उत्तराखंड में मिलने वाली गहत दाल लजीज मानी जाती है, हरीश चन्द्र अन्डोला
देहरादून :- विश्व मे गहत की कुल 240 प्रजातियो मे से 30 प्रजातिया भारत मे पायी जाती है। भारत मे सर्वाधिक (28%) गहत का उत्पादन कर्नाटक राज्य मे होता है। उत्तराखंड राज्य मे लगभग 12139 हेक्टेयर क्षेत्रफल मे गहत की खेती की जाती है। उत्तराखंड में 12,319 हेक्टेयर क्षेत्रफल में इसकी खेती की जाती है। पहाड़ में सर्द मौसम में गहत (घौत) की दाल लजीज मानी जाती है। प्रोटीन तत्व की अधिकता से यह दाल शरीर को ऊर्जा देती है, साथ ही पथरी के उपचार की औषधि भी है। हमारे पूर्वजों ने अपने अनुभवों से शरीर की जरूरतों के लिए पर्याप्त ऊर्जा और पोषण के साथ-साथ पर्वतीय भोजन में मौसम का विशेष ध्यान रखा है।गर्मी के मौसम में तय किया गया भोजन ठंडी तासीर वाला होता है, जो पौष्टिक होने के साथ-साथ सुपाच्य भी होता है और मन को भी शीतलता पहुंचाता है।ठंड के मौसम के लिए जिस प्रकार का भोजन विकसित किया गया है, वह पर्याप्त कैलोरी और पौष्टिकता देने के साथ-साथ गर्म तासीर वाला भी है।गहत दाल सर्दियों के मौसम में पहाड़ों में खाई जाने वाली दालों में से एक है, गहत एक खरीब की फसल है, जो काले और भूरे रंग की होती है।गहत की दाल भारत में उत्तराखंड, हिमाचल के अलावा उत्तरपूर्व और दक्षिण भारत के साथ-साथ नेपाल, बर्मा, भूटान, श्रीलंका, मलेशिया और वेस्ट इंडीज में भोजन का एक अभिन्न अंग है। गहत को विभिन्न क्षेत्रों और देशों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है और इससे बनने वाले व्यंजन भी भिन्न होते हैं।भारत में इसके लोकप्रिय नाम गहत, गौथ, कुल्थी, हुरली और मद्रास ग्राम हैं। भारत विभिन्न क्षेत्रों में इस अनाज से दाल, डिप/फानू, जूस, खिचड़ी, चटनी, रसम, सांभर, सूप और भरवां परांठे आदि बनाए जाते हैं. आयुर्वेद में गहत को औषधीय गुणों वाले भोजन का दर्जा दिया गया है.आयुर्वेद के अनुसार गहत में पौष्टिक तत्त्वों की भरमार है गहत में उच्च गुणवत्ता के पोषक तत्व जैसे प्रोटीन, कैल्शियम, आयरन, फास्फोरस, कार्बोहाइड्रेट, फाइबर और कई प्रकार के विटामिन पाए जाते हैं। गहत की दाल में अत्यधिक पौष्टिक तत्व होते हैं, विशेष रूप से यह इंसुलिन प्रतिरोध को कम करती है, यह वजन को नियंत्रित करने के साथ-साथ लीवर के लिए भी फायदेमंद होती है। गहत दाल एंटी-हाइपरग्लाइसेमिक गुणों से भरपूर होती है। इस दाल की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें गुर्दे की पथरी को गलाने की अद्भुत क्षमता होती है। उत्तराखंड में पहाड़ की गहत की दाल जिसे स्थानीय घौत की दाल भी कहते हैं, उसका स्वाद सबसे जुदा है। गहत (घौत) की दाल, पहाड़ की दालों में अपनी विशेष तासीर के कारण खास स्थान रखती है। यह दाल गुर्दे के रोगियों के लिए अचूक दवा मानी जाती है हल्द्वानी, देहरादून, ऋषिकेश, कोटद्वार, रामनगर में रहने वाले तो सीजन में आखिर तक आस लगाए बैठे रहते हैं कि पहाड़ से कोई मुफ्त की दो-चार किलो लेता आए. हुआ तो ठीक, नहीं तो आखिर में बाजार की शरण लेते हैं. दिल्ली, लखनऊ, बरेली, चंडीगढ़ वगैरह में रह रहे पहाड़ी भी सीजन में फोन कर-करके याद दिलाते रहते हैं कि अगर हो सके तो दो-तीन किलो गहत का जुगाड़ करके रखना. उत्तराखंडियों की गहत के प्रति इस अतिशय आसक्ति के कारण ही पिछले साल गहत 140 रुपये किलो तक बिक गई और खरीददारों की कमी नहीं पड़ी. सीजन का अंत आते-आते बाजार में एक दाना भी नहीं बचा. जब तक गांव में थे तो गहत से बिगलाण (विरक्ति) आती थी, लेकिन मैदानों में बसते ही यही दाल पहाड़ से याद जोड़े रखने का सेतु बन गई. मी भी उत्तराखंडी छूं का प्रतीक हो गई. गहत की मांग किस कदर बढ़ती जा रही है, उसे इसी बात से समझा जा सकता है कि सीजन शुरू होते ही इसका अधिक से अधिक भंडारण करने के लिए हल्द्वानी के व्यापारी देवीधुरा, पाटी, लोहाघाट, शहरफाटक, लमगड़ा की तरफ दौड़ पड़ते हैं और देहरादून के व्यापारी टिहरी जिले के अंदरूनी इलाकों व जौनसार भाभर का रुख करते हैं. गहत के बीज उत्कृष्ट पोषण गुणवत्ता एवं अद्वितीय औषधीय गुणों के भण्डार हैं। गहत में प्रोटीन की मात्रा सामान्यतः अन्य दालों के बराबर ही है, जबकि रेशा, कैल्शियम, लोहा तथा मॉलिब्लेडनम की मात्रा भारत में खाई जाने वाली अन्य खाद्य दलहनों से अधिक है। सामान्यतः इसे दली हुई दाल की बजाय साबुत ही खाया जाता है एवं इसमें पायी जाने वाली का एक अच्छा पूरक बनाती है। भारत के दक्षिणी आती हैं। विभिन्न प्रकार की ग्रेवी बनाने में इस दाल का प्रयोग होता है। सूप एवं पापड़ हेतु भी इसका करती है। उत्तराखंड में गहत को पारंपरिक भोजन में हल्की आंच में रखकर देर तक पकाया जाता है। इससे भोजन में पोषण विरोधी घटक ट्रिप्सिन अवरोधक नष्ट हो जाता है और भोजन सुपाच्य बनता है। उत्तराखंड के अधिकांश स्थानीय व्यंजनों में गहत को रातभर भिगोकर रखा जाता है और भिगोने से इसके पोषण एवं खाना पकाने की गुणवत्ता पर लाभकारी प्रभाव पड़ता है। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में गहत से कई प्रकार के व्यंजन जैसे- दाल, डुबके बेड़, बड़ी, खुमड़ी, फाना, छोले, पपटोल, पपटोल की सब्जी, रस, चुड़काणी, खिचड़ी, चीला, मैचुल और ठठवाणी बनाये जाते हैं। अब युवाओं द्वारा आधुनिक भोजन प्रणाली को वरीयता देने के कारण केवल कुछ ही व्यंजन प्रचलन में हैं। उत्तराखंड में गहत पूर्णरूप से जैविक अवस्थाओं के अन्तर्गत लगभग 11 हजार हेक्टेयर क्षेत्रफल में उगायी जाती है। इससे 11 हजार टन का उत्पादन होता है। यहां गहत की औसत उत्पादकता (10 क्विंटल प्रति हेक्टेयर) प्रमुख उत्पाकद राज्यों से काफी अधिक है, जो इस क्षेत्र की के लिए अनुकूलता को दर्शाती है। पर्वतीय क्षेत्र में इसके कृषकों द्वारा घरेलू उपयोग हेतु उगाया जाता है और बहुत कम मात्रा में बेचा जाता है। प्रतिकूल परिस्थितियों जैसे सूखा के लिए सहनशीलता एवं अनुपजाऊ प्रदर्शन के कारण यह पर्वतीय क्षेत्र की कृषि में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। उपखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में पारंपरिक मिश्रित खेती की लोकप्रिय “बारानाजा अभिन्न घटक है। खरीफ फसल के रूप में गहत जून के अन्तिम सप्ताह में बोई जाती है। यह मध्य अगस्त से मध्य सितंबर तक पुष्पित होती है।उत्तराखंड में इसकी खेती मुख्य रूप 1200 मीटर की ऊंचाई तक की जाती है। यह फसल कम वर्षा वाले क्षेत्रों मेंअच्छी जल निकासी वाली मृदा तथा मध्यम पी-एच वाली रेतीली हल्की दोमट मृदा में उगने हेतु सक्षम है। जल भराव एवं पाले के लिए पूर्ण रूप से असहिष्णु है। कम लागत में किसी अन्य फसल की अपेक्षा सीमान्त क्षेत्रों में बेहतर परिणाम देने में सक्षम गहत को संसाधनहीन कृषक बहुतायत रूप से उगाते हैं। इसमें औषधीय गुण है। प्राचीनकाल से ही इससे इलाज किया जाता है। इसमें गुर्दे की पथरी को गलाने की अनूठी क्षमता है। यह अल्सर के छालों अमल्ता संबंधी समस्याओं, दमा, ब्रोंकाइटिस एवं फरत के निवारण हेतु उपचारात्मक प्रभाव डालती है। प्रचुर मात्रा में पाया जाने वाला रेशा एवं गर्म तासीर गुण के कारण यह शरीर के मोटापे को कम करने में मदद करती है। मधुमेह एक प्रमुख स्वास्थ्य समस्या है। गहत में न केवल मधुमेहरोधी गुण होते है साथ ही मधुमेह के आहार प्रबंधन के लिए यह फायदेमंद है। इसमें उच्च मात्रा में मौजूद जटिल कार्बोहाइड्रेट रक्त प्रवाह में ग्लूकोज की मात्रा को नियंत्रित कर देते हैं। इसके साथ ही फाइटिक एसिड को उपस्थिति भी स्वयं के एंजाइम पाचन को बाधित करके मधुमेह से सुरक्षा प्रदान करता है। महत में बायोएक्टिव यौगिकों को प्रचुरता के कारण उच्च एंटीऑक्सीडेंट और कैंसररोधी गुण, साथ ही कवक और जीवाणु रोगरोधी गुण भी पाए जाते हैं। गहत की औषधीय तथा न्यूट्रास्यूटिकल गुणो को देखते हुए विभिन्न शोध संस्थान के वैज्ञानिक गहत की उत्तम उत्पादन हेतु गहन वैज्ञानिक शोध द्वारा नये-नये प्रजातियो का विकास कर रहे है। उत्तराखंड राज्य के परिपेक्ष मे यदि गहत की खेती पारंपरिक, वैज्ञानिक तरीके तथा व्यवसाय के रूप मे किया जाए तो यह राज्य की आर्थिकी एवं स्वरोजगार की दिशा मे एक बेहतर कदम हो सकता है। उत्तराखंड में कृषि के क्षेत्र में काम कर रही संस्था हिमालयन एक्शन रिसर्च सेंटर (हार्क) के मुख्य कार्यकारी अधिकारी ने बताया कि पहाड़ में खेती उत्पादन कम हो रहा है। इसकी कई वजहें हैं। सरकार और यहां के स्थानीय लोगों को मिलकर इसके उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए काम करने की जरूरत है। मार्केट में इनकी मांग अधिक है, लेकिन उस अनुसार इनका उत्पादन काफी कम है। उन्होंने बताया कि संस्था द्वारा प्रदेश के चमोली, उत्तरकाशी, देहरादून, बागेश्वर आदि जिलों में पहाड़ी अनाजों की खेती और उत्पादों को बनाने का काम किया जा रहा है। संस्था के अंतर्गत 38 संगठन काम कर रहे हैं और करीब 45,000 लोग इस रोजगार जुड़े हुए हैं। दाल लजीज मानी जाती है मोटे अनाज को अब “श्री अन्न” की संज्ञा दी गयी है. यह कम पानी और कम खाद में उग जाता है और उगाने में ज्यादा मेहनत भी नहीं मांगता. पहाड़ के लिए इसलिए भी इसकी प्रसंगिकता बढ़ जाती है कि पलायन-प्रवास से मशक्कत भरे काम अब पहाड़ के खेतों में करे भी तो कौन? मडुआ-झुंगरा, भट्ट-गहत, चुवा-तिल यूँ ही कम मेहनत व सस्ती लागत से उग जाएं तो मुनाफे की बड़ी गुंजाइश दिखती है. मोटा-झोटा खा कोलेस्ट्रॉल फ्री रहने पर दुनिया सहमत है. उस पर यह वही अन्न है जिसकी नराई हर प्रवासी को देश-विदेश में रहते लगी रहती है. ऑनलाइन पर इसे ब्रांड बना, लागत से कई कई गुनी ऊँची ऍमआरपी पर बेचना नया मार्केट ट्रेंड है. इस श्री अन्न को उगाने, उत्पादन बढ़ाने, कृषि कोष बनाने और परंपरागत खेती को किसान सहित डिजिटल और हाईटेक बनाने की घोषणा है. सरकार की मंशा है कि मोटे अनाज के सन्दर्भ में अपना देश वैश्विक हब बने. गहत की उत्तम उत्पादन हेतु जो उत्तराखंड के लिए बेहतर सम्भावना रखता है
लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।