क्या कागजी कसरतों से हो पाएगा जैव विविधता का संरक्षण? डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

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डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

 

दुनियाभर में यह हर साल 22 मई को मनाया जाता है। इसका प्रमुख उद्देश्य लोगों को जैव-विविधता के प्रति जागरुक करना है। जीव जगत के हित में इसके कई महत्व हैं। इसकी पहल 90 के दशक में तब की गई थी, जब संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वाधान में साल 1992 में ब्राजील के रियो डी जनेरियो में “पृथ्वी सम्मेलन” आयोजित किया गया था। उस सम्मेलन में पर्यावरण संरक्षण पर विशेष जोर दिया गया था। उससे अगले वर्ष 1993 को 29 दिसंबर को पहली बार जैव-विविधता दिवस मनाया गया।यह आंशिक रूप से 1992 में रियो पृथ्वी शिखर सम्मेलन में कन्वेंशन को अपनाने के लिए और आंशिक रूप से दिसंबर के अंत में होने वाली विभिन्न अंतरराष्ट्रीय छुट्टियों के साथ टकराव से बचने के लिए किया गया था। तो चाहे आप एक रेगिस्तानी जलवायु, जंगल, घाटी या दलदल से हों, इस 22 मई को जैविक विविधता का जश्न मनाएं।इस दिन को उन छात्रों का समर्थन करने के लिए मनाएं जो हमारे पर्यावरण के बारे में सीखना चाहते हैं और इस पृथ्वी के जैविक विविधीकरण में गहराई से गोता लगाने में मदद करते हैं। अब तक, पृथ्वी जैव विविधता के पांच बड़े पैमाने पर विलुप्त होने से पहले ही गुजर चुकी है, जो ज्यादातर प्राकृतिक घटनाओं जैसे ज्वालामुखी विस्फोट, गहरे हिम युग, उल्कापिंड के प्रभाव और टकराने वाले महाद्वीपों के कारण होती है। हालांकि, कुछ लोगों का मानना है कि छठा आने वाला है और इस बार यह इंसानों की वजह से होगा।जैविक विविधता संसाधन वे स्तंभ हैं जिन पर हम सभ्यताओं का निर्माण करते हैं। मछली लगभग तीन अरब लोगों को 20 प्रतिशत पशु प्रोटीन प्रदान करती है। मानव आहार का 80 प्रतिशत से अधिक पौधों द्वारा प्रदान किया जाता है। विकासशील देशों में ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले 80 प्रतिशत लोग बुनियादी स्वास्थ्य देखभाल के लिए पारंपरिक पौधों पर आधारित दवाओं पर निर्भर हैं।जैव विविधता के नुकसान से हमारे स्वास्थ्य सहित सभी को खतरा है। यह साबित हो चुका है कि जैव विविधता के नुकसान से ज़ूनोस का विस्तार हो सकता है – जानवरों से मनुष्यों में फैलने वाली बीमारियां, जबकि, दूसरी ओर अगर हम जैव विविधता को अक्षुण्ण रखते हैं, तो यह कोरोनविर्यूज़ के कारण होने वाली महामारियों से लड़ने के लिए उत्कृष्ट उपकरण प्रदान करता है।प्रजातियों की विलुप्त होने की दर पहले की तुलना में लगभग 1,000 गुना अधिक है।जैव विविधता में वर्तमान निवेश वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का मुश्किल से 0.1 फीसदी है।महत्वपूर्ण क्षेत्र के निवेशक कृषि, जल उपचार और टिकाऊ सामग्री में अंतर ला सकते हैं।यह अनुमान लगाया गया है कि घरेलू पशु पृथ्वी की ऊर्जा का 25 से 40 फीसदी का उपभोग करते हैं, जिसे पौधों द्वारा कब्जा कर लिया जाता है, जो जैव विविधता को स्वयं को बनाए रखने में मदद करता है।सभी कशेरुकी जमीन पर रहने वाले प्राणियों में से 97 फीसदी या तो मनुष्य या कृषि से संबंधित हैं। विकास की प्रक्रिया में मानवीय हस्तक्षेप से छेड़छाड़ की जा रही है, या तो प्रजातियों को स्थानांतरित करके या आनुवंशिक बदलावों द्वारा। यह जैविक विविधता के नाजुक संतुलन के लिए विनाशकारी हो सकता है। अंतर्राष्ट्रीय जैव विविधता दिवस मना रही है। हर साल की तरह ही एक बार फिर जैव विविधता संरक्षण की बातें होंगी, संगोष्ठी होंगी और औपचारिक कार्यक्रम होंगे। हर दस मिनट में जीवों की औसतन एक प्रजाति खत्म हो रही है। लेकिन क्या इससे हमें फर्क पड़ता है। शायद नहीं, क्योंकि हम ये नहीं जानते कि आखिर जैव विविधता के मायने क्या हैं और ये सीधे-सीधे हमें किस तरह प्रभावित कर रहे हैं।