Dehradun :- हिमालयी राज्य उत्तराखंड ने अपनी जल नीति है। उत्तराखंड जल नीति का मसौदा कहता है कि राज्य में वर्ष के लगभग 100 दिन बारिश होती है और इस दौरान औसतन 1,945 मिमी पानी बरसता है, जबकि राज्य में प्रतिवर्ष आम लोगों, पशुओं, कृषि कार्यों और उद्योगों में कुल वर्षा जल का मात्र 3 प्रतिशत ही इस्तेमाल होता है। हर वर्ष वर्षा जल के रूप में राज्य को मिलने वाली जल राशि पहाड़ी ढलानों से बेकार बह जाती है, जबकि राज्य में कृषि योग्य लगभग 1.55 मिलियन हेक्टेयर भूमि में से मात्र 0.56 मिलियन हेक्टेयर भूमि की ही सिंचाई हो पाती है। राज्य में जल विद्युत क्षमता 27,039 मेगावाट आंकी गई है, जबकि फिलहाल 3,972 मेगावाट जल विद्युत का ही उत्पादन हो पा रहा है। राज्य की जल नीति जल भंडारों का अधिकतम संरक्षण और दोहन करने की ओर इशारा करती है। जल नीति में जल विद्युत उत्पादन में बढ़ोत्तरी करने के साथ ही लगभग लुप्त हो चुकी परम्परागत पन चक्कियों (घराट) को पुनर्जीवित करने का भी प्रावधान किया गया है। इसके लिए ग्राम पंचायतों, निजी संस्थाओं, गैर सरकारी संगठनों, सरकारी संस्थाओं और बैंकों को प्रोत्साहित करने की बात कही गई है। मसौदे में यह भी कहा गया है कि जल स्रोतों पर अतिक्रमण करने और पानी के प्रवाह का रास्ता बदलने की किसी भी हालत में अनुमति नहीं दी जाएगी। नहरों, नदियों आदि में कपड़े धोने को हतोत्साहित किया जाएगा। जल स्रोतों के आसपास प्रदूषण फैलाने वालों के खिलाफ ‘उत्तराखंड जल प्रबंधन और नियामक अधिनियम-2013’ के तहत सख्त कार्रवाई की जाएगी।यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि राज्य में करीब 2.6 लाख प्राकृतिक जलस्रोत हैं। जलवायु परिवर्तन और अन्य कारणों से करीब 12 हजार स्रोत सूख गए हैं। राज्य में लगभग 90 प्रतिशत जलापूर्ति भी इन्हीं स्रोतों से होती है। 16,973 गांवों में से 594 गांव पेयजल के लिए प्राकृतिक जलस्रोतों पर ही निर्भर हैं। करीब 50 प्रतिशत शहरी क्षेत्र किसी न किसी रूप में जल संकट से जूझ रहा है। नीति आयोग की ओर से जारी वाटर मैनेजमेंट इंडेक्स-2018 में जल प्रबंधन के मामले में राज्य का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा है। नीति आयोग के अनुसार राज्य की कोई जल नीति न होने के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में पानी की भारी कमी है और राज्य में वाटर डाटा सेंटर भी नहीं है। भारत का एक खूबसूरत राज्य उत्तराखंड जिसे गंगोत्री, यमुनोत्री, बद्रीनाथ और केदारनाथ जैसे तीर्थस्थलों के लिए प्रसिद्धी मिली है. यहां का प्राकृतिक सौंदर्य लोगों का मन मोह लेते हैं. इस राज्य को देवभूमि के नाम से जाना जाता है. धार्मिक मान्यताओं के साथ इस राज्य की एक और बड़ी भूमिका है. उत्तराखंड राज्य देश की एक बड़ी आबादी की प्यास भी बुझाता है. लेकिन वर्तमान समय में ये पहाड़ी राज्य भीषण जल संकट से गुजर रहा है. अमूमन ये माना जाता है कि जिस राज्य से गंगा जैसी विशाल नदी बहती हो वहां भला जल की क्या कमी हो सकती है, लेकिन सरकारी आंकड़े जो हकीकत बयां कर रहे हैं, वो बेहद चौंकाने वाले तो हैं ही साथ ही भयावह भी हैं. दरअसल, जहां दुनिया भर में ग्लोबल वार्मिंग का असर देखा जा रहा है. उत्तराखंड भी इससे अछूता नहीं है. उत्तराखंड के लिए एक पुरानी कहावत है कि पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी कभी भी यहां के काम नहीं आई. एक दो अपवादों को छोड़ दें तो यह काफी हद तक सही भी है. जो उत्तराखंड देश की एक बड़ी आबादी की प्यास बुझाता है, अब वहीं के लोगों के हलक सूख रहे हैं. पहाड़ों से निकलने वाले जल स्रोत छोटी-छोटी नदियां अब गायब हो रही हैं. ऐसा नहीं है कि सरकार और सिस्टम को इसकी जानकारी नहीं है. 