श्रुति एवं स्मृति क्या है?

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श्रुति एवं स्मृति क्या है?

हिन्दू धर्म में सबसे अधिक पूछे जाने वाले प्रश्नों में से एक है कि अति प्राचीन होने के बाद भी हिन्दू धर्म के धर्मग्रंथों में लिखे ज्ञान को सुरक्षित कैसे रखा गया। यदि हम आधुनिक काल गणना की भी बात करें तो महाभारत का कालखंड ७००० वर्ष एवं रामायण का कालखंड १४००० वर्ष पूर्व का बताया गया है। हिन्दू धर्म के सबसे प्राचीन ग्रंथ वेदों को लगभग २८००० वर्ष प्राचीन बताया जाता है। अब प्रश्न ये है कि ये सारे धर्मग्रन्थ तो आज भी हमारे पास हैं। फिर इस अथाह ज्ञान को इतने लम्बे समय तक किस प्रकार संचित किया गया? आइये इसे समझते हैं।

ये प्रश्न बिलकुल उचित है क्यूंकि आज हमारे पास कागज है किन्तु कुछ शताब्दियों पूर्व तक वो नहीं था। पूराने समय में हम “ताड़पत्रों” का उपयोग करते थे। ताड़पत्र वृक्षों के छाल से बनाया जाता था जिसे कागज की ही भांति उपयोग में लाया जाता था। उससे भी अधिक पीछे जाएँ तो बहुत महत्वपूर्ण जानकारियों को पत्थर पर उकेर का सहेजा जाता था जिसे “शिलालेख” कहते थे। किन्तु यहाँ हम कुछ सहस्त्र वर्ष पुरानी बात नहीं कर रहे हैं। हम बात कर रहे हैं ७००० वर्ष और उससे भी अधिक पहले के समय की। उस समय शिलालेखों का भी प्रचलन नहीं था। यदि था भी तो भी रामायण (२४००० श्लोक), महाभारत (१००००० श्लोक) एवं पुराणों (४०००००+ श्लोक) जैसे विशाल ग्रंथों को शिलालेख पर लिखना संभव नहीं है।
वास्तव में इसका आधार हिन्दू धर्म की वो तकनीक है जो हमारे अति प्राचीन “गुरु-शिष्य” परंपरा की नीव है। प्राचीन काल में जो भी ज्ञान गुरु के पास होता था वो उसे अपने सभी शिष्यों को सुनाते थे। उसी ज्ञान को श्रवण करना “श्रुति” कहलाता था। श्रुति का अर्थ होता है सुनना। उस ज्ञान को सुनकर शिष्य उसे याद करने का प्रयत्न करते थे। गुरु से मिले ज्ञान को याद रखना ही “स्मृति” कहलाया। स्मृति का अर्थ होता है स्मरण करना अथवा याद रखना। इस प्रकार वो ज्ञान गुरु से शिष्य और फिर उस शिष्य से उनके शिष्यों तक हस्तांतरित होता रहता था। अर्थात शिष्य अपने गुरु से मिले ज्ञान को पहले याद करते थे और फिर उस ज्ञान को अपने शिष्यों को प्रदान करते थे। फिर वही कार्य उनके शिष्य भी करते थे और ये क्रम चलता जाता था। फिर बाद में जब शिलालेख एवं ताड़पत्र प्रचलन में आये तो हमने उस ज्ञान को उसमें लिखकर सहेज लिया। इसी प्रकार हमने अपने अथाह ज्ञान को आज तक संभल कर रखा है।
गुरु के अनेकानेक शिष्यों में केवल चुनिंदा ही ऐसे होते थे जो अपने गुरु से मिले ज्ञान को पूर्ण रूप से याद रख पाते थे। जो ऐसा कर पाते थे केवल वही “ऋषि” कहलाते थे। आज कल हम किसी भी अध्ययन करने वाले को ऋषि कहते हैं किन्तु ऐसा नहीं है। ऋषिपद प्राप्त करना अत्यंत कठिन था और केवल कुछ ही इसे प्राप्त कर पाते थे। उन ऋषियों में जो ऐसे होते थे जो उस ज्ञान के अतिरिक्त स्वयं नई ऋचाओं का निर्माण कर सकते थे उन्हें ही “महर्षि” कहा जाता था। महर्षि, अर्थात महान ऋषि बनना अत्यंत कठिन कार्य था। उन महर्षियों में भी जो सर्वश्रेष्ठ एवं उत्कृष्ट होते थे वे “ब्रह्मर्षि” पद को प्राप्त करते थे। आज तक इस संसार में ब्रह्मर्षि बहुत ही कम हुए हैं। महर्षि वशिष्ठ उनमें से एक थे और बाद में उन्होंने ये पद महर्षि विश्वामित्र को भी प्रदान किया।
