प्राचीन ग्रन्थ चरक संहिता में भी लाल चावल का उल्लेख पाया जाता है, जिसमें लाल चावल को रोग प्रतिरोधक के साथ-साथ पौष्टिक बताया गया है। पौष्टिक तथा औषधीय गुणों से भरपूर होने के साथ-साथ लाल चावल में विपरीत वातावरण में भी उत्पादन देने कि क्षमता होती है। यह कमजोर मिटटी, कम या ज्यादा पानी तथा पहाड़ी ढालूदार आसिंचित खेतों में भी उत्पादित किया जा सकता है। पौष्टिकता से भरपूर पहाड़ का लाल चावल अब अतीत का हिस्सा बनता जा रहा है। कभी लाल चावल की दर्जनों किस्में पहाड़ पर लहलहाती थी अब चार-पांच किस्में ही दिखाई देती हैं। इसका भी काफी कम मात्रा में उत्पादन किया जा रहा है।पर्वतीय भू-भाग में लाल चावल की कई किस्में बोई जाती थीं। हरित क्रांति के बाद यह किस्में बड़ी तेजी से खत्म हो गई। इसकी जगह मैदानी क्षेत्रों में बोई जाने वाली धान की किस्में आने लगी। आज पहाड़ के 80 फीसद भू-भाग में यही दिखाई देती हैं। एटकिसंन के गजेटियर में लाल चावल की 48 किस्मों का जिक्र है। जबकि कुछ जगहों पर 120 किस्में भी बताई गई हैं। पारंपरिक लाल चावलों का महत्व केवल खाद्य जरुरतों के लिए नहीं होता था, बल्कि पूजा पाठ में भी इनका विशेष महत्व होता था।जीआई टैग राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में स्थानीय उपज को उजागर करने का एक शानदार तरीका है, और यह निश्चित रूप से इसकी खेती से जुड़े लोगों के लिए गर्व और पहचान की भावना पैदा करता है।” “लेकिन, इस तरह का टैग उन फसलों की खेती में लंबे समय से मौजूद बैकएंड कृषि चुनौतियों पर काबू पाने में कितनी मदद करता है?” जबकि कुछ भारतीय जीआई-टैग उत्पादों ने अपनी अंतरराष्ट्रीय लोकप्रियता हासिल की है, वे प्रतिस्पर्धी कीमतों के साथ किसानों की मदद करने के लिए एक सीमित पारिस्थितिकी तंत्र और विशेष उत्पादों की खोज में जैव विविधता को कम करने के खतरे से ग्रस्त हैं। पौष्टिकता से भरपूर पहाड़ का लाल चावल अब अतीत का हिस्सा बनता जा रहा है। कभी लाल चावल की दर्जनों किस्में पहाड़ पर लहलहाती थी अब चार-पांच किस्में ही दिखाई देती हैं। इसका भी काफी कम मात्रा में उत्पादन किया जा रहा है।पर्वतीय भू-भाग में लाल चावल की कई किस्में बोई जाती थीं। हरित क्रांति के बाद यह किस्में बड़ी तेजी से खत्म हो गई। इसकी जगह मैदानी क्षेत्रों में बोई जाने वाली धान की किस्में आने लगी। आज पहाड़ के 80 फीसद भूभाग में यही दिखाई देती हैं। एटकिसंन के गजेटियर में लाल चावल की 48 किस्मों का जिक्र है। जबकि कुछ जगहों पर 120 किस्में भी बताई गई हैं।पारंपरिक लाल चावलों का महत्व केवल खाद्य जरुरतों के लिए नहीं होता था, बल्कि पूजा पाठ में भी इनका विशेष महत्व होता था। पिथौरागढ़ में बोये इस धान से पाíथव, चूड़े बनते थे। चनौदा के सेला से पाíथव पूजा होती थी। लोहाघाट का कत्यूर तो बासमती को टक्कर देता था। गंगोलीहाट का लाल चमयाड़, नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ का थापचिनी भी खूब स्वाद देता तो गरुड़-बागेश्वर व बलुवाकोट में चाइना फोर, गंगोली का खजिया व लोहाघाट का बडपासो भून कर चबाने के काम आता रहा है। लाल चावल की खासियत यह है कि इसे कम पानी में उगाया जा सकता है जबकि मैदानी क्षेत्र के चावल के पैदावार को ज्यादा पानी की जरुरत होती है। लाल चावल की प्रजातियांसाल: यह धान पिथौरागढ़ क्षेत्र में सिचित (पनगल) व असिचित (उनगल) दोनों अवस्थाओं में बोया जाता है। पूजा (अक्षत तथा पाíथव) के काम आता है। इसका आटा पाíथव पूजा (सन्तति प्राप्ति हेतु) के अलावा पकवान (साया व सिगल) बनाने के काम आता है।जमाल: यह भी साल की तरह पकवान बनाने तथा विशेष रूप से च्यूड़ा व सिरौला बनाने के काम आता है।खजिया: यह धान विशेषत: बेरीनाग-गंगोली व आस-पास के क्षेत्र में ही होता है। यह सिचित धान है। इसका भात नहीं बनता बल्कि धान के मुरमुरे चावल बनते हैं, जो अखरोट या भट के भुने दानों के साथ चबाकर खाने के काम आते हैं। खीर बनाने में यह विशेष रुप से प्रयुक्त किया जाता है.कत्यूर: यह लोहाघाट में पनगल में बोया जाने वाला प्रसिद्ध धान है. स्वादिष्ट और मीठा. बाल निकलते समय पौधे से खुशबू आती है. पूर्व में विवाह के समय बासमती के स्थान पर इसे ही बनाया जाता था.बड़पासो: यह लोहाघाट तथा गंगोली में होने वाला लाल रंग का धान है। इसके खाजे (धान को भूनकर ओखल में कूट कर बनाए गए चपटे चावल, जो चबाकर खाए जाते हैं) स्वादिष्ट होते हैं। इसका भात विशेष स्वादिष्ट नहीं होता।चम्याड़गंगोलीहाट में पाताल भुवनेश्वर क्षेत्र में होने वाले लाल चावल का यह धान उपराऊँ में होता है. इसका भात स्वादिष्ट होता है.थापचीनीकुमांऊ क्षेत्र की सिचित धान की यह अत्यधिक प्रचलित किस्म है। कहीं-कहीं इसे असिचित भी बोया जाता है.पौष्टिकता से भरपूर लाल चावल में प्रोटीन 7.0 ग्राम/100 ग्राम फाइबर 2 ग्राम/100 ग्राम, लौह 5.5 मिग्रा/100 ग्राम तथा जिक 3.3 मिग्रा/100 ग्राम तक पाए जाते है। यह चावल डाइबिटीज का मरीज भी खा सकता हैं।लाल चावल की प्रजाति कुछ जगहों पर होती है। लेकिन वह भी काफी कम मात्रा में। इसको बढ़ावा देने के प्रयास किए जा रहे हैं।गांवों की तरक्की के लिए सोच में बदलाव हर स्तर पर जरूरी है। लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।