारत में हुई थी। वह मंगलवार का दिन था, काला मंगलवार खेजड़ली गाँव के लिए। 1730 ईसवी में भद्रा महीने (भारतीय चंद्र कैलेंडर) के 10 वें उज्ज्वल पखवाड़े के दिन अमृता देवी अपनी तीन बेटियों आसू, रत्नी और भागू बाई के साथ घर पर थीं। तभी उन्हें पता चला कि महाराज के सैनिक लकड़ी काटने हेतु गांव में आये है। यह बात गांव वालो को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं थी कि कोई उनके पेड़ों को हाथ लगाए।अमृता देवी ने राजा के सैनिकों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया, क्योंकि बिश्नोई धर्म में हरे पेड़ों को काटना मना है। इसलिए अमृता देवी ने पेड़ों को बचाने के लिए अपनी जान भी देने को तैयार थीं। उन्होंने कहा कि–
सिर साटे, रूंख रहे, तो भी सस्तो जांण। अमृता देवी पेड़ों को बचाने के लिए
जिसका अर्थ है कि – “यदि किसी व्यक्ति की जान की कीमत पर भी एक पेड़ बचाया जाता है, तो वह सही है।
अमृता देवी अपनी तीनों बेटियों और 363 गांव वालों के साथ खेजड़ी के पेड़ों पर चिपक गई और बेरहम सैनिको ने गांव वालों के साथ ही पेड़ों को काट दिया। इस बलिदान के बाद अमृता देवी इतिहास में अमर हो गई। अंत में हार मानकर राजा के सैनिकों को वापस जाना पड़ा। यह खबर जब महाराजा अभय सिंह के पास पहुंची तो उन्होंने तुरंत ही पेड़ों को ना काटने का आदेश जारी कर दिया, और सैनिकों को दंडित भी किया। और उन्होंने पूरे बिश्नोई समाज को आश्वासन दिया कि उनके क्षेत्र में अब कोई पेड़ नहीं कटेगा। वर्तमान में अमृता देवी के नाम से अवॉर्ड भी दिया जाता है।
बिश्नोई धर्म के गुरू जाम्भेश्वर भगवान
गुरू जाम्भेश्वर भगवान (1451-1536) ने बिश्नोई धर्म के लिए 29 नियम का उपदेश दिया था। गुरू जाम्भेश्वर जाम्भोजी महाराज के नाम से प्रसिद्ध हुए। जाम्भोजी महाराज का जन्म पंवार गोत्र के क्षत्रिय कुल में हुआ। लोग उन्हे भगवान विष्णु का अवतार मानते है। उनके 120 शब्द प्रमाणिक रूप से उपलब्ध है, जिन्हें पांचवा वेद कहा जाता है। भगवान जाम्भोजी महाराज ने कहा था–
जीव दया पालणी, रूंख लीलो न घावेंगुरू जाम्भेश्वर भगवान
जिसका अर्थ है कि – “जीव मात्र के लिए दया का भाव रखें, और हरा वृक्ष नहीं काटे”
बरजत मारे जीव, तहां मर जाइए।गुरू जाम्भेश्वर भगवान
जिसका अर्थ है कि – “जीव हत्या रोकने के लिये अनुनय-विनय करने, समझाने-बुझाने के बाद भी, सफलता नहीं मिले, तो स्वयं आत्म बलिदान कर दें”
इन्हीं उपदेशों का पालन करते हुए अमृता देवी ने पेड़ों को बचाने के लिए पेड़ से चिपक गई जिसके बाद महाराजा के सैनिकों द्वारा कुल्हाड़ी से वार करने पर उनकी मृत्यु हो गई। अमृता देवी के बलिदान के बाद उनकी तीनों बेटियों ने भी पेड़ों को बचाने के लिए अपनी जान की कुर्बानी दे दी। यह खबर पूरे गांव और और विश्नोई समाज में आग की तरह फैल गई जिसके बाद कुल 363 लोगों ने पेड़ों को बचाने के लिए अपनी जान का बलिदान दिय
अमृता देवी विश्नोई पुरस्कार
राजस्थान और मध्य प्रदेश सरकार के वन विभाग ने जंगली जानवरों के संरक्षण और संरक्षण में योगदान के लिए प्रतिष्ठित राज्य स्तरीय अमृता देवी विश्नोई स्मृति पुरस्कार शुरू किया है। पुरस्कार में नकद 25000 / – रुपये और प्रशस्ति शामिल है।जो भी प्रकृति लिए महान काम करता है, पर्यावरण को बताने में मदद करता है उसे अम्रता देवी के अवॉर्ड से सम्मानित किया जाता है।