सुंदरलाल बहुगुणा का जन्म नौ जनवरी, 1927 को टिहरी जिले में भागीरथी नदी किनारे बसे मरोड़ा गांव में हुआ। 13 साल की उम्र में अमर शहीद श्रीदेव सुमन के संपर्क में आने के बाद उनके जीवन की दिशा बदल गई। सुमन से प्रेरित होकर वह बाल्यावस्था में ही आजादी के आंदोलन में कूद गए थे। वह अपने जीवन में हमेशा संघर्ष करते रहे और जूझते रहे। चाहे पेड़ों को बचाने के लिए चिपको आंदलन हो, चाहे टिहरी बांध का आंदोलन हो, चाहे शराबबंदी का आंदोलन हो, उन्होंने हमेशा अपने को आगे रखा। नदियों, वनों व प्रकृति से प्रेम करने वाले बहुगुणा उत्तराखंड में बिजली की जरूरत पूरी करने के लिए छोटी-छोटी परियोजनाओं के पक्षधर थे। इसीलिए वह टिहरी बांध जैसी बड़ी परियोजनाओं के पक्षधर नहीं थे। जब भी उनसे बातें होती थीं, तो विषय कोई भी हो, अंततः बात हमेशा प्रकृति और पर्यावरण की तरफ मुड़ जाती थी। उनके दिलोदिमाग और रोम-रोम में प्रकृति के प्रति सम्मान और संरक्षण की भावना थी। उन्होंने अपने कार्यों से अनगिनत लोगों को प्रेरित किया और काफी कुछ सीखा।महज 13 साल की उम्र में सुंदरलाल बहुगुणा के मन में कुछ अलग करने की ऐसी धुन सवार हुई कि वह अमर शहीद श्रीदेव सुमन के संपर्क में आ गए। इसके बाद उन्होंने टिहरी रियासत के खिलाफ बगावत से लेकर शराबंदी, ‘चिपको’ आंदोलन, टिहरी बांध विरोधी आंदोलन सहित कई अन्य आंदोलनों की अगुआई की और पर्यावरण संरक्षण के लिए बेमिसाल कार्य किया। प्रसिद्ध पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा का जन्म टिहरी के पास मरोड़ा गांव में नौ जनवरी 1927 को हुआ। उनके पिता अंबादत्त बहुगुणा टिहरी रियासत में वन अधिकारी थे। वह तब महज 13 साल के थे, जब टिहरी में श्रीदेव सुमन के संपर्क में आए। उस अवधि में श्रीदेव सुमन टिहरी रियासत के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे। उन्होंने बहुगुणा की प्रतिभा देख उन्हें कुछ किताबें पढ़ने को दीं। फिर तो बहुगुणा के किशोर मन में क्रांति और कुछ अलग करने की धुन सवार हो गई। वर्ष 1944 में टिहरी जेल में बंद श्रीदेव सुमन की बातें बहुगुणा ने ही उस वक्त जनता के बीच पहुंचाई थीं। इससे वे भी टिहरी रियासत के निशाने पर आ गए और उन्हें हिरासत में ले लिया गया। इसके बाद बहुगुणा पढ़ाई के लिए लाहौर चले गए। इस दौरान टिहरी रियासत की पुलिस से बचने के लिए वह कुछ समय तक भेष बदलकर भी रहे। जून 1947 में लाहौर से प्रथम श्रेणी में बीए आनर्स कर टिहरी लौटे तो फिर टिहरी रियासत के खिलाफ बने प्रजामंडल में सक्रिय हो गए। इस बीच 14 जनवरी 1948 को टिहरी राजशाही का तख्तापलट हो गया और प्रजामंडल की सरकार बनी तो उसमें बहुगुणा को प्रचार मंत्री की जिम्मेदारी मिली। फिर कुछ समय तक वे कांग्रेस में भी रहे। वर्ष 1955 में गांधीजी की अंग्रेज शिष्य सरला बहन के कौसानी आश्रम में पढ़़ी विमला नौटियाल से उनका संपर्क हुआ। विमला ने उनसे शादी के लिए राजनीति छोडऩे और सुदूर किसी पिछड़े गांव में बसने की शर्त रखी। बहुगुणा ने शर्त मान ली और टिहरी से 22 मील दूर पैदल चलकर सिल्यारा गांव में झोपड़ी डाल दी। 