Uncategorized

उत्तराखंडी हस्तशिल्प को देश-दुनिया में प्राण पखेरू नई पहचान डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

देहरादून : मध्य हिमालय की गोद में बसे उत्तराखंड का हस्तशिल्प सदियों से आकर्षण का केंद्र रहा है। फिर चाहे वह काष्ठ शिल्प हो, ताम्र शिल्प अथवा ऊन से बने वस्त्र। सभी की खूब मांग रही है। हालांकि, बदलते वक्त की मार से यहां का हस्तशिल्प भी अछूता नहीं रहा है। हस्तशिल्पियों और बुनकरों को पूर्व में राज्याश्रय न मिलने का ही नतीजा रहा कि यह कला सिमटने लगी थी। दरअसल, हस्तशिल्प को लेकर बाजार की मांग के अनुरूप कदम उठाने की दरकार है। इसके लिए पेेशेवर डिजायनरों की मदद ली जानी चाहिए, ताकि यहां के हस्तशिल्पी भी देश-दुनिया के साथ कदम से कदम मिला सकें। इसके लिए हस्तशिल्प को नए कलेवर में निखारने के साथ ही इसमें नित नए-नए प्रयोग की जरूरत है। इसे देखते हुए राज्य सरकार ने अब उत्तराखंडी हस्तशिल्प को नए कलेवर में निखारने के मद्देनजर देश के नामी संस्थानों के पेशेवर डिजायनरों की सेवाएं लेने का निश्चय किया है। साथ ही विपणन के लिए भी प्रभावी कदम उठाने की सरकार ने ठानी है। इसके तहत न सिर्फ राज्य के प्रमुख शहरों में शिल्प इंपोरियम स्थापित किए जाएंगे, बल्कि इनके माध्यम से हस्तशिल्प उत्पाद देश के विभिन्न हिस्सों के साथ ही दुनियाभर में जाएंगे। साफ है कि इससे उत्तराखंडी हस्तशिल्प को देश-दुनिया में नई पहचान मिलेगी। हाथ में जमीन न हो तो कोई गम नहीं। जिसके पास कला का हुनर है, उसके हाथों से कुछ भी दूर नहीं रह सकता।” जी हाँ, इन पंक्तियों को सार्थक कर दिखाया है धर्म लाल ने। जिन्होंने बेजान पड़ी लकड़ियों पर अपनी बेजोड़ हस्तशिल्प काष्ठ कला से उन्हें जीवंत कर दिया है। धर्म लाल के पास न तो कोई इंजीनियरिंग की डिग्री है, न कोई डिप्लोमा और न ही कोई उच्च शिक्षा की डिग्री लेकिन फिर भी 57 वर्षीय धर्म लाल विगत 40 सालों से विरासत में मिली अपनी काष्ठकला को बचाने में जुटे हुए हैं।उन्होंने उत्तराखंड की हस्तशिल्प काष्ठकला को सात संमदर पार विदेशों तक भी पहुँचाया है। जहाँ उनकी कला को देखकर हर कोई आश्चर्यचकित रह गया था। 57 वर्षीय धर्म लाल को बचपन से ही हस्तशिल्प से लगाव था। उन्हें हस्तशिल्प काष्ठ कला का हुनर विरासत में अपने परिवार से मिला। उनके परिवार में कई पीढ़ियों नें काष्ठकला को आगे बढ़ाने का काम किया। धर्म लाल विगत 40 वर्षों से काष्ठकला के माध्यम से ही अपने परिवार का पालन पोषण कर रहे हैं।महज 15-16 वर्ष की छोटी उम्र से ही धर्म लाल नें हस्तशिल्प काष्ठ कला का काम करना शुरू कर दिया था। धर्म लाल पहाड़ों में परंपरागत खोली, रम्माण के मुखौटे, घरों के लकड़ी के जंगले, लकड़ी के भगवान के मंदिर व मूर्तियाँ बनाकर स्थानीय बाजार में बेचते हैं, लेकिन बदलते दौर में स्थानीय बाजार में उनकी मांग न के बराबर है। बावजूद इसके धर्म लाल उत्तराखंड की काष्ठकला को बचाने में लगे हुए हैं। हस्तशिल्प कला के लिए विभिन्न अवसरों पर दर्जनों सम्मान भी मिल चुके हैं। 2016 में उन्हें उत्तराखंड शिल्प रत्न पुरस्कार भी मिल चुका है। जबकि 2017 में भारत सरकार के इंटीग्रेटेड डेवलपमेंट एंड प्रमोशन ऑफ हैंडीक्रॉफ्ट योजना के तहत चयनित होने के बाद धर्म लाल ने इंग्लैंड के बर्मिंघम में आयोजित ऑटोमन इंटरनेशनल फेयर 2017 में लकड़ियों की वस्तुओं की प्रदर्शनी लगाई थी। वहाँ धर्म लाल ने अपने हाथों से तराशे लकड़ी के पशु-पक्षी, मुखौटे व केदारनाथ मंदिर(रेप्लिका) का प्रदर्शन किया था। धर्म लाल बताते हैं कि सात समंदर पार विदेशियों ने भी उत्तराखंड