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बेल के वृक्ष के फायदे तथा बेहतरीन औषधीय गुण , डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

बेल वास्तविकता में, लिमोनिया एसिडिसिमा नाम की एक जड़ी बूटी है। यह भारत के मूल है, हालांकि, वर्तमान में यह दक्षिण-पूर्व एशिया भर में पाया जाता है। व्यापक रूप से थाईलैंड, श्रीलंका और दक्षिणी एशिया के अन्य क्षेत्रों में इसकी खेती की जाती है। बेल फल के कई अन्य नाम हैं जैसे वुड एपल, बंगाल क्विन्स, एलिफेंट एपल और मंकी फ्रूट। भारत के विभिन्न हिस्सों में हिंदू भगवान शिव की धार्मिक पूजा में इसके उपयोग के लिए प्रसिद्ध है इसके वृक्ष लगभग पूरे भारत में विशेषत हिमालय के सूखे पहाड़ी क्षेत्रों में पाया जाता है। मध्य तथा दक्षिण भारतीय जंगलों में भी बेल के वृक्ष बहुतायत में पाए जाते हैं। बेल का वृक्ष कंटीला होता है जिसकी ऊंचाई 20 से 30 फुट तक होती है। इसके पत्ते संयुक्त−त्रिपत्रक तथा गंधयुक्त होते हैं। बाजार में प्रायः दो प्रकार के बेल उपलब्ध होते हैं छोटे जंगली तथा बड़े उगाए हुए। दोनों के गुण समान होते हैं। जंगली फल कुछ छोटा होता है जबकि उगाए हुए फल अपेक्षाकृत कुछ बड़े होते हैं। ग्राही पदार्थ मूलतः बेल के गूदे में पाए जाते हैं। ये पदार्थ हैं− क्यूसिलेज, पेक्टिक, शर्करा, टैनिन्स आदि। मार्मेलोसिन नामक रसायन जो स्वल्प मात्रा में ही विरेचक होता है इसका मूल रेचक संघटक है। इसके अलावा इसमें उड़नशील तेल भी पाया जाता है। इसके पत्ते, जड़ तथा तने की छाल भी औषधीय गुणों से युक्त होते हैं। औषधीय प्रयोगों के लिए बेल का गूदा, बेलगिरी पत्ते, जड़ एवं छाल का चूर्ण आदि प्रयोग किया जाता है। चूर्ण बनाने के लिए कच्चे फल का प्रयोग किया जाता है वहीं अधपके फल का प्रयोग मुरब्बा तो पके फल का प्रयोग शरबत बनाकर किया जाता है। चूर्ण को शरबत आदि की अपेक्षा प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि चूर्ण अपेक्षाकृत अधिक लाभकारी होता है। दशमूलारिष्ट आदि में इसकी जड़ की छाल का प्रयोग किया जाता है।बेल का सर्वाधिक प्रयोग पाचन संस्थान संबंधी विकारों को दूर करने के लिए किया जाता है। पुरानी पेचिश तथा दस्तों में यह फल बहुत लाभकारी है। इसके कच्चे फल का प्रयोग अग्निमंदता, जलन, गैस, बदहजमी आदि के उपचार में किया जाता है। बेल में म्यूसिलेज इतना अधिक होता है कि डायरिया के बाद यह तुरन्त घावों को भर देता है। जिससे मल संचित नहीं हो पाता और आतें कमजोर नहीं होतीं। बेल चाहे कच्चा हो या पक्का आंतों के लिए लाभदायक होता है। इसेस आंतों की कार्यक्षमता बढ़ती है तथा भूख सुधरती है। पुरानी पेचिश के साथ−साथ यह अल्सरेटिव, कोलाइटिस जैसे जीर्ण असाध्य रोगों के इलाज में भी उपयोगी होता है। पेक्टिव बेल के गूदे का एक महत्वपूर्ण घटक है। यह अपने से बीस गुना अधिक जल में एक कोलाइटल घोल के रूप में मिल जाता है जो चिपाचिपा तथा अम्ल प्रधान होता है। यह घोल आतों पर अधिशोषक (एड्सारबेंट) तथा रक्षक के रूप में कार्य करता है। बड़ी आंत में पाए जाने वाले जीवाणुओं को मारने की क्षमता भी इसमें होती हैं। ताजे कच्चे फल का स्वरस आधा से एक चम्मच दिन में एक बार, सुखाए कच्चे बेल के कतलों के जल का निष्कर्ष एक से दो चम्मच दो बार, बेल का चूर्ण दो से चार ग्राम। ये सभी संग्रहणी व रक्त स्राव सहित अतिसार में बहुत लाभदायक होते हैं।