दुनिया की सारी मुश्किलें जी20 जैसे गुटों ने कीं पैदा डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

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Dehradun :-जी20 की अध्यक्षता भारत को मिलना ऐसा प्रचारित किया जा रहा है, मानो यह एक अजूबा हो। पर ऐसा नहीं है और न ही इसमें कोई कूटनीतिक जीत है। ऐसी बातें तब कही जानी चाहिए थी, यदि इसकी स्थापना के 20 वर्षों बाद भी यह अवसर भारत को नहीं मिलता, पर अभी तो सत्ता स्तर पर इसकी स्थापना के 17 वर्ष ही हुए हैं। जी20 अमीर और तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था वाले देशों का समूह है, और इसका उद्देश्य है आपसी व्यापार को और व्यापारिक हितों को बढ़ावा देना। इसके सदस्य हैं – अर्जेंटीना, ऑस्ट्रेलिया, ब्राज़ील, कनाडा, चीन, यूरोपियन यूनियन, फ्रांस, जर्मनी, भारत, इंडोनेशिया, इटली, जापान, मेक्सिको, रूस, सऊदी अरब, साऊथ अफ्रीका, साउथ कोरिया, तुर्की, यूनाइटेड किंगडम और अमेरिका। इन देशों में से सबसे धनी – अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, जापान, इटली, जर्मनी, फ्रांस और कनाडा – का एक दूसरा समूह या मनोरंजन क्लब भी है, जिसे दुनिया जी7 के नाम से जानती है।भारत के पास अध्यक्षता आने पर तमाम शहरों में इसके विज्ञापन भी लगाए गए हैं, जिसमें “एक दुनिया, एक परिवार, और एक भविष्य” का नारा वसुधैव कुटुम्बकम के साथ लिखा है। कहीं-कहीं तो इसके विज्ञापन के साथ गांधी जी भी खड़े दिख रहे हैं। दुनिया में 190 से अधिक देश हैं और सबसे बड़ा प्रश्न तो यही है कि इनमें से महज 20 देशों के समूह को एक विश्व और एक परिवार से कैसे जोड़ा जा सकता है? यदि जी20 एक दुनिया, एक परिवार, एक भविष्य पर सही में विश्वास रखता है तब तो इसे सबसे पहले जी20 समूह को ही ध्वस्त करना होगा। एक समूह से बंधकर कोई कैसे पूरे दुनिया की बात कर सकता है? पूरी दुनिया तो दूर, इसका अध्यक्ष देश, भारत, ही अपने देश के लोगों को एक परिवार नहीं मानता। हाल में ही मुंबई में जी20 समूह की कोई बैठक थी, उस दौरान मुंबई के सभी झोपड़-पट्टी इलाकों के बाहर सफ़ेद कपड़ा खड़ा कर दिया गया था, जिससे विदेशी प्रतिनिधि इन्हें नहीं देख सकें। जाहिर है हमारी सरकार विदेशी प्रतिनिधियों को केवल ऊंची भव्य इमारतें, चौड़ी सड़कें और लम्बे पुल दिखाना चाहती है, झोपड़-पट्टी नहीं। क्या आपने कभी ऐसा परिवार देखा है, जहां परिवार के एक सदस्य को दूसरे सदस्य के सामने आने नहीं दिया जाए, क्योंकि वह गरीब है, झोपड़-पट्टी में रहता है?भारत भले ही एक दुनिया एक परिवार की बात करता हो, पर तथ्य तो यही है कि भारत की तरह तमाम गुटों में शामिल होने वाला देश शायद ही कोई दूसरा हो। भारत जी15, जी20 और जी55 समूह का सदस्य है; ब्राज़ील, रूस, चाइना और साउथ अफ्रीका के साथ ब्रिक्स का सदस्य है; इजराइल, अमेरिका और यूनाइटेड अरब एमीरात के साथ आई2यू2 का सदस्य है; ऑस्ट्रेलिया ग्रुप और शंघाई कोआपरेटिव समूह का सदस्य है; ईस्ट एशिया समूह के साथ ही बंगाल की खाड़ी से लगे देशों के संगठन बिम्सटेक का सदस्य है; एसोसिएशन ऑफ़ साउथ ईस्ट एशियाई नेशंस यानि आसियान का सदस्य है और साउथ एशियाई एसोसिएशन फॉर रीजनल कोऑपरेशन यानि सार्क का सदस्य भी है। ये सभी गुट या समूह अपने हितों को साधने के लिए बनाए गए हैं, न कि दुनिया को एक करने के लिए। एक दुनिया का नारा तभी सार्थक