देहरादून

पत्रकार स्व.आनन्द बल्लभ उप्रेती की नींव पिघलता हिमालय’ डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

 

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

आदि-अनादि काल से वैदिक ऋचाओं की जन्मदात्री उर्वरा धरा रही देवभूमि उत्तराखण्ड में पत्रकारिता का गौरवपूर्ण अतीत रहा है। कहते हैं कि यहीं ऋषि-मुनियों के अंतर्मन में सर्वप्रथम ज्ञानोदय हुआ था। बाद के वर्षों में आर्थिक रूप से पिछड़ने के बावजूद उत्तराखंड बौद्धिक सम्पदा के मामले में हमेशा समृद्ध रहा। शायद यही कारण हो कि आधुनिक दौर के ‘जल्दी में लिखे जाने वाले साहित्य की विधा-पत्रकारिता’ का बीज देश में अंकुरित होने के साथ ही यहां के सुदूर गिरि-गह्वरों तक भी विरोध के स्वरों के रूप में पहुंच गया। कुमाउनी के आदि कवि गुमानी पंत (जन्म 1790-मृत्यु 1846, रचनाकाल 1810 ईसवी से) ने अंग्रेजों के यहां आने से पूर्व ही 1790 से 1815 तक सत्तासीन रहे महा दमनकारी गोरखों के खिलाफ कुमाउनी के साथ ही हिंदी की खड़ी बोली में कलम चलाकर एक तरह से पत्रकारिता का धर्म निभाना प्रारंभ कर दिया था। इस आधार पर उन्हें अनेक भाषाविदों के द्वारा उनके स्वर्गवास के चार वर्ष बाद उदित हुए ‘आधुनिक हिन्दी के पहले रचनाकार’ भारतेंदु हरिश्चंद्र (जन्म 1850-मृत्यु 1885) से आधी सदी पहले का पहला व आदि हिंदी कवि भी कहा जाता है। हालांकि समाचार पत्रों का प्रकाशन यहां काफी देर में 1842 में अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित ‘द हिल्स’ नामक उत्तरी भारत के पहले समाचार पत्र के साथ शुरू हुआ, लेकिन 1868 में जब भारतेंदु हिंदी में लिखना प्रारंभ कर रहे थे, नैनीताल से ‘समय विनोद’ नामक पहले देशी (हिंदी-उर्दू) पाक्षिक पत्र ने प्रकाशित होकर एक तरह से हिंदी पत्रकारिता का छोर शुरू में ही पकड़ लिया। यह संयोग ही है कि आगे 1953 में उत्तराखंड का पहला हिंदी दैनिक अखबार ‘पर्वतीय’ भी नैनीताल से ही प्रकाशित हुआ। 21 मई 1944 को बटआमावस्या (बटसावित्री व्रत) के दिन आनन्द बल्लभ उप्रेती का जन्म माता जीवन्ती देवी व पिता राधाबल्लभ उप्रेती के घर ग्राम कूंउप्रेती (कुंजनपुर) गंगोलीहाट जिला पिथौरागढ़ में हुआ था। जब ये तीन साल के थे इनकी माता जी का निधन हो गया। पिता प्राइमरी में हैडमास्टर थे, उस दौर में यह पद बहुत ही सम्मान का था और दूर-दूर तक अध्यापक का यशगान होता था।माता के निधन के बाद आनन्द का लालन-पालन घर के बुजुर्गों के साये में हुआ। आर्थिक संकट उनके बचपन का साथी बन चुका था लेकिन इनके संस्कार और इनकी प्रतिभा ने सम्मान दिलाती रही। उनकी प्राथमिक पढ़ाई- प्राईमरी पाठशाला गंगोलीहाट, हाईस्कूल- श्री महाकाली हाईस्कूल से हुई। पैदल रास्तों के उन दिनों में गंगोलीहाट से अल्मोड़ा रात्रि में पैदल चलकर रेमजे कालेज से इण्टर किया। हल्द्वानी व आगरा में रहकर अंग्रेजी विषय से स्नातक व स्नातकोत्तर किया।बचपन से ही लेखन की ओर रुचि होने के कारण युवा अवस्था तक काफी लिखा। जीवन संघर्षों की गाथा को वह सहते गये और लेखक-कवि के रूप में इनकी ख्याति फैल चुकी थी। साहित्यकार डाॅ.हेमचन्द्र जोशी को गुरु रूप में मानते थे। सन् 1965 के करीब इनके सानिध्य में नैनीताल रहते हुए बिड़ला स्कूल में अध्यापन किया। शिक्षा को महादान बताते हुए इन्होंने अनगिनत लोगों को निःशुल्क शिक्षा दी। इसी समय इन्होंने ‘शक्ति प्रेस’ नाम से छापाखाना स्थापित किया। 1971 में कमला देवी और इनका विवाह हुआ। । अंग्रेजी से स्नातकोत्तर करने के बाद श्री उप्रेती ने शिक्षण कार्य किया लेकिन उन्होंने खुद को यहीं तक सीमित नहीं रखा। समाज से लगाव के कारण श्री उप्रेती बाद में पत्रकारिता से जुड़े। उन्होंने सरिता, संदेश सागर से पत्रकारिता की शुरुआत की और हमेशा सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दों को अपनी कलम से धार दी। नवभारत टाइम्स और हिंदुस्तान के अलावा नैनीताल समाचार और दिनमान में बतौर संवाददाता उन्होंने शासन-प्रशासन पर जनहितों के लिए दबाव बनाया।सदा उत्तराखंड के हितों से जुड़े रहे श्री उप्रेती ने 1978 में साप्ताहिक समाचार पत्र पिघलता हिमालय का संपादन शुरू किया। पत्रकारिता के साथ-साथ श्री उप्रेती का साहित्य में भी पूरा दखल था। आम आदमी का दर्द और अपनी जड़ों से श्री उप्रेती का जुड़ाव उनकी किताबों में झलकता है। उन्होंने आदमी की बू, घोंसला (कहानी संग्रह), नंदा राजजात के बहाने, ‘उत्तराखंड आंदोलन में गधों की भूमिका’ और ‘हल्द्वानी: स्मृतियों के झरोखे से’ पुस्तकें लिखकर अपनी छाप छोड़ी है। ‘कुमाऊंनी व गढ़वाली बोलियों के लिए किसी पृथक लिपि की जरूरत का सवाल ही अपने आप में अनावश्यक है, यह बिना बात के बहस का सवाल लगता है। जरूरत तो बाकी समृद्ध बोलियों को ही जीवित रखने की है। कोई पृथक लिपि इन्हें जिंदा रख पायेगी या और अधिक समृद्ध कर पायेगी इस पर गहन विचार की जरूरत है। कुमाऊंनी व गढ़वाली बोलियों के लिए किसी अलग लिपि के लिए शुरू की गयी बहस पर अपनी राय व्यक्त करते हुए वरिष्ठ पत्रकार एवं कथाकार आनन्द बल्लभ उप्रेती का कहना है कि विभिन्न प्रांतों व क्षेत्रों की बोलियों के शब्दों के साथ संस्कृत, उर्दू, फारसी तथा अंग्रेजी के शब्दों का भरपूर प्रयोग उत्तराखंड की बोलियों में हुआ है, और यहां की बोली ने अपनी शब्द सम्पदा को भी बढ़ाया है, ऐसा उदाहरण अन्यत्र कहीं नहीं देखने को मिलता है। यहां पर्यायवाची शब्दों का ऐसा भंडार कि किसी भाव को पूरी तरह अभिव्यंजित कर के रख दें। यह चमत्कार पूर्ण है। इन चमत्कारिक शब्दों को लिपिबद्ध करने में परेशानियां तो जरूर हैं, किन्तु कोई नई लिपि ऐसा कर पायेगी इस पर भरोसा नहीं होता है। इससे तो अच्छा यही होगा कि देवनागरी में स्व, दीर्घ चिन्हों के सरल व सर्वमान्य प्रयोग पर चर्चा चलाई जाए। नेपाली देवनागरी में ही धड़ल्ले से लिखी व पढ़ी जाती है क्यों, इसलिए कि वह आम प्रयोग की भाषा बन गयी है। इसलिए किसी नई लिपि के जाल में फंसने से अच्छा इन बोलियों को व्यवहार में लाने की जरूरत अधिक है। कुमाऊंनी का एक मानक तैयार करने के लिए पूर्व में कई सेमीनारों का आयोजन भी होता है, लेकिन अपने-अपने क्षेत्र के क्रियापदों को न छोड़ पाने का लोभ या जिद मानकीकरण में बाधा बना रहा। शायद इसीलिए एक अलग लिपि का सवाल पैदा हुआ होगा, लेकिन यह समस्या तो नई लिपि के बाद भी अपनी जगह जिन्दा रहेगी। इसलिए राज्य बन जाने के बाद भी चलन से बाहर होती जा रही इन बोलियों को व्यवहार में लाना पहली जरूरत है। स्मृतियों के झरोखे से’ पुस्तक का विमोचन बीते 15 फरवरी को हुआ था। श्री उप्रेती की नंदा राजजात के बहाने किताब को राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार मिला था। उत्तराखंड सरकार की ओर से सारस्वत साधना सम्मान समेत कई अन्य पुरस्कार उन्हें प्राप्त हो चुके हैं। एक सप्ताह पहले ‘हल्द्वानी स्मृतियों के झरोखे’ से व ‘नंदा राजजात के बहाने’ का द्वितीय संस्करण का विमोचन हुआ था। 1971 में कमला देवी और इनका विवाह हुआ। पत्रकारिता और सांस्कृतिक आन्दोलनों से घिरे उप्रेती जी के संघर्षों में श्रीमती उप्रेती ने भी बहुत श्रम किया। ‘सरिता’(1967) तथा ‘सन्देश सागर (1967) से पत्रकारिता की शुरुआत करने वाले उप्रेती जी ने 1978 में साप्ताहिक ‘पिघलता हिमालय’ की नींव रखी। अपने मित्र दुर्गा सिंह मर्तोलिया के साथ इस पत्र को स्थापित करते हुए 1980 में एक साल तक दैनिक रूप में भी निकाला। संसाधनों की कमी व आर्थिक तंगी के कारण अखबार बन्द करना पड़ा लेकिन हिम्मत न हारने वाले उप्रेती जी ने अपने दम पर पुनः साप्ताहिक रूप में स्थापित किया। लोकप्रिय सम्पादक के अलावा वह तमाम पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहे। आकाशवाणी से उनकी वार्ताएं, रूपक प्रसारित होते थे।
हमेशा ही संघर्षों के तूफानों में घिरे रहने वाले आनन्द बल्लभ उप्रेती जी की लेखनी का कमाल उनकी पुस्तकों के रूप में देखा जा सकता है। आजीवन फक्कड़ और अपने मिशन पर कायम रहने वाले आनन्द का अपना ही आनन्द था। उप्रेती हमेशा जीवन से संघर्ष करते रहे। सिद्धांतों के साथ जीने वाले उप्रेती ने अपने लेखनी के जरिए पहचान बनाई। वह युवा पत्रकारों के लिए हमेशा प्रेरणास्रोत बने रहेंगे। 22 फरवरी 2013 को उनके निधन से साहित्य व पत्रकारिता जगत में सन्नाटा पसर गया।हिमालय समाचार पत्र निकाला। 1980 में एक वर्ष दैनिक समाचार पत्र के रुप में निकाला इसके बाद से अब तक वह साप्ताहिक समाचार पत्र के संपादक रहे। नवभारत टाइम्स, नैनीताल समाचार, दिनमान के संवाददाता भी रहे। उनकी चर्चित कहानी संग्रह ‘आदमी की बू’ व ‘घौंसला में उनकी’ पत्रकारीय तीक्ष्ण दृष्टि की झलक मिलती है। उत्तराखंड आंदोलन के संदर्भ में लिखी पुस्तक ‘उत्तराखंड आंदोलन में गधों की भूमिका’ तमाम राजनेताओं व मुद्दों पर व्यंग्य पर आधारित है। उप्रेती हमेशा जीवन से संघर्ष करते रहे। सिद्धांतों के साथ जीने वाले उप्रेती ने अपने लेखनी के जरिए पहचान बनाई। वह युवा पत्रकारों के लिए हमेशा प्रेरणास्रोत बने रहेंगे।सामाजिक व व्यवस्थागत विसंगतियों पर प्रहार, पहाड़ी जीवन में आ रहे क्षरण पर चिंता, पलायन, मनुष्यता का पतन वरिष्ठ कथाकार व पत्रकार आनंद बल्लभ उप्रेती की लेखनी में झलकता रहा। राजनैतिक हृास, भटकाव व सांस्कृतिक अवमूल्यन के साथ ही ज्वलंत विषयों पर बेबाकी से संवदेनशीलता दर्शाते हुए व्यंगात्मक अंदाज में लिखी उनकी कहानियां और लेख हमेशा चर्चा का विषय बनी रही ‘राजजात के बहाने’ पुस्तक के लिए उन्हें पर्यटन मंत्रालय भारत सरकार की ओर से राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार से नवाजा गया था। उत्तराखंड सरकार की ओर से सारस्वत साधना सम्मान समेत कई अन्य पुरस्कार उन्हें प्राप्त हो चुके हैं। एक सप्ताह पहले ‘हल्द्वानी स्मृतियों के झरोखे’ से व ‘नंदा राजजात के बहाने’ का द्वितीय संस्करण का विमोचन हुआ था। उप्रेती हमेशा जीवन से संघर्ष करते रहे। सिद्धांतों के साथ जीने वाले उप्रेती ने अपने लेखनी के जरिए पहचान बनाई। वह युवा पत्रकारों के लिए हमेशा प्रेरणास्रोत बने रहेंगे। साहित्य, संस्कृति, कला, विज्ञान, इतिहास-भूगोल से लेकर राजनैतिक गतिविधियों को पि0हि0 ने हमेशा स्थान दिया है। इसके प्रकाशन द्वारा कला-संस्कृति, कहानी-कथा पर पुस्तकों को भी जन-जन तक पहँुचाया है। स्व.मर्तोलिया-स्व.उप्रेती का यह मिशन चलता रहे। इसके लिये जागरूक जनों का संरक्षण आवश्यक है। लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।

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