पुरानी पेचिश तथा कब्जियत में पके फल का शर्बत या 10 ग्राम बेल, 100 ग्राम गाय के दूध में उबाल कर ठंडा करके देते हैं। संग्रहणी जब खून के साथ बहुत वेगपूर्ण हो तो कच्चे फल के लगभग पांच ग्राम चूर्ण को एक चम्मच शहद के साथ दो−चार बार देते हैं। हैजा होने पर बेल पर शरबत या चूर्ण गर्म पानी के साथ देते हैं। आषाढ़ या श्रावण मास में निकाले गये पत्तों के रस को काली मिर्च के साथ देने से रोगी को पुराने कब्ज में आराम पहुंचता है। इसके अलावा पके हुए फल का गूदा मिसरी के साथ देने से कब्ज में लाभ मिलता है। दांत निकलते समय जब बच्चों को दस्त लगते हैं तब बेल का 10 ग्राम चूर्ण आधा पाव पानी में पकाकर शेष बीस ग्राम को पांच ग्राम शहद में मिलाकर दो−तीन बार देते हैं। इससे उन्हें दांत निकलने की तकलीफ से आराम मिलता है। कच्चे बेल का गूदा गुड़ के साथ पकाकर या शहद मिलाकर देने से रक्तातिसार तथा खूनी बवासीर में लाभ पहुंचता है। इन स्थितियों में जहां तक हो सके, पके फल का प्रयोग नहीं करें क्योंकि ग्राही क्षमता अधिक होने के कारण हानि भी हो सकती है। बेल की कोमल पत्तियों को सुबह−सुबह चबाकर खाने और फिर ठंडा पानी पीने से शूल तथा मानसिक रोगों में शांति मिलती है। आंखों के रोगों में इसके पत्तों का रस, उन्माद अनिद्रा में जड़ का चूर्ण तथा हृदय की अनियमितता में फल का प्रयोग करना लाभदायक होता है। प्रायः सर्वसुलभ होने के कारण बेल के फल में मिलावट कम होती है। परन्तु कभी−कभी इसमें ग्रार्सीनिया मेंगोस्टना तथा कैच के फल मिला दिए जाते हैं परन्तु फल को काटकर इसे पहचाना जा सकता है। अनुप्रस्थ काटने पर बेल दस−पन्द्रह भागों में बंटा सा दिखाई देता है जिसके प्रत्येक भाग में 6 से 10 बीज होते हैं। प्राचीन काल से बेल को ‘श्रीफल’ के नाम से जाना जाता है। बेल विभिन्न प्रकार की बंजर भूमि (ऊसर, बीहड़, खादर, शुष्क एवं अर्धशुष्क) में उगाया जा सकने वाला एक पोषण (विटामिन-ए, बी.सी., खनिज तत्व, कार्बोहाइड्रेट) एवं औषधीय गुणों से भरपूर फल है। इससे अनेक परिरक्षित पदार्थ (शरबत, मुरब्बा) बनाया जा सकता है। झारखंड के पठारी क्षेत्रों में जहाँ अन्य फलदार पौधे नहीं उगाये जा सकते हैं, बेल की खेती की अपार सम्भावनायें हैं, क्योंकि यह एक बहुत ही सहनशील वृक्ष है। मई-जून की गर्मी के समय इसकी पत्तियाँ झड़ जाती है,परन्तु हाल के वर्षो में नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिकी कृषि विश्वविद्यालय, गोविन्द बल्लभ पंत कृषि विश्वविद्यालय, केन्द्रीय उपोष्ण बागवानी संस्थान एवं बागवानी एवं कृषि वानिकी शोध कार्यक्रम द्वारा चयनित किस्मों की सिफारिश की जाती है बेल एक लाभकारी फल है अत: इसके अधिकाधिक उपयोग को बढ़ावा देना चाहिए। कच्चे फलों को मुरब्बा एवं कैंडी, या भुनकर खाने से पेचिश, भूख न लगना एवं अन्य पेट के विकारों से छुटकारा पाया जा सकता है। पके बेल के गूदे के पाउडर के प्रतिदिन दूध के साथ लेने से पुरानी जीर्ण संग्रहनी में लाभ पाया जा सकता है। गर्मी के मौसम में नियमित सेवन या शरबत बना कर सेवन अत्यंत लाभकारी होता है। बेल का फल, पत्ते, लकड़ी सभी की उपयोगिता है। बेल का फल गर्मी के दौरान लू को दूर करने के लिए काफी उपयोगी है। कच्चा फल मधुमेह की बीमारी को दूर करता है, यह विष नाशक भी है। इसका आयुर्वेदिक महत्व काफी है।