दुनिया को रोशनी के साथ ऊष्मा और ऊर्जा के रूप में जीवन देने के कारण साक्षात देवता कहे जाने वाले सूर्यदेव के धनु से मकर राशि में यानी दक्षिणी से उत्तरी गोलार्ध में आने का उत्तर भारत में मकर संक्रांति के रूप में मनाया जाने वाला पर्व पूरे देश में अलग-अलग प्रकार से मनाया जाता है। पूर्वी भारत में यह बीहू, पश्चिमी भारत (पंजाब) में लोहणी और दक्षिणी भारत (कर्नाटक, तमिलनाडु आदि) में पोंगल तथा देवभूमि उत्तराखंड में यह उत्तरायणी के रूप में मनाया जाता है। उत्तराखंड के लिए यह पर्व न केवल मौसम परिवर्तन के लिहाज से एक ऋतु पर्व वरन बड़ा ऐतिहासिक और सांस्कृतिक लोक पर्व भी है।उत्तरायणी मेला आजादी की लड़ाई का भी अहम माध्यम रहा है। कुली बेगार और कुली उतार जैसी अमानवीय प्रथा को खत्म करने में इस मेले की प्रमुख भूमिका रही। 1921 को उत्तरायणी के मेले में आए हजारों लोगों के माध्यम से कुली उतार के बहिष्कार का संदेश उत्तराखंड के अधिकतर हिस्सों तक पहुंच गया। जनवरी 1921 में राष्ट्रीय स्तर पर ब्रिटिश सरकार के खिलाफ बडे़ आंदोलन की तैयारी चल रही थी। पर्वतीय क्षेत्र में आवागमन के साधन नहीं होने के कारण ब्रिटिश सरकार कुली उतार और कुली बेगार जैसी अमानवीय व्यवस्था का सहारा ले रही थी। पहाड़ के लोगों के लिए यह बड़ी समस्या थी। उत्तरायणी का मेला इस कुप्रथा के विनाश का बड़ा माध्यम बना। आज जिस सरयू बगड़ पर राजनीतिक दलों के पंडाल लगते हैं,1921 की उत्तरायणी में यही स्थान देश भक्ति के एक बड़े घटनाक्रम का साक्षी बना। 1 जनवरी 1921 को चामी गांव में कुली बेगार के खिलाफ एक बड़ी सभा हुई। यहां तय हुआ कि कुली उतार के खिलाफ कुमाऊं व्यापी अभियान चलाया जाएगा। इसके बाद उत्तरायणी मेले को इसके प्रचार और विस्तार का माध्यम बनाने की रणनीति बनी। 10 जनवरी को अल्मोड़ा से बद्रीदत्त पांडे और हरगोविंद पंत सहित कई आंदोलनकारी बागेश्वर पहुंचे। इसके बाद मेले में जुलूस प्रदर्शन, सभाओं का दौर चला। कुली बेगार के रजिस्टर सरयू में बहा दिए गए। बेगार नहीं देने की शपथ ली गई। इसी संकल्प और संदेश को लेकर मेलार्थी घरों को लौटे। आंदोलन का इतना गहरा असर हुआ कि बागेश्वर आए असिस्टेंट कमिश्नर डायबिल और अन्य अधिकारियों को कुली तक नहीं मिले। बाद में कुली उतार प्रथा खत्म हुई। इसका बड़ा श्रेय उत्तरायणी मेले को जाता है। गढ़वाल में ‘उत्तरायणी’ को ‘मकरैणी’ के नाम से जाना जाता है। उत्तरकाशी, पौड़ी, टिहरी, चमोली में ‘मकरैणी’ को उसी रूप में मनाया जाता है, जिस तरह कुमाऊं मंडल में। यहां कई जगह इसे ‘चुन्या त्यार’ भी कहा जाता है।इस दिन दाल, चावल, झंगोरा आदि सात अनाजों को पीसकर उससे एक विशेष व्यंजन ‘चुन्या’ तैयार किया जाता है। इसी प्रकार इस दिन उड़द की खिचड़ी ब्राह्मणों को दिये जाने और स्वयं खाने को ‘खिचड़ी त्यार’ भी कहा जाता है। ऐसे भी कुछ क्षेत्र हैं जहां घुघुुतों के समान ही आटे के मीठे ‘घोल्डा/घ्वौलों’ (मृगों) के बनाये जाने के कारण इसे ‘घल्डिया’ या ‘घ्वौल’ भी कहा जाता है।