6-8 महीने में एक बैठक करके हमारे नीति निर्धारक इस पर चर्चा करते हैं और अगले प्लान के लिए बजट करते हैं, लेकिन हालात यह है कि नीति आयोग की रिपोर्ट यह कह रही है कि उत्तराखंड में लगातार जल स्रोत सूख रहे हैं. जानकार तो यह भी मानते हैं कि पलायन का एक बड़ा कारण नौले-धारे और जल स्रोतों का सूखना भी है. इन सब के पीछे वजह जो भी हो, लेकिन इन हालातों की बड़ी वजह इंसान ही हैं. कुछ समय पहले तक जल स्रोतों को गांव के लोग देवता की तरह पूजते थे. साल में कई बार गांव इकट्ठा होकर इन नौले धारों और जल स्रोतों को संजोकर रखते थे. लेकिन आलम यह है कि धीरे-धीरे यह जल स्रोत आबादी वाले इलाकों में सूखने लगे हैं. जल स्रोत प्रबंधन कमेटी की रिपोर्ट कहती है कि, मौजूदा समय में उत्तराखंड में 4000 ऐसे गांव हैं जो जल संकट से जूझ रहे हैं. रिपोर्ट यह भी बताती है कि 510 ऐसे जल स्रोत हैं, जो अब सूखने की कगार पर आ गए हैं. सबसे ज्यादा असर अल्मोड़ा जनपद पर पड़ा है. यहां पर 300 से अधिक जल स्रोत सूख गए हैं. यहां तक कि उत्तराखंड में प्राकृतिक जल स्रोतों के जलस्तर में 60 फीसदी की कमी आई है. उत्तराखंड में 12000 से अधिक ग्लेशियर और 8 नदियां निकलती हैं. बावजूद इसके उत्तराखंड में मौजूदा समय में 461 जल स्रोत ऐसे हैं, जिनमें 76% से अधिक पानी अब बचा ही नहीं यानी पूरी तरह से सूख चुका है. इसके साथ ही प्रदेश में 1290 जल स्रोत ऐसे हैं, जिनमें 51-75 प्रतिशत पानी सूख चुका है. आंकड़े बताते हैं कि राज्य में 2873 जल स्रोत ऐसे हैं, जिनमें 50 प्रतिशत तक पानी कम हो चुका है और ये निरंतर कम हो रहा है. राज्य में सबसे अधिक जल संकट, टिहरी, पिथौरागढ़, चमोली, अल्मोड़ा, और बागेश्वर जिले में है. ऐसा नहीं है कि सिर्फ प्राकृतिक जल स्रोत कम हो रहे हैं. केंद्रीय जलशक्ति मंत्रालय की मानें तो राज्य में 725 ऐसे जलाशय हैं, जो पूरी तरह से सूख चुके हैं. उत्तराखंड में 3096 जलाशय हैं, जिसमें 2970 जलाशय ग्रामीण क्षेत्र में है, जबकि 126 जलाशय शहरी क्षेत्र में हैं. रिपोर्ट कहती है कि 2371 जलाशय में हाल ही में पानी जल स्रोतों को भगवान की तरह पूजा है. लेकिन आज पहाड़ों में हो रहा अनियंत्रित विकास और सड़कों का जाल जल स्रोतों के सूखने की प्रमुख वजह हैं. कहा कि युवा पीढ़ी भी जल स्रोतों और झरनों को फोटो खिंचवाने तक सीमित रख रही है. उन्होंने कहा कि संरक्षण के लिए आवाज तो उठ रही है, लेकिन धरातल पर नहीं उतर पा रही है. पाया गया था, जबकि 725 जल से पूरी तरह से सूख चुके हैं, जिसकी वजह मंत्रालय ने प्रदूषण फैक्ट्री और तालाबों के ऊपर बस्तियों को बताया था. जल स्रोतों को भगवान की तरह पूजा है. लेकिन आज पहाड़ों में हो रहा अनियंत्रित विकास और सड़कों का जाल जल स्रोतों के सूखने की प्रमुख वजह हैं. कहा कि युवा पीढ़ी भी जल स्रोतों और झरनों को फोटो खिंचवाने तक सीमित रख रही है. उन्होंने कहा कि संरक्षण के लिए आवाज तो उठ रही है, लेकिन धरातल पर नहीं उतर पा रही है. दक्षिण अफ्रीका का एक शहर केप टाउन पूरी तरह से जल विहीन शहर हो गया है. कहीं ऐसा ना हो कि आने वाले समय में हमारे छोटे-छोटे गांव भी जल विहीन ना हो जाएं. हैरानी यह है कि हमारे यहां से नदियां जा रही हैं और तमाम स्रोत हैं, जो कई राज्यों को पानी देते हैं. लेकिन हम और हमारी सरकार