हमारे महर्षियों ने ज्ञान को हस्तांतरित करने की कुल ११ विधियों के बारे में बताया था किन्तु आज केवल  विधियाँ ही प्रचलन में बची हैं। ये हैं – जटा पाठ, ध्वजा पाठ एवं घन पाठ
तो संक्षेप में समझें तो श्रुति और स्मृति द्वारा ही आज तक इतने अथाह ज्ञान को सहेज कर रखा गया। इन्ही दोनों के नाम पर हमारे धर्मग्रंथों को श्रुति और स्मृति के रूप में विभक्त किया गया है। यदि श्रुति या स्मृति में किसी प्रकार का भ्रम हो तो इसे एक दूसरे की सहायता से दूर किया जा सकता है। आइये इन दोनों को थोड़ा विस्तार में समझते हैं।
  • श्रुति: ये प्राचीनतम ग्रन्थ माने जाते हैं और हिन्दू धर्म में इनका स्थान प्रथम है। केवल वेदों को ही श्रुति में सम्मलित किया जाता है। वेदों की उत्पत्ति सर्वप्रथम भगवान ब्रह्मा ने की। ऐसी मान्यता है कि ब्रह्मा के ४ मुख से ही ४ वेदों की प्रथम श्रुति हुई। वेदों का ज्ञान परमपिता ने सर्वप्रथम अपने १६ मानस पुत्रों को दिया। ये ४ वेद हैं – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद। ये सभी वेद भी ४ भागों में बंटे हैं – संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक एवं उपनिषद। इन चारों के भी अनेक उप-विभाग हैं। आज हम आम तौर पर किसी भी धार्मिक पुस्तक को धर्मग्रन्थ कह देते हैं किन्तु वास्तव में ये सत्य नहीं है। केवल श्रुतियों को ही धर्मग्रन्थ कहलाने का अधिकार प्राप्त है।
  • स्मृति: श्रुति के बाद स्मृति प्राचीनतम है। श्रुति के अतिरिक्त जो कुछ भी उपलब्ध है वो सब स्मृति में सम्मलित किया जाता है। स्मृतियाँ कई हैं किन्तु उनमें से भी १८ मूल स्मृतियाँ मानी जाती है। ये हैं – अत्रि, विष्णु, हरिता, औशनस, अंगिरा, यम, आपस्तम्ब, संवर्त, कात्यायन, बृहस्पति, पराशर, व्यास, शंख, लिखित, दक्ष, गौतम, शतातप एवं वशिष्ठ स्मृति। इसके अतिरिक्त अन्य मुख्य स्मृतियाँ हैं – मनु, याज्ञवल्क्य, नारद, उमव्रत, गार्गेय, देवल, शरतातय, कश्यप, भृगु एवं प्रचेता। इन सब में भी मनुस्मृति सबसे प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त ४ उप-वेद – आयुर्वेद, धनुर्वेद, गंधर्ववेद एवं शास्त्रार्थ भी स्मृति के ही भाग हैं। इसके अतिरिक्त भी जो कुछ भी उपलब्ध है वो स्मृति का ही भाग है। रामायण, महाभारत, भगवद्गीता, महापुराण, उप-पुराण, शाखा, ब्रह्मसूत्र, धर्मशास्त्र, योगसूत्र, अरन्याक्ष, वेदांग, कर्मकांड इत्यादि सब स्मृति के भाग हैं।
संक्षेप में – श्रुति ईश्वर (ब्रह्मा) रचित है और स्मृति मानव रचित। श्रुति में केवल वेद हैं और जो श्रुति में नहीं है, वो सब स्मृति में है।
हम सभी को अपने धर्म एवं पाने पूर्वजों पर गर्व करना चाहिए जिन्होंने इस अथाह ज्ञान को हमारे लिए सहेज कर रखा और ये हमारा दायित्व है कि हम इस ज्ञान को अपने आने वाली पीढ़ी को प्रदान करें। इसीलिए अपने धर्म पर जितना भी गर्व करें कम है। जय ब्रह्मदेव
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