तो पहले यही समझते हैं कि जैव विविधिता का मतलब है? जैव यानी धरती, जल और नभ में विचर रहे जीव, इनमें पेड़, पौधे, पक्षी, जानवर, सूक्ष्म जीव, फंफूद तक शामिल हैं। इन जीवों की विविधता को ही जैव विविधता का नाम दिया गया है। यानी कि जैव विविधता के बिना कुदरत की कल्पना ही बेमानी है।इसी जैव विविधता की बदौलत इंसानों को जीने लायक बहुत सी चीजें नसीब हैं। जैसे कि पेड़ों के बिना ऑक्सीजन, पौधों और मधुमक्खी जैसे कीटों के परागण के बिना भोजन,  मछलियों के बिना साफ पानी हमें नहीं मिलता, लेकिन फिर भी हम इनकी परवाह नहीं करते।जैव विविधता संरक्षण के लिए गठित अंतर्राष्ट्रीय संस्था द इंटरगवर्नमेंटल साइंस-पॉलिसी प्लेटफॉर्म ऑन बायोडाइवर्सिटी एंड इकोसिस्टम सर्विसेज (आईपीबीईएस) का अनुमान है कि दुनिया में लगभग 80 लाख जीव  प्रजातियां मौजूद हैं, लेकिन साल 2030 तक इनमें से करीब 10 लाख प्रजातियां खत्म हो सकती हैं। आईपीबीईएस का कहना है कि जैवविविधता क्षरण की दर खतरे के निशान पर पहुंच चुकी है और  हर 10 मिनट में औसतन एक प्रजाति खत्म हो रही है।संयुक्त राष्ट्र के कन्वेंशन ऑन बायोलॉजिकल डाइवर्सिटी में कार्यकारी सचिव ने स्पष्ट रूप से कहा था कि इंसान ही इसके लिए जिम्मेदार हैं। इंसानी हरकतों की वजह से 97 फीसदी वैश्विक जैवविविधता नष्ट हो चुकी हैं। भारत के कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में होने वाले सेब के उत्पादन में इसलिए 20 से 30 प्रतिशत कमी का अनुमान लगाया जा रहा है, क्योंकि सेब के फूलों का परागण सही ढ़ंग से नहीं हो पाया। इसकी वजह रही, मधुमक्खियां।सेबों के फूल जब विकसित हो रहे होते हैं तो मधुमक्खियां एक फूल से पराग लेकर दूसरे फूल तक पहुंचाती हैं, जिससे फूल विकसित होकर फल बनने लगते हैं, लेकिन जब परागण का समय होता है तो उस समय भारी बारिश और तापमान में गिरावट की वजह से मधुमक्खियों बक्सों से बाहर नहीं निकल पाई और वे डिब्बे में ही मर गई। जिसकारण सेब के फूल फल नहीं बन पाए। खास बात यह थी कि ये मधुमक्खियां भारतीय नहीं हैं। इन्हें इटली से लाया गया था।भारतीय मधुमक्खियां लगभग खत्म हो गई हैं। इसकी तीन बड़ी वजह यह हैं कि ये जंगली मधुमक्खियां थी, जो जंगलों-पेड़ों में छत्ते बना कर रहती थी, लेकिन हिमाचल-कश्मीर में बड़ी तादात में जंगलों को काटा गया और वहां व्यावसायिक बागान विकसित कर दिए गए। इससे मधुमक्खियों का प्राकृतिक आवास खत्म हो गया।दूसरी वजह यह रही है कि बागवानों ने अधिक से अधिक फलों का उत्पादन करने के लिए न केवल रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल किया, बल्कि कीटनाशकों का भी उपयोग बढ़ गया। इनकी वजह से जंगली मधुमक्खियां मरती गई।तीसरी वजह जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग है। जब जंगली मधुमक्खियां नहीं रही तो अब मधुमक्खी पालकों की विदेशी मधुमक्खियों से परागण कराया जा रहा है, लेकिन अब वे भी मर रही हैं। ऐसे में हम यह नहीं कह सकते हैं कि आने वाले कितने सालों तक हम हिमाचल-कश्मीर के सेब और खा सकते हैं।यह एक उदाहरण मात्र है, जिससे आसानी से हम समझ सकते हैं कि जैव विविधता की अद्भुत देन मधुमक्खियों की वजह से हम क्या खो सकते हैं। जनवरी 2021 में जर्नल वन अर्थ में छपे एक शोध रिपोर्ट छपी, जिसमें कहा गया कि सन 1990 से 2015 यानी 25 साल  के दौरान मधुमक्खियों की करीब एक चौथाई प्रजातियों को फिर से नहीं देखा गया।ऐसा नहीं है कि दुनिया इस खतरे को पहचान नहीं रही है, बल्कि दुनिया भर के संगठन जैव विविधता के संरक्षण को लेकर अपने-अपने स्तर पर काम भी कर रहे हैं। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र की ओर से हर साल एक सम्मेलन किया जाता है, जिसे कॉनवेंशन ऑन बायोलॉजिकल डायवर्सिटी (सीबीडी) कहा जाता है। अब तक 15 सम्मेलन हो चुके हैं।