इसको बच्चा नहीं पा रही हैं. नदियों और जल स्रोतों पर लगता हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट भी इसके लिए दोषी हैं. उत्तराखंड सरकार ने जल स्रोतों को बचाने के लिए 2023 अक्टूबर महीने में एक एजेंसी का गठन किया था. स्प्रिंग एंड रिवर रिजुविनेशन अथॉरिटी यानी (सारा) एजेंसी भी बनाई गई थी. इसकी अंतिम बैठक नवंबर 2023 में उसे वक्त के मुख्य सचिव ने ली थी, जिसमें यह निर्णय लिया गया था कि उत्तराखंड के जल स्रोतों को पूर्ण जीवित करने के लिए वन पंचायत को जोड़ा जाएगा. सरकार लगातार इस दिशा में काम कर रही है. इसके लिए पहाड़ों की पंचायत को भी जोड़ा है. मंत्री मानते हैं कि बीते कुछ सालों में उत्तराखंड के जल स्रोतों को सूखने में इजाफा हुआ है, लेकिन वो कहते हैं कि इस दिशा में तेजी से आगे बढ़ा जा रहा है. पूर्व में टिहरी के तीन से चार गांव में कई वर्षों से चल रहे जल स्रोतों को दोबारा से पुनर्जीवित किया गया है. राष्ट्रीय हिमालय अध्ययन मिशन प्रोजेक्ट के तहत साल 2019 से यह प्रयास चल रहा था जो हाल ही में पूरा हुआ है. आने वाले समय में इसके परिणाम बेहद सुखद होंगे. लेकिन यह बात भी सही है कि केवल सरकार ही नहीं लोगों को भी इस दिशा में आगे कदम बढ़ाना होगा. उत्तराखंड में जल स्रोत सूखने के बाद पहाड़ी जिलों के अलावा मैदानी जिलों में भी परेशानियां बढ़ी हैं. देहरादून के विभिन्न क्षेत्रों में टैंकर के जरिए पानी पहुंचाया जा रहा है. देहरादून जिले में 142 जल स्रोत मौजूद हैं, जिनमें 46% ऐसे हैं, जिनका पानी 76% से ज्यादा सूख चुका है.इसी तरह पौड़ी में 645 में से 161 जल स्रोत सूख गए हैं. चमोली में 436 में से 36 सूख चुके हैं. उधर, रुद्रप्रयाग में 313 में से 5 जल स्रोत अब गायब हो गए हैं. नई टिहरी में 627 में से 77 जल स्रोत का पानी सूख चुके हैं. उत्तरकाशी में 415 में से 63 जल स्रोत सूख गए हैं.वहीं, नैनीताल में 459 में से 36, अल्मोड़ा में 570 में से 13, पिथौरागढ़ में 542 में से 25 जबकि, चंपावत में 277 और बागेश्वर में 198 में से एक-एक जल स्रोत 76% से ज्यादा सूख चुके हैं. ये आंकड़े बताते हैं कि आने वाला समय भयानक पेयजल संकट से गुजरेगा. हालांकि, जल संस्थान के अधिकारी गर्मियों में पानी की समस्या बढ़ने की स्थिति में पानी के टैंकर लगाने की बात कह रहे हैं. वैसे तो देशभर में भूजल के कम होने के पीछे इसके बेहद ज्यादा उपयोग और वाटर रिचार्ज की मात्रा कम होना माना जा सकता है, लेकिन एक बड़ी वजह पर्यावरण में आ रहा वो बदलाव भी है, जिसके कारण तमाम क्षेत्रों में बारिश का बेहद कम होना है और तापमान में बेहद ज्यादा बढ़ोत्तरी होना भी है. उत्तराखंड के लोकगायक नरेंद्र सिंह नेगी का एक गीत है- गंगा जमुना जी का मुल्क मनखी घोर प्यासा…कहने को तो ये गीत सालों पहले पिछली शताब्दी में गाया गया था. लेकिन इसकी बातें अब पूरी तरह सच साबित हो रही हैं. देश के अनेक राज्यों की प्यास बुझाने वाली गंगा और यमुना नदियों के प्रदेश के लोगों के हलक पानी के बिना सूख रहे हैं.प्रकृति के साथ ज्यादा छेड़छाड़ सही नहीं है. जब ऐसा होता है तो प्रकृति खुद के स्वरूप को पुनर्स्थापित करने के लिए कुछ ऐसे बदलाव करती है जो इंसानों पर भारी पड़ सकते हैं. लिहाजा जो संकेत पेयजल को लेकर मिल रहे हैं, उन पर जल्द से जल्द गंभीर विचार कर कदम उठाना बेहद जरूरी है. नहीं तो पहाड़ से नीचे नदी तो दिखेगी, लेकिन पहाड़ पर पीने का पानी नहीं होगा.लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।