चन्द्रलाल व हेमंत लाल दो भाईयों ने जीवित रखी ‘नपती प्रथा’ को – डॉ० दीपक सिंह कुँवर
गढ़वाल हिमालय के परिप्रेक्ष्य में नमती, नपती व नौबत प्रथा
नमती
‘नमती’ टिहरी रियासत के अन्तर्गत एक प्रथा रही है, जिस प्रथा का सम्बन्ध संपूर्ण उत्तरकाशी जनपद के रवांई-जौनपुर की एक प्राचीन परम्परागत प्रथा के साथ है। यह प्रथा आज से 2-3 दशक पूर्व तक उत्तरकाशी जनपद में ठीकठाक स्तर पर प्रचलित थी, लेकिन अब धीरे-धीरे समाप्त हो चुकी है। अतः ये कह सकते हैं कि यह परम्परा अब कतिपय क्षेत्रों में ना के बराबर रह गई है। भले ही उत्तराखंड के अन्य जनपदों के मुताबिक उत्तरकाशी जनपद का अपनी प्राचीन संस्कृति व परम्पराओं के प्रति ज्यादा जुड़ाव रहा है। नमती प्रथा के अनुसार- प्रातःकाल 05ः00 बजे उठते समय और सायंकाल को 10ः00 बजे सोते समय ‘बाजगी’ गाँव के मध्यस्थ में स्थित मंडाण/पाण्ड़व चौक में बाजा बजाता था, जिसे नमती कहा जाता था। इसी प्रकार ‘बाजगी’ प्रातःकाल 10ः00 बजे के लगभग सयाणा या लम्बदार के घर बड़ाई बजाता था।
नपती
गढ़वाल हिमालय के मन्दिर में किसी दौर में सांय-सवेरे मंदिर के आंगन में बाजगी द्वारा ढ़ोल-दमाऊ की मधुर ध्वनि से नपती बजाई या लगाई जाती थी, जो अब बहुत कम मंदिर प्रांगणों में सुनने व देखने को मिलता है, लेकिन आज भी नपती बजने की मधुर ध्वनि गोपेश्वर नगर (चमोली) के अन्तर्गत गोपीनाथ मंदिर के प्रांगण में अक्सर सुनने व देखने को मिल सकता है। जिस नपती को गोपेश्वर मंदिर प्रांगण में 60 वर्षीय चन्द्रलाल व 58 वर्षीय हेमंत लाल दोनों भाईयों ने जीवित रखी है। ये दोनों भाई अपने परदादा व दादा गुलाबदास के बाद तीसरी पीढ़ी के बाजगी हैं, जो गोपीनाथ मंदिर में नपती बजाने का पुण्यार्थ का कार्य कर रहे हैं। इसके बाद हो सकता है कि गोपीनाथ मंदिर प्रांगण में भी यह परम्परा समाप्त हो जाय, क्योंकि श्री चन्द्रलाल के दोनों बेटे अपनी आर्थिक स्थिति को चलाने के लिए टेलर्स का काम कर रहे हैं, जबकि श्री हेमन्त लाल का 26 वर्षीय पुत्र अरूण अभी भी अपने पिता के साथ कभी-कभार नपती बजाने का काम करते हैं। जिस प्रकार से गढ़वाल में शादी- व्याह में मंगलस्नान के दौरान गाये जाने वाले मांगलिक गीत को रिकॉर्ड करके बजाने की प्रथा शुरू हुई है उसी प्रकार
लोग बताते हैं कि कालान्तर में मंदिर व्यवस्थापकों ने नपती बजाने की साउंड कोे भी रिकॉर्ड करके रखा है, जिस साउंड रिकॉर्ड को मंदिर में पूजा अथार्त नपती बजाने के दौरान लगाया जाता है, जिस साउंड को सायं-सवेरे दूर-दूर तक सुना जा सकता है। ये साउंड रिकॉर्ड इसलिए भी किया गया है, जिससे कि नपती बजाने वाले बाजगी को बुलाने का कष्ट न करना पड़े।
भले ही आज भी श्री चन्द्रलाल व हेमंतलाल नियमित रूप से गोपीनाथ भगवान के प्रति इतने समर्पित हैं कि सायं-सवेरे ठण्ड़ हो या वर्षा काल हो नपती लगाने/बजाने के समय मंदिर प्रांगण में पहुंच जाते हैं। लोग बताते हैं कि शिवरात्रि के दौरान पूरे रातभर यहां तक कि गोपीनाथ मंदिर के अंतर्गत होने वाले सभी कार्यक्रमों में ये बाजगी अपनी पूरी भागीदारी देते हैं। इसके अलावा रुद्रनाथ भगवान को सगर गाँव तक विदा करने या लेने के लिए भी यही बाजगी