उत्तराखंड की ऊनी कालीन को अब मिलेगी अंतरराष्ट्रीय पहचान
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
सीमांत का हस्तशिल्प अब बदल रहा है। भारी और परंपरागत डिजाइन की जगह हल्के और आधुनिक डिजाइन के साथ हो रहे इस बदलाव से उम्मीदें बढ़ रही है।अतीत में उत्तराखंड के सीमांत का हस्तशिल्प उद्यम काफी समृद्ध रहा है। यहां के दन-कालीन, पंखी, कंबल, चुटके कभी भारत-चीन व्यापार के साथ ही देश के विभिन्न इलाकों तक पहुंचते रहे। सदियों से चल रहा इस उद्योग में अस्सी के दशक के बाद गिरावट आने लगी। 91 में उदारीकरण के बाद विदेशों से आने वाले माल ने सीमांत के उद्यम को लगभग बेदम कर दिया था। सीमांत के लोग इस उद्यम से हाथ खींचने लगे थे। कभी हर घर में चलने वाला यह कारोबार कुछ ही घरों में सीमित हो गया। राज्य के सीमांत जिलों में उत्तरकाशी, चमोली, पिथौरागढ़ और बागेश्वर में भेड़ पालन भोटिया जनजाति की आजीविका का प्रमुख साधन वर्षों से रहा है। और यह जनजाति भेड़ से ऊन निकालकर कई प्रकार के वस्त्र उत्पाद तैयार करती है जिनमें स्वेटर, शॉल, पंखी, जुराब, मफलर टोपी और भोटिया दन यानी ऊनी कालीन काफी मशहूर हैं। और इन सभी उत्पादों को विशुद्ध रूप से हाथ से तैयार किया जाता है लिहाजा इसे बनाने में काफी समय तो लगता ही है साथ ही मेहनत भी बहुत लगती है और यह काफी असरदार और महंगी भी होती है। बाजार में इस समय सस्ते कालीन की भरमार है राज्य में कुटीर उद्योगों के विकास की सरकारी योजनाएं धरातल पर कितनी उतर पाई हैं, इसका अंदाजा जाड़ भोटिया जनजाति के पारंपरिक वस्त्र उद्योग की हालात देखकर लगाया जा सकता है। सरकारी प्रोत्साहन के अभाव में पुराने ढर्रे पर तैयार उत्पाद बाजार में प्रतिस्पर्धा का सामना नहीं कर पा रहे हैं, इसके चलते हस्तशिल्प का यह कारोबार दम तोड़ रहा है।उत्तारकाशी जनपद में जाड़ भोटिया जनजाति के करीब तीन सौ परिवार हैं। भेड़ की ऊन के कंबल, कालीन, शॉल व अन्य गर्म कपड़े बनाकर बेचना कभी इनकी आमदनी का मुख्य जरिया था, लेकिन समय के साथ सरकारी प्रोत्साहन व ढांचागत सुविधाएं न मिलने से कुटीर उद्योग को जीवित रखना कारीगरों के लिए दूभर हो रहा है। ऊन प्रसंस्करण के लिए कार्डिग व स्पिनिंग प्लांट न होने से यह परंपरागत तरीके से ही ऊन की सफाई व कताई करते हैं। कड़ी प्रतिस्पर्धा में यह प्रक्रिया कारगर नहीं है। इस क्षेत्र में हर्षिल क्रॉस वाली उच्च गुणवत्ता की ऊन उत्पादित होती है। जो गुणवत्ता में श्रेष्ठ मानी जाती है, भोटिया जनजाति को लोग रहते हे। जो अपनी आजिविका तीर्थाटन और पर्यटन से चलाते है। यहां के हाथों से बने ऊनी वस्त्र एवं गलीचे, कालीन, दन,शॉल,पंखी सहित अन्य चीजे पर्यटक एवं श्रद्धालु यहां से ले जाते है। पीतांबर मोल्फा माणा गांव के निवासी कहते है कि माणा हैरिटेज विलेज बनने से गांव में न केवल पर्यटन की सुविधाओं का विकास होग। और बल्कि स्थानिय लोगो के लिए रोजगार के साधन भी विकसित होगें लेकिन सुविधा के अभाव में व्यवसायी ऊन को राज्य से बाहर की मंडियों में कौड़ियों के भाव बेचने को मजबूर हैं।लिहाजा यह दन का बाजार अब सिमट रहा है । इन्हीं सब व्यवस्थाओं के बीच उत्तरकाशी की संकल्प सामाजिक संस्था ने इस दन यानी कालीन की जीआई टैग यानी भौगोलिक संकेत प्रदान करने के लिए 2017 में आवेदन किया था, लिहाजा अब जीआई टैग आवेदन की स्वीकृति अंतिम चरण पर है। अतः इसे जल्द भौगोलिक पहचान मिलना तय है जिसके बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भोटिया जनजाति के लोगों द्वारा तैयार किए जाने वाले भेड़ की ऊन से विशेष कालीन को अलग पहचान मिलेगी। दरअसल जी आई टैग अंतरराष्ट्रीय बाजार में एक ट्रेडमार्क की तरह काम करता है। इस टैग से कृषि, प्राकृतिक या निर्मित उत्पादों की गुणवत्ता और विशिष्टता का एक विशेष पहचान देता है जो कि एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र से संबंधित होते हैं। और भारत में यह टैग भौगोलिक पंजीयक रजिस्ट्रार की ओर से जारी किए जाते हैं। यहां सालाना 1400 कुंतल ऊन का उत्पादन होता है। बावजूद इसके कुटीर उद्योगों को बुरे दिन हैं। इस कारण जाड़ भोटिया समुदाय की नई पीढ़ी पुश्तैनी पेशे से विमुख हो रही है। यदि राज्य सरकार समय रहते कुटीर उद्योगों को बचाने के ठोस प्रयास नहीं करती है तो स्वरोजगार व स्वावलंबन का प्रतीक यह उद्यम ही दम तोड़ देगा।’ऊन उद्योग को बढ़ावा देने के लिए जिला मुख्यालय में एक कार्डिग मशीन सहित इंपोरियम के जरिये विपणन की सुविधा उपलब्ध है। इससे सुधार हुआ है। युवा व्यवसायी भी इस क्षेत्र में आगे आ रहे हैं।’ भोटिया दन एक प्रकार का कालीन है। उत्तरकाशी, पिथौरागढ़ समेत सीमांत क्षेत्रों में यह दन बनाई जाती हैं। उत्तरकाशी की भोटिया दन को जीआइ टैग मिला है, लेकिन यह संपूर्ण राज्य के लिए है। प्रधानमंत्री के ‘वोकल फार लोकल’ के नारे को धरातल पर आकार देने की दिशा में उत्तराखंड तेजी से कदम बढ़ा रहा है। राज्य के एक साथ सात उत्पादों को भौगोलिक संकेतांक (जीआइ) का टैग मिलना इसकी तस्दीक करता है। इसके साथ ही यहां के ऐसे उत्पादों की संख्या बढ़कर अब आठ हो गई है। यही नहीं, 11 और उत्पादों का जीआइ टैग लेने के लिए कवायद शुरू कर दी गई है। विशेष भौगोलिक पहचान का यह टैग मिलने से जहां इन उत्पादों की राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ब्रांडिंग होने से बाजार में इनकी मांग बढ़ेगी, वहीं बेहतर दाम मिल सकेंगे। जाहिर है इससे यहां की आर्थिकी सशक्त होगी। भोटिया दन एक प्रकार का कालीन है। उत्तरकाशी, पिथौरागढ़ समेत सीमांत क्षेत्रों में यह दन बनाई जाती हैं। उत्तरकाशी की भोटिया दन को जीआइ टैग मिला है, लेकिन यह संपूर्ण राज्य के लिए है। राज्य में अब तक आठ उत्पादों को जीआइ टैग मिलने के बाद इन्हें बढ़ावा देने और बाजार की मांग के अनुरूप इनके उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिए कमर कसने लगे हैं। उद्योग विभाग के निदेशक के अनुसार जीआइ टैग से उत्पाद की मार्केट वेल्यू तो बढ़ती ही है, यह भी स्पष्ट होता है कि संबंधित उत्पाद वास्तविक रूप से उस क्षेत्र का है। इससे क्रेता भी आकर्षित होते हैं।उन्होंने बताया कि जीआइ टैग वाले उत्पादों को बाजार की मांग के अनुरूप ढालने के लिए इनसे जुड़े व्यक्तियों को प्रशिक्षित करने की योजना बनाई जा रही है। जो लोग इन उत्पादों से जुड़े हैं, उनके पंजीकरण की व्यवस्था की जा रही है। इसके साथ ही देश-विदेश में आयोजित होने वाली प्रदर्शनियों में ये उत्पाद प्रदर्शित किए जाएंगे।
लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत है।