कुमाऊंनी गढ़वाली को भाषा का गौरवपूर्ण इतिहास दिलाने को प्रयास सरकार करेगी सरकार ? डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
कुमाऊँनी तथा गढ़वाली आधुनिक भारतीय-आर्य भाषाएँ हैं, जिन्हें मध्य हिमालय की पहाड़ी भाषाएँ कहकर भी वर्गीकृत किया जाता है। इनका विकासक्रम भी अन्य आधुनिक भारतीय-आर्य भाषाओं के समान ही है। लौकिक संस्कृत तथा पाली के पश्चात् मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी, पैशाची आदि विभिन्न प्राकृतों का विकास हुआ। तदनन्तर शौरसेनी अपभ्रंश से पश्चिमी हिंदी, गुजराती, राजस्थानी तथा खस अपभ्रंश से मध्यवर्ती पहाड़ी समूह की भाषाएँ अर्थात् गढ़वाली तथा कुमाऊँनी उत्पन्न हुईं। लगभग एक हजार वर्षों से भाषा के रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बनाए रखने वाली गढ़वाली तथा कुमाऊँनी का गौरवपूर्ण इतिहास रहा है। उल्लेखनीय है कि तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी से पहले सहारनपुर से लेकर हिमाचल प्रदेश तक फैले गढ़वाल राज्य में सरकारी कामकाज के लिए गढ़वाली भाषा का ही प्रयोग होता था। देवप्रयाग मंदिर में महाराज जगत पाल का वर्ष १३३५ का दानपत्र लेख, देवलगढ़ में अजयपाल का पंद्रहवीं सदी का लेख, बदरीनाथ आदि स्थानों में मिले शिलालेख और ताम्रपत्र गढ़वाली भाषा के समृद्ध और प्राचीनतम होने के प्रमाण हैं। इसी प्रकार यह भी उल्लेख मिलता है कि लगभग आठवीं से सोलहवीं शताब्दी तक चम्पावत कूर्माचल की राजधानी रहा और कूर्माचली यहां के राजकाज की भाषा थी। कुमाऊं में चंद शासन काल के समय भी कुमाऊँनी राजकाज की भाषा थी। राजाज्ञा कुमाऊँनी में ही ताम्रपत्रों पर लिखी जाती थी। गढ़वाली तथा कुमाऊँनी के ऐतिहासिक महत्व को स्पष्ट करने वाले ऐसे कई उदाहरण हैं।आजकल कुमाऊँनी तथा गढ़वाली भाषाओं का क्षेत्र विस्तार मुख्य रूप से उत्तराखण्ड राज्य व निकटवर्ती इलाकों में है। कुमाऊँनी और गढ़वाली उत्तराखण्ड राज्य की दो प्रमुख लोकभाषाएं हैं और यहां के अधिकांश लोगों द्वारा बोली भी जाती हैं। उत्तराखण्ड में रहने वाले लगभग सभी लोग इन दोनों में से किसी एक को अच्छी तरह समझते हैं। राज्य में कुमाऊँनी और गढ़वाली बोलने वालों की संख्या लगभग पच्चीस-पच्चीस लाख है, जबकि इन भाषाओं को समझने वालों की संख्या कहीं अधिक है क्योंकि कुमाऊँनी बोलने वाले गढ़वाली और गढ़वाली बोलने वाले कुमाऊँनी समझते हैं। फिर भी मोटेतौर पर गढ़वाली भाषी प्रमुख जिले हैं – टिहरी, गढ़वाल, चमोली, उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग, देहरादून तथा हरिद्वार। तथा कुमाऊँनी भाषाभाषी मुख्य जिले हैं—नैनीताल, कुमाऊँ, अल्मोड़ा, बागेश्वर, चम्पावत, रूद्रपुर(ऊधम सिंह नगर) और पिथौरागढ़। इसके अतिरिक्त भारत के अन्य भागों में भी कुमाऊँनी तथा गढ़वाली भाषाभाषी बड़ी संख्या में निवास करते हैं।