19 जून 1956 को वहीं विमला नौटियाल से शादी की और पर्वतीय नवजीवन मंडल संस्था बनाई।1960 और 1970 के दशक में बहुगुणा ने शराबंदी आंदोलन चलाया और सरकार को पहाड़ों में शराब की दुकानें बंद करनी पड़ीं। 1974 में बहुगुणा प्रसिद्ध ‘चिपको’ आंदोलन का हिस्सा बने और हरे पेड़ों को कटने से बचाया। वर्ष 1981 में केंद्र सरकार ने उन्हें पद्मश्री देने की घोषणा की, लेकिन उन्होंने पुरस्कार नहीं लिया और केंद्र से कहा कि पहाड़ों में ऊंचाई वाले इलाकों में पेड़ काटने पर प्रतिबंध लगाया जाए। इसके बाद केंद्र सरकार ने उनकी बात मानी और ऊंचाई वाले क्षेत्रों में पेड़ कटान पर प्रतिबंध लगाया। तभी बहुगुणा ने पद्मश्री स्वीकार किया। 1986 में बहुगुणा टिहरी बांध निर्माण के खिलाफ आंदोलन में सक्रिय हुए और 24 नवंबर 1989 में अपना सिल्यारा का आश्रम छोड़कर टिहरी में भागीरथी के तट पर बांध स्थल के पास धरना शुरू कर दिया। आंदोलन के दौरान कई बार वह जेल भी गए। लेकिन, उनके आंदोलन के प्रभाव से सरकार को बांध निर्माण के दौरान पर्यावरण प्रभाव के लिए कई समितियों का गठन करना पड़ा।
क्या हैं जंगल के उपकार,
मिट्टी, पानी और बयार.
मिट्टी, पानी और बयार,
जिन्दा रहने के आधार.’
पर्यावरण और हिमालय की हिफाजत की समझ को विकसित करने वाले इस नारे के साथ एक पीढ़ी बड़ी हुई. इस नारे को जन-जन तक पहुंचाने वाले हिमालय प्रहरी सुन्दरलाल बहुगुणा के साथ. साठ-सत्तर के दशक में हिमालय और पर्यावरण को जानने-समझने की जो चेतना विकसित हुई उसमें सुन्दरलाल बहुगुणा के योगदान को हमेशा याद किया जायेगा. पर्यावरण और हिमालय को जानने-समझने वालों के अलावा एक बड़ी जमात है जो उन्हें एक आइकाॅन की तरह देखती है. कई संदर्भों में, कई पड़ावों में. उन्हें पहचान भले ही एक पर्यावरणविद के रूप में मिली, लेकिन स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता, सामाजिक समरसता के लिये काम करने वाले कार्यकर्ता, महिलाओं और दलित समाज में गैरबराबरी लिये उन्होंने बड़ा काम किया. एक सजग पत्रकार के रूप में वे लंबे समय तक लिखते रहे. सुन्दरलाल बहुगुणा के लिये सत्तर का दशक बहुत महत्वपूर्ण रहा है. असल में पहाड़ में आजादी के आंदोलन में भी दो मांगें प्रमुख रही हैं जल, जंगल जमीन पर हक-हकूक और शराबबंदी. आजादी के बाद भी इनके खिलाफ आंदोलन होते रहे. सत्तर के दशक में इन आंदोलनों ने नये सिरे से जन्म लिया. शराब के खिलाफ स्वर मुखर होने लगे. सुन्दरलाल बहुगुणा इन आंदोलनों में शामिल हुये. उन्होंने 1971 में शराब की दुकानें खाोलने के खिलाफ सोलह दिन तक अनशन किया.साठ के दशक में पूरी दुनिया में ‘हिमालय बचाओ आंदोलन’ शुरू हो चुका था. जिस तरह से वनों का दोहन और जंगलात कानून बनने लगे थे लोगों में भारी असंतोष पनपने लगा. उत्तराखंड के दोनों हिस्सों कुमाऊं और गढ़वाल में 1973 आते-आते वन आंदोलन मुखर हो रहे थे. पहाड़ में जंगलों को बचाने को लेकर एक नई चेतना विकसित हो रही थी. युवा और छात्र भी इस आंदोलन में थे.इसी समय सरकार ने यहां की बहुमूल्य लकड़ी को बड़े ईजारेदारों को तीस साला एग्रीमेंट पर देकर जंगलों को ठकेदारों के हवाले करने की नीति बना ली थी. इस आंदोलन में सुन्दरलाल बहुगुणा की महत्वपूर्ण भूमिका थी. चमोली जनपद के रैंणी गांव में इन्हीं सरकारी ठेकेदारों के खिलाफ 26 मार्च 1974 को जब गौरादेवी के नेतृत्व में महिलाओं ने नारा लगाया- ‘जंगल हमारा मायका है, हम पेड़ नहीं कटने देंगे.’ तो इसकी अनुगूंज पहाड़ से बाहर देश-दुनिया में पहुंच गयी. इसे ‘चिपको आंदोलन’ के रूप में जाना जाने लगा.सुन्दरलाल बहुगुणा ने इस पूरे आंदोलन को आगे बढ़ाया. इसे जल, जंगल और जमीन के साथ जोड़ते हुये जीवन के लिये हिमालय और पर्यावरण को बचाने की समझ को स्थापित किया. इन सवालों को बहुत संगठित, नियोजित, तथ्यात्मक और व्यावहारिक रूप से समझाने और अपने हकों को पाने का रास्ता सुन्दरलाल बहुगुणा ने तैयार किया. वे एक दशक तक इस आंदोलन को देश-विदेश तक पहुंचाते रहे. चिपको आंदोलन की प्रासंगिकता को बताने के लिये उन्होंने हिमालय की पांच हजार किलोमीटर से अधिक यात्रा की. इसमें कोहिमा से कश्मीर की यात्रा भी शामिल है. देश-विदेश और गांव-गांव जाकर 1973 से 1981 तक चिपको आंदोलन को सक्रिय रूप से चलाया. प्रकृति, पानी, पहाड़ और पर्यावरण के प्रति उनकी संवेदना को इस बात से समझा जा सकता है कि उन्होंने चावल खाना छोड़ दिया था. उनका मानना था कि धान की खेती में पानी की ज्यादा खपत होती है. वे कहते थे कि इससे वह कितना पानी का संरक्षण कर पायेंगे कह नहीं सकते, लेकिन प्रकृति के साथ सहजीविता का भाव होना चाहिये. एक और उदाहरण है- 1981 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने उन्हें पद्मश्री पुरस्कार देने की घोषणा की. उन्होंने इसे यह कहकर लेेने से इंकार कर दिया कि जब तक पेड़ कटते रहेंगे मैं यह सम्मान नहीं ले सकता.हालांकि उनके काम को देखते हुये उन्हें प्रतिष्ठित जमनालाल पुरस्कार, शेर-ए-कश्मीर, राइट लाइवलीवुड पुरस्कार, सरस्वती सम्मान, आईआईटी से मानद डाक्टरेट, पहल सम्मान, गांधी सेवा सम्मान, सांसदों के फोरम ने सत्यपाल मित्तल अवार्ड और भारत सरकार ने पदविभूषण से सम्मानित किया. इन पुरस्कारों के तो वे हकदार थे ही, लेकिन सबसे संतोष की बात यह है कि हमारी पीढ़ी के लोगों ने उनके सान्निध्य में हिमालय और पर्यावरण की हिफाजत की जिम्मेदारियों को उठाने वाले एक समाज को बनते-खड़े होते देखा है. चमोली जिले के जोशीमठ में जिस तरह जमीनें फट रही हैं। पहाड़ खिसक रहे हैं। जमीन से पानी के स्रोत फूट रहे हैं। ऐसे में पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा की यादें फिर से ताजा हो गई हैं। आज नौ जनवरी को उनका जन्मदिवस है और जोशीमठ सहित पहाड़ों में विकास के नाम पर किए जा रहे निर्माण कार्यों के खिलाफ फिर से बड़े आंदोलन की जरूरत महसूस होने लगी है। क्योंकि विकास के नाम पर जिस तरह से पहाड़ों का सीना चीरा जा रहा है, उसके खिलाफ समय समय पर बहुगुणाजी आंदोलन करते रहे। आज उनकी जन्मतिथि पर एक बार फिर से उत्तराखंड के पर्यावरण को बचाने के लिए एक बड़े आंदोलन की जरूरत महसूस की जा रही है।
लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।