जाते हैं। ये बाजगी आज भी निःस्वार्थ भाव से अपने काम के प्रति हमेशा से तटस्थ रहते हैं। इतने निःस्वार्थ भाव से काम करने के बावजूद भी मंदिर की ओर से उन्हें कभी भी कोई आर्थिक सहायता नहीं मिलती है। बस ये बाजगी मंदिर की ओर से प्राप्त प्रसाद व सुफल भेंट में ही अपनी खुशियां ढूंढते हैं। भले ही पुरातत्व विभाग के अन्तर्गत बहुत से लोगों को गोपीनाथ मंदिर की देखदेख के लिए रखा गया है, लेकिन पुरातत्व विभाग की ओर से भी इन्हें आज तक कोई आर्थिक सहायता प्राप्त नहीं हुईं। आर्थिक सहायता न मिलने के कारण ही श्री चन्द्रलाल के दोनों बेटे अपनी आर्थिक स्थिति को चलाने के लिए टेलर्स का काम को करते हैं। अतः यह हम सभी के लिए एक प्रश्न चिह्न है कि हम सभी अपनी प्राचीन कला व संस्कृति के प्रति कितने सजग हैं? या कितनी भागीदारी उसके संरक्षण में लगा रहे हैं? इस तरह कह सकते हैं कि गोपीनाथ मंदिर प्रांगण में भी नमती बजाने या लगाने की परम्परा अपने अस्तित्व के अन्तिम चरण में है।
नौबत
भारतीय परिप्रेक्ष्य में 16-17वीं सदी दौरान राजाओं द्वारा अपने दरबार में ‘नौबत’ शब्द का प्रचलन तब देखने को मिलता है, जब राजाओं और बादशाहों के द्वार पर आठ पहर में पांचों वक्त (सुबह, दिन, दोपहर, सायं, व रात) ‘नौबत’ बजती थी। पांचों वक्त की अजान की प्रतीकात्मक के रूप में बाजेे के पंज शब्द अथार्त पांच बाजे (दफ, ढ़ोल, तुलसा, नफीरी व दमामा), जो शादी के चिह्न होते हैं, बजते थे।
‘नौबत’ वैसे एक ताल वाद्य यंत्र है, जो वाद्य यंत्र लोहे और चमड़े से बना होता है। यह धार्मिक वाद्य यंत्र बहुतया गुजरात प्रान्त में देखने को मिलता है, जिसके समतुल्य उत्तराखंड में दमाऊ नामक धार्मिक वाद्य यंत्र को देखा जा सकता है। इस वाद्य यंत्र को त्यौहारों व धार्मिक अवसर आदि के समय मुख्य रूप से उपयोग में लाया जाता है, जिसे दो छड़ियों से एक साथ बजाया जाता है।
सम्भवतः गढ़वाल हिमालय में ‘नौबत’, जो सिर्फ दमाऊं से बजाया जाता था। फूल संक्रान्ति, विषुवत संकान्ति (विखोद) आदि के समय आज से 15-20 वर्ष पूर्व अक्सर उत्तराखंड के घर-गांवों में देखने को मिलता था।
कालांतर में ‘नौबत’ शब्द के अर्थ अलग-अलग प्रकार से देखने को मिलते हैं। जैसे–
1. राजाओं और अमीरों के दरवाजे पर बजने वाली शहनाई।
2. बाजा, जो महल या मंदिर आदि में बजाया जाता है।
3. किसी चीज का समय आना।
4. नगाड़ा, बारी, स्थिति, दशा, हालात आदि।
उदाहरण के लिए- 1. संभलकर रहो, नहीं तो मार खाने की नौबत आयेगी।
2. इश्क अभी से तन्हा-तन्हा, हिज्र (अकेलापन) की भी अभी आई नहीं नौबत।‘नौबत’ शब्द मराठा साम्राज्य के अन्तर्गत भी देखने को मिलता है। शिवाजी द्वारा अपने ‘अष्टप्रधान’ में सलाहकार परिषद के अन्तर्गत एक पद ‘सर-ए-नौबत’ रखा गया था, जिसका कार्य ‘सेनापति’ का होता था।
हिन्दी साहित्य के अन्तर्गत प्रेमचन्द ने न जाने कितनी बार अपनी कहानियों में ‘नौबत’ शब्द का प्रयोग किया है। जब हम प्रेमचन्द की कहानी “ईर्ष्या” को पढ़ते हैं तो इस कहानी की एक पंक्ति में लिखा है कि- दो-दो, तीन-तीन दिन तक प्रताप से बोलने की ‘नौबत’ न आयी।
फिर हम जब प्रेमचन्द की कहानी “कोई दुःख न हो तो बकरी खरीद लो” को पढ़ते हैं तब भी हम पढ़ते हैं कि- यहां तक ‘नौबत’ पहुंची कि दूध सिर्फ नाम का दूध रह गया है।
इसके बाद जब हम प्रेमचन्द की कहानी “क्रिकेट मैच” को पढ़ते हैं तो लिखा है कि- और वहां तक ‘नौबत’ ही क्यों आने लगी, हेलेन खुद दरवाजे ही से भागेगी।यदि हम वर्ष 1916 में आगरा में जन्में द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी जी की कविता पढ़ते हैं तो वहाँ भी ‘नौबत’ शब्द का प्रयोग मिलता है।
कविता की पंक्ति :-
यदि होता किन्नर नरेश मैं, राज महल में रहता।
सोने का सिंहासन होता, सिर पर मुकुट चमकता।।
बंदी जन गुण गाते रहते, दरवाजे पर मेरे।
प्रतिदिन ‘नौबत’ बजती रहती, संध्या और सवेरे।।कालान्तर में ‘नौबत’ शब्द गढ़वाल में बहुत अधिक मात्रा में सुनने को मिलता है। गढ़वाली बोली में अक्सर सुनने को मिलता है कि- अब त्येरी नौबत खराब ऐगी।
महत्व-
अगर हम देवभूमि उत्तराखण्ड के वाद्य-यंत्रों का वर्णन करें तो उनमें “ढोल- दमाऊं” सबसे मुख्य वाद्य-यंत्र हैं। यह वाद्य यंत्र उत्तराखण्ड के पहाड़ी समाज की लोककला को संजोए हुए हैं और उनकी आत्मा से जुड़े हैं। इस कला का महत्व जन्म से लेकर मृत्यु तक, घर से लेकर जंगल तक अर्थात् प्रत्येक संस्कार और सामाजिक गतिविधियों में इस वाद्य-यंत्र का प्रयोग होता आ रहा है। इनकी गूंज के बिना उत्तराखंड की धरती पर कोई भी शुभकार्य पूरा नहीं माना जाता है। इसीलिए कहा जाता है कि पहाड़ों में विशेषकर उत्तराखण्ड में त्यौहारों का आरंभ ढोल-दमाऊं के साथ ही होता है।
ढोल-दमाऊं वादक को औजी, ढोली, दास या बाजगी आदि पारंपरिक नामों से भी जाना जाता है, जिनमें स्वयं सरस्वती का वास होता है। औजी वास्तव में भगवान शिव का ही नाम है।
इतिहासकारों ने माना है कि ढोल पश्चिम एशियाई मूल का है, जिसे 15वीं शताब्दी में भारत में लाया गया था। अबुल फजल के ग्रन्थ ‘आईन-ए-अकबरी’ में पहली बार ढोल के संदर्भ में वर्णन मिलता है अर्थात् यह कहा जा सकता हैं कि 16वीं शताब्दी के आस-पास सर्वप्रथम ढोल की शुरुआत गढ़वाल में की गई थी।
ढोल-दमाऊं के माध्यम से कई प्रकार के विशेष तालों को बजाया जाता हैं। विभिन्न तालों के समूह को ‘ढोल सागर’ कहा जाता है, जिस ढोल सागर के एकमात्र ज्ञाता उत्तमदास जी हैं। टिहरी जिले की बमुंड पट्टी के साबली निवासी उत्तम दास ने अपने पिता झोपड़िया दास से ढोल-दमाऊं बजाते हुए उसकी बारीकियों को सीखी थी। 10 वर्ष की आयु के बाद व पिता के निधन के बाद उत्तमदास जी ने ढोल-दमाऊं एक साथ बजाने का रियाज शुरू किया। एक साथ दोनों वाद्य यंत्रों को बजाने वाले उत्तम दास को वर्ष 1983 में दिल्ली में तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जेल सिंह के हाथों सर्वोत्कृष्ट वादक का अवार्ड दिया गया था। ‘ढोल सागर’ में लगभग 1200 श्लोकों का वर्णन किया गया है। इन तालों के माध्यम से वार्तालाप व विशेष संदेश का आदान-प्रदान भी किया जाता है, क्योंकि अलग-अलग समय पर अलग-अलग ताल बजाये जाते हैं, जिनके माध्यम से इस बात का पता चलता है कि कौन-सा संस्कार या अवसर है।
सम्पूर्ण लेख हमारे सहयोगी न्यूज़ पोर्टल चारधाम न्यूज़ के मुख्य संपादक डॉ० दीपक सिंह कुँवर जी की कलम से,