वर्तमान समय में कुमाऊँनी तथा गढ़वाली को हिंदी भाषा की बोलियों का दर्जा प्राप्त है। किन्तु इनको संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित कर भाषा का आधिकारिक दर्जा दिए जाने की माँग निरन्तर तेज हो रही है। क्योंकि साहित्य की दृष्टि से कुमाऊँनी तथा गढ़वाली भाषाएँ अत्यन्त समृद्ध हैं। इन दोनों भाषाओं में लगभग सभी विधाओं में साहित्य उपलब्ध है। इन भाषाओं में विशेष रूप से लोकसाहित्य का असीमित भण्डार है। कुमाऊनी और गढ़वाली के शब्दकोशों की भी कमी नहीं है। गढ़वाली तथा कुमाऊँनी समृद्ध साहित्य तथा प्रचुर शब्द सम्पदा से भरपूर हैं इन दोनों भाषाओं में न तो लेखकों की कमी है न ही पाठकों की। इसी आधार पर साहित्य अकादमी ने कुमाऊँनी और गढ़वाली को मान्यता भी दी है। १२,१३ और १४ नवम्बर २०१० को अल्मोड़ा में आयोजित त्रिदिवसीय कुमाऊनी भाषा सम्मेलन तथा १६,१७ और १८ अप्रैल २०११ को देहरादून में आयोजित प्रथम उत्तराखण्डी लोकभाषा सम्मेलन में कुमाऊँनी और गढ़वाली भाषा के इतिहास, विकास, स्वरूप, लोक सहित्य, व्याकरण, मानकीकरण आदि विषयों पर विस्तृत वार्ता हुई। यह सभी बातें कुमाऊँनी और गढ़वाली भाषाभाषी समाज के अपनी अपनी भाषा के प्रति लगाव तथा इन भाषाओं के विकास हेतु लिए गए दृढ़ संकल्प को दर्शाती हैं। समृद्ध साहित्य से युक्त तथा लोक परम्पराओं से अनुप्राणित इन जनभाषाओं का विकास फिर भी विभिन्न कारणों से बाधित हो रहा है। इन उल्लेखनीय कई कारणों में से प्रमुख हैं सरकार व प्रशासन की विपरीत भाषानीति तथा हिंदी, अंग्रेज़ी तथा संस्कृत जैसी विकसित भाषाओं का बढ़ता समाजभाषिक वर्चस्व जिसकी वजह से परिस्थितियाँ और भी अधिक विषम तथा विकट हो गई हैं।पिछले कुछ समय से उत्तराखण्ड राज्य में भाषाओं की स्थिति को लेकर काफी हलचल है। हिंदी उत्तराखण्ड की प्रथम राजभाषा है तथा संस्कृत द्वितीय राजभाषा है। भारतवर्ष में पहली बार किसी राज्य ने संस्कृत को अपनी द्वितीय राजभाषा का स्थान दिया है। उत्तराखण्ड सरकार द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में संस्कृत भाषा के प्रयोग को पुनः प्रतिष्ठित करने के प्रयास किए जा रहे हैं। देवभूमि में देववाणी संस्कृत का यह महिमा-मण्डन यह सम्मान प्रसन्नता का विषय है। किन्तु इससे राज्य की प्रमुख जनभाषाओं कुमाऊँनी और गढ़वाली की उपेक्षा हुई है तथा कुमाऊँनी और गढ़वाली समाज की अस्मिता को भी ठेस पहुँची है। कुमाऊँनी और गढ़वाली भाषाओं से उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक पहचान जुड़ी है।हमारे देश की समाजभाषिक स्थितियों को ध्यान में रखकर ही केन्द्र ने देश में “त्रिभाषा फॉर्मूला” लागू किया है। अर्थात्—मातृभाषा (स्थानीय भाषा), हिंदी और अंग्रेज़ी। कई राज्यों में प्रांतीय भाषाओं में राजकाज चल रहा है। इन राज्यों का केन्द्र तथा अन्य राज्यों से हिंदी या अंग्रेज़ी में सम्पर्क होता है। एक ओर जहाँ देश के छोटे से राज्य गोवा ने इसी वर्ष से प्राथमिक कक्षाओं में स्थानीय भाषा को पढ़ाए जाने का आदेश जारी किया है, तथा देश के अन्य सभी पहाड़ी राज्यों में स्थानीय भाषाएं सरकारी संरक्षण में फल-फूल रही हैं। वहीं कुमाऊँनी और गढ़वाली को अपने ही राज्य में उपेक्षा की मार सहनी पड़ रही है। वस्तुतः यह अत्यंत दुखद स्थिति