‘उत्तरायणी’ के दिन पौड़ी गढ़वाल जिले एकेश्वर विकासखंड के डाडामंडी, थलनाड़ी आदि जगहों पर ‘गिंदी मेले’ का आयोजन होता है। ‘गिंदी मेलों’ का पहाड़ों में बहुत महत्व है। यह मेला माघ महीने की शुरुआत में कई जगह होता है।डाडामंडी और थलनाड़ी के ‘गिंदी मेले’ बहुत मशहूर हैं। दूर-दूर से लोग इन मेलों में शामिल होने के लिए आते हैं। मेले में गांव के लोग एक मैदान में दो हिस्सों में बंट जाते हैं। दोनों टीमों के सदस्य एक डंडे की मदद से गेंद को अपनी तरपफ कोशिश करती हैं। एक तरह से यह पहाड़ी हाॅकी का रूप है। कुमाऊं में इसे ‘गिर’ कहते हैं।‘उत्तरायणी’ का जहां सांस्कृतिक महत्व है, वहीं यह हमारी चेतना और संकल्पों को मजबूत करने वाला त्योहार भी है। परंपरागत रूप से मनाई जाने वाली ‘उत्तरायणी’ स्वतंत्रता आंदोलन के समय जन चेतना की अलख जगाने लगी। आजादी की लड़ाई के दौर में जब 1916 में कुमाऊं परिषद बनी तो आजादी के आंदोलन में एक नई ऊर्जा का संचार हुआ। अपनी समस्याओं के समाधान के लिये स्थानीय स्तर पर जो लोग लड़ रहे थे उन्हें लगा कि आजादी ही हमारी समस्याओं का समाधान है। इसलिये बड़ी संख्या में लोग संगठित होकर कुमाऊं परिषद के साथ जुड़ने लगे। अंग्रेजी शासन में ‘कुली बेगार’ की प्रथा बहुत कष्टकारी थी। अंग्रेज जहां से गुजरते किसी भी पहाड़ी को अपना ‘कुली’ बना लेते। उसके एवज में उसे पगार भी नहीं दी जाती। अंग्रेजों ने इसेे स्थानीय जनता के मानसिक और शारीरिक शोषण का हथियार बना लिया था। इसके खिलाफ प्रतिकार की आवाजें उठने लगी थी। धीरे-धीरे इस प्रतिकार ने संगठित रूप लेना शुरू किया। कुमाऊं केसरी बद्रीदत्त पांडे के नेतृत्व में 14 जनवरी, 1921 को बागेश्वर के ‘उत्तरायणी’ मेले में हजारों लोग इकट्ठा हुये। सबने सरयू-गोमती नदी के संगम का जल उठाकर संकल्प लिया कि ‘हम कुली बेगार नहीं देंगे।’ कमिश्नर डायबिल बड़ी फौज के साथ वहां पहुंचा था। वह आंदोलनकारियों पर गोली चलाना चाहता था, लेकिन जब उसे अंदाजा हुआ कि अधिकतर थोकदार और मालगुजार आंदोलनकारियों के प्रभाव में हैं तो वह चेतावनी तक नहीं दे पाया। इस प्रकार एक बड़ा आंदोलन अंग्रेजों के खिलाफ खड़ा हो गया। हजारों लोगों ने ‘कुली रजिस्टर’ सरयू में डाल दिये। इस आंदोलन के सूत्रधारों में बद्रीदत्त पांडे, हरगोविन्द पंत, मोहन मेहता, चिरंजीलाल, विक्टर मोहन जोशी आदि महत्वपूर्ण थे। ‘उत्तरायणी’ आजादी के बाद भी आंदोलनों में हमारा मार्गदर्शन करती रही है। बागेश्वर के सरयू-गोमती बगड़ में तब से लगातार चेतना के स्वर उठते रहे हैं।