की इस कला की सराहना की थी। उन्हें इस बात की खुशी है कि उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहाड़ की काष्ठकला का लोहा मनवाया। ऊर्गम घाटी में हर साल लगने वाले गौरा देवी मेले में धर्म लाल अपने मुखौटे व अन्य उत्पादों की प्रदर्शनी लगाते हैं। विगत दिनों दीपक रमोला के प्रोजेक्ट फ्यूल ने भी धर्म लाल की बेजोड़ हस्तशिल्प कला पर एक शानदार डॉक्यूमेंट्री बनाई थी, जिसे लोगों ने बेहद सराहा था। देखा जाए तो पहाड़ में हुनरमंदो की कोई कमी नहीं है। यहाँ एक से बढ़कर एक बेजोड़ हस्तशिल्पकार हैं। लेकिन बेहतर बाजार और मांग न होने से इन हस्तशिल्पकारों को उचित मेहनताना नहीं मिल रहा है।ऊर्गम घाटी के सामाजिक सरोकारों से जुड़े एक युवा रघुवीर नेगी कहते हैं, “आर्थिक तंगी की वजह से उत्तराखंड के विभिन्न जनपदों के बेजोड़ हस्तशिल्पकार आज बेहद मायूस है जिस कारण से हस्तशिल्प कला दम तोड़ती नजर आ रही है। जरूरत है ऐसे हस्तशिल्पकारों को प्रोत्साहित करने की और हरसंभव मदद करने की।” हस्तशिल्प को निखारने के लिए राज्य के स्थानीय संसाधनों को बड़े विकल्प के तौर पर लेने की तैयारी है। इस कड़ी में भीमल सबसे अहम भूमिका निभाएगा। दरअसल, राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में पाए जाने वाले भीमल के पेड़ पशुओं के लिए उत्तम चारा हैं। साथ ही इसकी टहनियों से निकलने वाले रेशे का उपयोग सदियों से रस्सी आदि बनाने में किया जा रहा है। हालांकि, भीमल के रेशे से कई उत्पाद भी तैयार किए गए, मगर इन्हें बड़े बाजार की तलाश है। इसमें डिजाइन से लेकर अन्य प्रयोग किए जाने की दरकार है। इसी तरह राज्यभर में बांस व रिंगाल भी मिलता है। बांस व रिंगाल से टोकरियां, सजावटी सामान तैयार किया जाता है। बांस, रिंगाल का उपयोग फर्नीचर बनाने में भी होता है। जाहिर है कि भीमल, बांस व रिंगाल का उपयोग आजीविका के साधन के तौर पर होगा तो बड़े पैमाने पर इन प्रजातियों का पौधरोपण भी होगा। इससे पर्यावरण की सेहत भी संवरेगी। यही नहीं, राज्य में हर साल जंगलों की आग का सबब बनने वाली चीड़ की पत्तियां यानी पिरुल से भी कई प्रकार की सजावटी वस्तुएं तैयार की हैं। इस सबको देखते हुए सरकार ने इसे भी संसाधन के तौर पर लिया है और इसमें आजीविका के अवसर तलाशे हैं। जरूरत इस बात की है कि सरकार इस पहल को पूरी गंभीरता के साथ धरातल पर उतारना सुनिश्चित करे। एक आंकडे़ के अनुसार उत्तराखंड में वर्तमान में करीब 50 हजार से अधिक हस्तशिल्पि हैं जो अपने हुनर से हस्तशिल्प कला को संजो कर रखे हुए हैं। ये हस्तशिल्पि रिंगाल, बांस, नेटल फाइबर, ऐपण, काष्ठ शिल्प और लकड़ी पर बेहतरीन कलाकरी के जरिए उत्पाद तैयार करते आ रहे हैं। लेकिन बाजार में मांग की कमी, ज्यादा समय और कम मेहनताना मिलने की वजह से युवा पीढ़ी अपने पुश्तैनी व्यवसाय को आजीविका का साधन बनाने में दिलचस्पी कम ले रही है। परिणामस्वरूप आज हस्तशिल्प कला दम तोड़ती और हांफती नजर आ रही है। दरअसल, आधुनिक विकास ने जब-जब पर्यावरण के वजूद को चुनौती दी है तो सबसे बड़ा जोखिम उन कारीगरों, कलाकारों, घुमंतू जनजातियों, मछुआरों और कारीगरों को उठाना पड़ा है जो अपने पारंपरिक व्यवसायों के लिए अपने आसपास के वातावरण पर निर्भर करते हैं। इस तरह, हर जगह की अद्भुत खूबियां कालग्रस्त हो जाती हैं। अमूर्त विरासत से लेकर लिखाई जैसी काष्ठकला के प्राण पखेरू उड़ जाते हैं। और यह इतना चुपचाप और इतनी धीमी रफ्तार से होता है कि जब तक समझ में आता है तब तक काफी देर हो चुकी होती है। लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *