देहरादून। उत्तराखंड सरकार ने fda के गठन को मंजूरी दे दी है लेकिन लाख टके का सवाल बरकरार है कि क्या इसके अस्तित्व में आ जाने से पूर्व में चल रही व्यवस्थाएं बदल पाएंगी। दरअसल, fda के गठन के बाद इसके ढांचे में आमूल चूल बदलाव देखने को मिल रहा है। केवल स्वास्थ्य विभाग के नियंत्रण को खत्म करने की बात और विभाग में पुलिस अफसरों की एंट्री की बात को छोड़ दें तो बाकी कोई नया या बड़ा फेरबदल पूर्व की व्यवस्थाओं में नहीं दिखता। हां, नाम जरूर बदला हुआ दिखता है।
देखा जाए तो पिछले चार पांच सालों से fda राज्य में काम कर रहा है लेकिन आधिकारिक मोहर सरकार ने इस पर अब लगाई है। fda के तहत पिछले कुछ सालों से स्वास्थ्य सचिव यानी सीनियर ias अफसर आयुक्त की जिम्मेदारी संभाले हुए हैं तो अपर आयुक्त पर भी सीनियर pcs विराजमान हैं। केवल स्वास्थ्य महानिदेशक का दखल पिछले कुछ सालों से इस महकमे में बंद हुआ है।
अब आते हैं इस महकमे के अति महत्वपूर्ण पद यानी औषधि नियंत्रक पर। यह उत्तराखंड राज्य का सबसे बड़ा दुर्भाग्य रहा कि आज तक इस अहम विभाग के इस अहम पद पर शुरुआत से जो जोड़ जुगाड़बाजी कर औषधि नियंत्रक बनने का सिलसिला दो दशक पहले शुरू हुआ था वो आज भी जारी है। वर्तमान में तैनात औषधि नियंत्रक भी अपने कैडर के अधिकारियों से जूनियर हैं लेकिन पिछले कुछ सालों से वे ही इस पद को संभाल रहे हैं। यहां ये भी एक तथ्य है कि जो अधिकारी खुद को इस पद के दावेदार बताते हैं इनमें से खुद ही इसमें दिलचस्पी लेते नहीं दिखते तो जो दूसरे सीनियर अफसर हैंउनके खिलाफ भी शासन में शिकायतों की चर्चा हमेशा रही। ऐसे में सरकार ने कभी उन पर भरोसा नहीं जताया। दीगर है कि नियंत्रक के पद को हमेशा से मलाईदार माना गया इसलिए यहां तक पहुँचने के लिए अफसरों की लार टपकती रहती है। इसके लिए साम दंड भेद सब अपनाया जाता है।
बहरहाल, नया fda बनने से इन जोड़ जुगाड़ बाजियों पर रोक लग सकेगी से बड़ा सवाल है। वही सबसे अहम ये ही क्या fda गठन से राज्य में बेखौफ चल रहे नकली दवा के कारोबार पर रोक लगेगी। वैसे इसकी उम्मीद कम ही दिखती है क्यूंकि व्यवस्थाओं में केवल मामूली फेरबदल हुआ है। चेहरे वही पुराने हैं जो इस गोरखधंधे को संरक्षण देने का काम करते रहे हैं।