आजादी के बाद सत्तर के दशक में जब जंगलात कानून के खिलाफ आंदोलन चला तो आंदोलनकारियों ने उत्तरायणी के अवसर पर यहीं से संकल्प लिये। आंदोलनों के नये जनगीतों का आगाज हुआ- ‘आज हिमाला तुमन क ध्यतौंछ, जागो-जागो ये मेरा लाल।’ अस्सी के दशक में जब नशा नहीं रोजगार दो आंदोलन’ चला तो इसी ‘उत्तरायणी’ से आंदोलन के स्वर मुखर हुये।1987 में भ्रष्टचार के खिलाफ जब भवदेव नैनवाल ने भ्रष्टाचार के प्रतीक ‘कनकटे बैल’ को प्रधानमंत्री राजीव गांधी के सामने पेश करने के लिये दिल्ली रवाना किया तो बागेश्वर से ही संकल्प लिया गया। उत्तराखंड राज्य आंदोलन के शुरुआती दौर में राज्य आंदोलन के लिये हर वर्ष नई चेतना के लिये आंदोलनकारी बागेश्वर के ‘उत्तरायणी’ मेले में आये। उत्तराखंड की राजधानी गैरसैंण बनाने के लिये संकल्प-पत्र और वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली के नाम पर गैरसैंण का नाम ‘चन्द्रनगर’ रखने का प्रस्ताव भी 1992 में यहीं से पास हुआ।तभी जनकवि ‘गिर्दा’ ने उत्तराखंड आंदोलन को स्वर देते हुये कहा कि- ‘उत्तरैणी कौतिक ऐगो, वैं फैसाल करूंलों, उत्तराखंड ल्हयूंल हो दाज्यू उत्तराखंड ल्हयूंलो।’ जनवरी 1921 से आज तक सरयू-गोमती के संगम में ‘उत्तरायणी’ के अवसर पर जन चेतना के लिये राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों का जमावड़ा रहता है। इसलिये ‘उत्तरायणी’ हमारे लिये चेतना का त्योहार भी है।‘उत्तरायणी’ न केवल हमारी सांस्कृतिक थाती है, बल्कि हमारे सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और समसामयिक सवालों को समझने और उनसे लड़ने की प्रेरणा भी है। जब हम ‘उत्तरायणी’ को मनाते हैं तो हमारे सामने संकल्पों की एक लंबी यात्रा के साथ चलने की प्रेरणा भी होती है। सौ साल पहले बागेश्वर में अंग्रेजों के समय की बात से संबोधन शुरू करते हुए कहा कि अंग्रेजों से डरकर कुली का काम करना पड़ता था। पंडित बद्रीदत्त पांडे ने कुली बेगार आंदोलन के लिए लोगों को तैयार किया था। उन्हें सफलता मिली और उससे लोग आजाद हुए थे। वर्तमान में प्रधानमंत्री देश की संस्कृति को आगे बढ़ाने का कार्य कर रहे हैं। कोश्यारी ने कहा कि पहले लोग मंडुवा, गहत, बाजरा की रोटी गरीबों का भोजन समझते थे, आज इसकी ताकत देशवासी समझ रहे हैं। मोटे अनाज में बाजरा, मंडुवा शरीर के लिए लाभदायक है। बोले- बरेली से उत्तराखंड की संस्कृति काफी मेल खाती है।उत्तराखंड के बहुत सारे सवाल राज्य बनने के इन 23 वर्षो बाद भी हमें बेचैन कर रहे हैं।यह बेचैनी अगर इस बार की ‘उत्तरायणी’ तोड़ती है तो हम समझेंगे कि हमारी चेतना यात्रा सही दिशा में जा रही है। आप सब लोगों को ‘उत्तरायणी’ की बहुत सारी शुभकामनायें। इस आशा के साथ कि ‘उत्तरायणी’ का यह पर्व आप सबके लिये नये संकल्पों का हो। ऐसे संकल्प जो मानवता के काम आये।
लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।