15वां सम्मेलन 7 दिसंबर 2022 से 19 दिसंबर 2022 तक कनाडा के मॉन्ट्रियल शहर में किया गया। इस सम्मेलन में साल 2030 तक कम से कम 30 प्रतिशत धरती की रक्षा करने के लिए 23 लक्ष्य तय किए गए। यह भी तय किया गया कि अमीर देश, विकासशील देशों को हर साल 30 बिलियन डॉलर की सहायता देंगे, ताकि उनके पारिस्थितिक तंत्र को बचाया जा सके।इसे एक बड़ी उपलब्धि के तौर पर देखा गया, क्योंकि गरीब व विकासशील देशों का कहना है कि अमीर देशों के कृत्यों की वजह से जहां प्रकृति व पर्यावरण को नुकसान हो रहा है, वहीं जैव विविधता के नुकसान के लिए भी यही देश सबसे ज्यादा जिम्मेवार हैं। उन्हें इसका खामियाजा देना चाहिए।हालांकि इसी सम्मेलन में जारी एक रिपोर्ट में कहा गया कि अब तक जितने भी सम्मेलन हुए हैं, उनमें जो भी लक्ष्य तय किया गया, उन्हें हासिल नहीं किया जा सका।अगर केवल भारत की ही बात करें तो जैव विविधता को नुकसान की दृष्टि से भारत बेहद अहम स्थान रखता है। इसकी बड़ी वजह यहां की आबादी है। हाल ही में आई एक रिपोर्ट में कहा गया कि आबादी की दृष्टि से भारत ने चीन को पीछे छोड़ दिया है। ऐसे में, भारत को अपनी जैव विविधिता के संरक्षण के लिए युद्ध स्तर पर प्रयास करने होंगे।भारत ने 2010 में जैव विविधता पर मंडराते संकट से निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में भारत ने अन्य देशों के साथ मिलकर अपने-अपने देशों में 2020 तक कम से कम 17 फीसदी हिस्से को संरक्षित का संकल्प लिया था।इसे आइची लक्ष्य 11 के रूप में जाना जाता है। इस लक्ष्य के तहत कम से कम 10 फीसदी तटीय और समुद्री क्षेत्र को संरक्षित करने पर सहमति जताई गई थी। लेकिन यूनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड का एक अध्ययन बताता है कि 2020 तक देश में केवल 6 फीसदी से भी कम हिस्सा संरक्षित क्षेत्र के रूप में घोषित किया गया था।भारत में 1,73,306.83 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र संरक्षित है, जोकि देश के कुल भूभाग का महज 5.27 फीसदी हिस्सा है। इनमें  106 नेशनल पार्क, 565 वाइल्ड लाइफ रिजर्व, 100 रिजर्व और 219 कॉम्युनिटी रिजर्व शामिल हैं।यहां यह खास बात यह है कि एक ओर जहां देश में बाघों की संख्या बढ़ रही है, वहीं टाइगर रिजर्व क्षेत्र घटने के कारण बाघ इंसानी बस्तियों में आ रहे हैं, जो इंसानों और बाघों के बीच संघर्ष का कारण बन रहे हैं। ऐसे में, हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि भारत आगामी 2030 तक 30 फीसदी हिस्से को संरक्षित यानी रिजर्व कर पाएगा।इस दौरान आए कुछ अन्य अध्ययन भी चौंकाने वाले हैं। जैसे कि बॉटनिक गार्डनस कंजर्वेशन इंटरनेशनल द्वारा जारी रिपोर्ट स्टेट ऑफ द वर्ल्डस ट्रीज में कहा गया कि भारत में पेड़ों की 2,603 प्रजातियां हैं, जिनमें से 18 प्रतिशत यानी 469 प्रजातियों पर विलुप्त होने का खतरा है।इस रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में पेड़ों की करीब 58,497 प्रजातियां हैं। जिनमें से करीब 29.9 फीसदी (17,510) प्रजातियों पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। वहीं, ‘स्टेट ऑफ दि वर्ल्ड बर्ड्स में प्रकाशित रिपोर्ट में कहा गया कि दुनिया भर में मौजूदा पक्षी प्रजातियों में से लगभग 48 फीसदी आबादी गिरावट के दौर से गुजर रही है।जैव विविधता की दृष्टि से ऐसी रिपोर्टें चिंता का भाव जगाती हैं। ऐसे में अनुमान है कि धरती पर इंसान ही अकेला ऐसा जीव है, जिसकी आबादी बढ़ रही है, शेष सभी जीवों की आबादी इंसानों के लालची व्यवहार के कारण खत्म होती जा रही हैं।लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।

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