कांकेर क्षेत्र में काफी मात्रा में पाया जाता है लेकिन जागरूकता के अभाव में लोग इसका उपयोग नहीं कर रहे हैं। बेल फल के मार्केटिंग की व्यवस्था होना चाहिए। इससे ग्रामीणों को अच्छी आमदनी हो सकती है। हर हिस्से का इस्तेमाल सेहत बनाने और सौंदर्य निखारने के लिए किया जा सकता है.आयुर्वेद में इसके कई फायदों का उल्लेख मिलता है. इसका फल बेहद कठोर होता है लेकिन अंदर का हिस्सा मुलायम, गूदेदार और बीजों से युक्त होता है.बेल के फल का जीवनकाल काफी लंबा होता है. पेड़ से टूटने के कई दिनों बाद भी इसका इस्तेमाल किया जा सकता है. बेल का इस्तेमाल कई तरह की दवाइयों को बनाने में तो किया जाता है ही साथ ही ये कई स्वादिष्ट व्यंजनों में भी प्रमुखता से इस्तेमाल होता है.बेल में प्रोटीन, बीटा-कैरोटीन, थायमीन, राइबोफ्लेविन और विटामिन सी भरपूर मात्रा में पाया जाता है. राज्य के परिप्रेक्ष्य में अगर बेल की खेती वैज्ञानिक तरीके और व्यवसायिक रूप में की जाए तो यह राज्य की आर्थिकी का एक बेहतर पर्याय बन सकता है। पुरातन काल से ही ऋषि मुनियों एवं पूर्वजों द्वारा पौष्टिक तथा रोगों के इलाज के लिए विभिन्न प्रकार के जंगली पौधों का उपयोग किया जाता रहा है.प्रजातियों को बढ़ावा देने के लिए औद्योनिकी मिशन के तहत राज्य सरकार ने योजना तैयार की है प्रदेश में उच्च गुणवत्तायुक्त का उत्पादन कर देश-दुनिया में स्थान बनाने के साथ राज्य की आर्थिकी तथा पहाड़ी क्षेत्रों में पलायान को रोकने का अच्छा विकल्प बनाया जा सकता है। अगर ढांचागत अवस्थापना के साथ बेरोजगारी उन्मूलन की नीति बनती है तो यह पलायन रोकने में कारगर होगी उत्तराखण्ड हिमालय राज्य होने के कारण बहुत सारे बहुमूल्य उत्पाद जिनकी अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में अत्यधिक मांग रहती है. उत्तराखंड के साथ-साथ देश के पर्यावरण के प्रति असंवेदनशीलता दर्शाता है. कायदे से बाँज, कौव्, काफल, उतीस, बुरांश और अन्य चौड़ी पत्तियों के पेड़ों से आच्छादित डाँनों-कानों को रकबे की सीमा से मुक्त करके वन की श्रेणी में रखा जाना चाहिए. भू उपयोग और ख़रीद की सीमा को लेकर हाल में लागू उदार नीतियों के चलते उत्तराखंड की जमीनों-जंगलों पर बहुत दबाव आया है. ये वक़्त हरित बोनस कमाने का है, जंगलों को गँवाने का नहीं है. धार्मिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होने के कारण इसे मंदिरों के पास लगाया जाता है। हिन्दू धर्म में इसे भगवान शिव का रूप ही माना जाता है व मान्यता है कि इसके मूल यानि जड़ में महादेव का वास है तथा इनके तीन पत्तों को जो एक साथ होते हैं उन्हे त्रिदेव का स्वरूप मानते हैं परंतु पाँच पत्तों के समूह वाले को अधिक शुभ माना जाता है, अतः पूज्य होता है। धर्मग्रंथों में भी इसका उल्लेख मिलता है। वृक्ष को काटने के लिए वृक्ष स्वामी को प्रत्येक काटे गए वृक्ष के स्थान पर कम से कम 10 वृक्ष लगाना और उनकी देखभाल करना होगा.

लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं।

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