लगता है, जब दुनिया तमाम गुटों/समूहों/गिरोहों से मुक्त हो। गरीबों को ढकने का यह कारनामा देश के लिए नया नहीं है। वर्ष 2020 के शुरू में कोविड 19 के खतरे के बीच बड़े शोरशराबे के साथ तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति और एक निरंकुश आत्ममुग्ध शासक डोनाल्ड ट्रम्प हमारे प्रधानमंत्री के बुलावे पर अहमदाबाद पहुंचे थे। कोविड 19 के खतरों के बीच भी उनके स्वागत में तत्कालीन सरदार पटेल स्टेडियम खचाखच भर दिया गया, उनके स्वागत में नारे लगवाये गए – पर अहमदाबाद की झुग्गी-बस्तियों के बाहर टाट की दीवार खडी कर दी गयी थी। इसके बाद भी हम एक दुनिया, एक परिवार की बात कर रहे हैं और इसके नारे लगा रहे हैं। पूरी दुनिया के कुल सकल घरेलू उत्पाद में से जी20 देशों का योगदान 90 प्रतिशत है और वैश्विक व्यापार में इसकी भागीदारी 80 प्रतिशत से भी अधिक है। इन आंकड़ों से इतना तो स्पष्ट है कि जी20 समूह जो संख्या के सन्दर्भ में दुनिया के कुल देशों का लगभग 10 प्रतिशत है, पूरे दुनिया के व्यापार और प्राकृतिक संसाधनों को पूरी तरह नियंत्रित करता है। जाहिर है, दुनिया की अर्थव्यवस्था जिसमें वैश्विक आर्थिक मंदी भी शामिल है, इन्ही देशों की देन है। अर्थव्यवस्था से परे, दुनिया के सभी मानवाधिकार, समानता और पर्यावरण सम्बंधित समस्याए भी जी20 समूह के देशों की देन हैं। ब्राज़ील ने धरती का फेफड़ा कहे जाने वाले अमेजन के वर्षा वनों को खोखला कर दिया, कनाडा में मूल निवासियों की ह्त्या के समाचार लगातार आते हैं, सऊदी अरब और तुर्की की निरंकुश सत्ता को सभी जानते हैं। चीन तो जी20 की अध्यक्षता मिलने के बाद भी भारत पर सैन्य प्रहार करने से नहीं चूकता तो दूसरी तरफ ताईवान की हवाई सीमा में चीन के युद्धक विमानों की घुसपैठ लगातार घातक होती जा रही है। रूस 300 से भी अधिक दिनों से यूक्रेन पर प्रहार कर रहा है और भारत समेत अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम जैसे देश पूरे क्षेत्र में शांति प्रयासों के लिए अपनी-अपनी पीठ थपथपा रहे हैं और एक दूसरे के प्रयासों की सराहना कर रहे हैं। यही जी20 का असली चेहरा है, जहां भाषण, आश्वासन और सदस्य देशों द्वारा एक-दूसरे की तारीफ़ के अलावा कुछ नहीं होता। दुनिया के सभी प्राकृतिक संसाधनों की लूट में इन देशों का ही हाथ है और दुनिया में जितना कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होता है उसकी 80 प्रतिशत भागीदारी इन्हीं देशों की है। कार्बन डाइऑक्साइड के लगातार उत्सर्जन के कारण जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि हो रही है जिसका असर पूरी दुनिया पर पड़ रहा है। यानी दुनिया के 10 प्रतिशत देश पूरी दुनिया का तापमान बढ़ा रहे हैं। सबसे आश्चर्य तो यह है कि यही देश अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में दुनिया के सभी देशों को जलवायु परिवर्तन रोकने और प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित करने की सीख भी देते हैं। पिछले कुछ महीनों से दुनिया में खाद्य संकट और भुखमरी पर जब भी चर्चा की गयी, उसे हमेशा रूस-यूक्रेन युद्ध से जोड़ा गया और चरम पर्यावरणीय आपदाओं पर कम ही चर्चा की गयी। ऑक्सफेम की एक रिपोर्ट, “हंगर इन अ हीटिंग वर्ल्ड” के अनुसार बाढ़ और सूखा जैसी स्थितियों के कारण दुनिया में भुखमरी बढ़ रही है और इसका सबसे अधिक असर उन देशों पर पड़ रहा है जो जलवायु परिवर्तन की मार से पिछले दशक से लगातार सबसे अधिक प्रभावित हैं। रिपोर्ट के अनुसार सबसे अधिक प्रभावित 10 देशों – सोमालिया, हैती, जिबूती, केन्या, नाइजर, अफ़ग़ानिस्तान, ग्वाटेमाला, मेडागास्कर, बुर्किना फासो और ज़िम्बाब्वे – में पिछले 6 वर्षों के दौरान अत्यधिक भूखे लोगों की संख्या 123 प्रतिशत बढ़ गयी है। इनमें से कोई देश जी20 का सदस्य नहीं है और न ही जी20 कभी इन देशों की बात करता है। इन सभी देशों पिछले एक दशक से भी अधिक समय से सूखे का संकट है। इन देशों में अत्यधिक भूख की चपेट में आबादी तेजी से बढ़ रही है – वर्ष 2016 में ऐसी आबादी 2 करोड़ से कुछ अधिक थी थी, अब यह आबादी लगभग 5 करोड़ तक पहुँच गयी है और लगभग 2 करोड़ लोग भुखमरी की चपेट में हैं। ऑक्सफेम की रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन का दुनिया में असमानता बढ़ा रहा है। जलवायु परिवर्तन अमीर और औद्योगिक देशों द्वारा किये जा रहे ग्रीनहाउस गैसों के कारण बढ़ रहा है, पर इससे सबसे अधिक प्रभावित गरीब देश हो रहे हैं। इसीलिए, ऐसी परिस्थितियों में यदि अमीर देश गरीब देशों की मदद करते हैं तब उसे आभार नहीं कहा जा सकता, बल्कि ऐसी मदद अमीर देशों का नैतिक कर्तव्य है। रिपोर्ट के अनुसार इन 10 देशों को भुखमरी से बाहर करने के लिए कम से कम 49 अरब डॉलर के मदद की तत्काल आवश्यकता है। दूसरी तरफ अमीर देशों की पेट्रोलियम कम्पनियां केवल 18 दिनों के भीतर ही 49 अरब डॉलर से अधिक का मुनाफा कमा लेती हैं, इसके लिए ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कर पृथ्वी को गर्म कर रही हैं और इसका खामियाजा गरीब देश भुगत रहे हैं। अमीर देशों के समूह, जी-20 के सदस्य दुनिया के कुल ग्रीनहाउस गैसों का तीन-चौथाई से अधिक उत्सर्जन करते हैं, जिससे जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि बढ़ता जा रहा है – दूसरी तरफ दुनिया में जलवायु परिवर्तन की सबसे अधिक मार झेलने वाले 10 देशों का सम्मिलित ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन महज 0.13 प्रतिशत है। दुनिया के चुनिन्दा देशों का कोई भी समूह हो, विश्वव्यापी भुखमरी का एक ही हल बताता है – कृषि उत्पादन बढ़ाना। दरअसल कृषि उत्पादन बढाने के नाम पर अमीर देश गरीन देशों की भूमि और प्राकृतिक संसाधन आसानी से हड़प लेते हैं। दूसरी तरफ दुनिया में भुखमरी का कारण अनाज की कमी नहीं बल्कि गरीबी है। दुनिया में चरम पर्यावरण की मार झेलने के बाद भी जितना खाद्यान्न उपजता है, उससे दुनिया में हरेक व्यक्ति को प्रतिदिन 2300 किलो कैलोरी का पोषण मिल सकता है, जो पोषण के लिए पर्याप्त है, पर समस्या खाद्यान्न के असमान वितरण की है, और गरीबी की है। गरीबी के कारण अब बड़ी आबादी खाद्यान्न उपलब्ध होने के बाद भी इसे खरीदने की क्षमता नहीं रखती है। प्रसिद्द अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने वर्ष 1943 के दौरान बंगाल में पड़े अकाल का भी विस्तृत विश्लेषण कर बताया था कि उस समय अधिकतर मृत्यु अनाज की कमी से नहीं, बल्कि गरीबी के कारण हुई थी। जाहिर है, वर्ष 1943 से आज तक इस सन्दर्भ में दुनिया में जरा भी बदलाव नहीं आया है – उस समय भी गरीबी से लोग भुखमरी के शिकार होते थे और आज भी हो रहे हैं। अभी हाल में ही प्रकाशित एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि ग्रीनहाउस गैसों के सबसे बड़े उत्सर्जक और जी20 समूह के सदस्य देश पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था प्रभावित कर रहे हैं। इस अध्ययन को अमेरिका की रिसर्च यूनिवर्सिटी डार्टमौथ कॉलेज के वैज्ञानिक क्रिस काल्लाहन के नेतृत्व में किया गया है और इसे क्लाइमेट चेंज नामक जर्नल में प्रकाशित किया गया है। दरअसल ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है और वे वायुमंडल में मिलकर पूरी दुनिया में जलवायु परिवर्तन करती हैं। इसलिए यदि इनका उत्सर्जन भारत या किसी भी देश में हो, प्रभाव पूरी दुनिया पर पड़ता है। सबसे अधिक प्रभाव गरीब देशों पर पड़ता है। इस अध्ययन को वर्ष 1990 से 2014 तक सीमित रखा गया है। इस अवधि में अमेरिका में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन से दुनिया को 1.91 ख़रब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा, जो जलवायु परिवर्तन के कारण दुनिया में होने वाले कुल नुकसान का 16.5 प्रतिशत है। इस सूची में दूसरे स्थान पर चीन है, जहां के उत्सर्जन से दुनिया को 1.83 ख़रब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा है, यह राशि दुनिया में जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले कुल नुकसान का 15.8 प्रतिशत है। तीसरे स्थान पर 986 अरब डॉलर के वैश्विक आर्थिक नुकसान के साथ रूस है। चौथे स्थान पर भारत है। भारत में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के कारण दुनिया को 809 अरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा और यह राशि वैश्विक आर्थिक नुकसान का 7 प्रतिशत है। इस तरह जलवायु परिवर्तन के कारण पूरी दुनिया में होने वाले आर्थिक नुकसान के योगदान में हमारे देश का स्थान दुनिया में चौथा है। पर, हमारे प्रधानमंत्री लगातार बताते रहे हैं कि जलवायु परिवर्तन केवल अमेरिका और यूरोपीय देशों की देन है। इस सूची में पाचवे स्थान पर ब्राज़ील, छठवें पर इंडोनेशिया, सातवें पर जापान, आठवें पर वेनेज़ुएला, नौवें स्थान पर जर्मनी और दसवें स्थान पर कनाडा है। अकेले अमेरिका, चीन, रूस, भारत और ब्राज़ील द्वारा सम्मिलित तौर पर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के कारण पूरी दुनिया को 6 खरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ता है, यह राशि वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का 11 प्रतिशत है। इस पूरी सूची में वेनेज़ुएला को छोड़कर शेष सभी देश जी20 समूह के सदस्य हैं। जाहिर है, जी20 या ऐसा कोई भी समूह महज कुछ देशों का आपसी सम्बन्ध मजबूत करने का एक साधन है। ऐसे समूहों द्वारा पूरे विश्व या धरती के विकास की बात करना एक छलावा है और कुछ भी नहीं। ऐसे सभी समूह पूरी दुनिया में केवल असमानता बढाते हैं, वरना इतने समूहों के बाद भी दुनिया में हरेक स्तर पर असमानता का बसेरा नहीं रहता। मगर भारत ऐसे वक्त इन मंचों की कमान संल है जब विश्व मामलों में सरगर्मी तेज है और वे, विदेश मंत्री के शब्दों में, अंग्रेजी के तीन ‘सी’ यानी कोविड, कॉन्फिलक्ट (टकराव) और क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन)—के कृशकाय कर देने वाले नतीजों से घिरे हैं. जनज्वार समाचार का निष्कर्ष है लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।

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