है कि राजनैतिक स्तर पर जिन कुमाऊँनी और गढ़वाली को आठवीं अनुसूची में सम्मिलित कराने के लिए निरन्तर प्रयास किए जा रहे हैं उन भाषाओं को अपने ही राज्य में द्वितीय राजभाषा का स्थान भी नहीं दिया गया। राज्य सरकार के इस निर्णय से लाखों कुमाऊनी और गढ़वाली बोलने-समझने, लिखने-पढऩे वाले लोगों के हितों की उपेक्षा हो रही है। यदि राज्य सरकार कुमाऊँनी-गढ़वाली को राज्य में द्वितीय दर्जा नहीं देगी तो इनका पठन-पाठन प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर पर स्कूलों में नहीं हो सकेगा, और अगर ये भाषाएँ पढ़ायी नहीं जाएँगी तो धीरे-धीरे उनकी व्यावहारिकता कम हो जाएगी। राज्य के लोगों को अब कभी-कभी यह अनुभव होने लगा है कि स्थानीय बाजार या सार्वजनिक उपक्रमों में, सामाजिक गतिविधियों जैसेकि सभा या अन्य कार्यक्रमों में स्थानीय भाषा की व्यावहारिकता घट रही है। साक्षरता दर बढऩे के साथ बच्चे उस भाषा में अधिक बोलने लगे हैं जिसमें वे पढ़ायी करते हैं अर्थात् हिन्दी व अंग्रेज़ी की व्यावहारिकता बढ़ रही है। हिंदी, अंग्रेज़ी या संस्कृत का कोई विरोधी नहीं है। यह सच है कि लोकभाषाओं का अपना क्षेत्र होता है और लोकभाषाएं राजभाषाओं का स्थान नहीं ले सकतीं, लेकिन कम से कम राज्य बनने के बाद वे अपने क्षेत्र में गौरवान्वित तो हों। नाटक, संगीत, सिनेमा, साहित्य, पत्रकारिता तथा विद्यालयों में मुख्य भाषा में पाठ के रूप में शामिल हो कर लोगों की जुबान पर बनी रहें और फले-फूलें।कुमाऊँनी और गढ़वाली के चहुँमुखी विकास को सुनिश्चित करने के लिए राज्य सरकार तथा राज्य के लोगों को समवेत प्रयास करने होगें। सर्वप्रथम राज्य सरकार को शीघ्रातीशीघ्र कुमाऊँनी और गढ़वाली को आधिकारिक दर्जा देना चाहिए और उनके संवर्धन हेतु समुचित प्रबन्ध करना चाहिए। क्योंकि राज्य की मातृभाषा को पल्लवित- पुष्पित करना भी उस राज्य की सरकार का संवैधानिक कर्तव्य है। साथ ही साथ राज्य के लोगों का भी यह कर्तव्य है कि वे कुमाऊँनी और गढ़वाली भाषाओं के विकास हेतु हर संभव प्रयास करें। घरों-बाजारों में अर्थात् सामान्य जन-जीवन में इन भाषाओं के निरंतर अधिकतम प्रयोग को सुनिश्चित बनाएँ। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं तथा पुस्तकों यहाँ तक की विवाह-कार्ड और निमंत्रण-सूचना पत्र आदि भी कुमाऊँनी और गढ़वाली में ही छापें, इत्यादि।भाषा तो जुबान से जिन्दा रहती है, लिखित विधाएँ तो उसे संजोए रखती हैं अतः किसी भी भाषा-समाज को अपनी भाषा बोलने में पीछे नहीं हटना चाहिए और उसके विकास, सृजन और संवर्धन हेतु निरंतर प्रयत्नशील रहना चाहिए। उत्तराखंड की गढ़वाली, कुमाऊंनी व जौनपुरी-जौनसारी बोलियों को भाषा का दर्जा दिलाने को सरकार पुरजोर प्रयास करेगी। विधानसभा के सत्र के पहले दिन प्रश्नकाल में भाषा मंत्री ने कहा कि राज्य की इन तीनों बोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराने के मद्देनजर सदन में संकल्प लाने पर सरकार विचार करेगी। उन्होंने विधायक के मूल प्रश्न और फिर विधायक के अनुपूरक प्रश्नों के जवाब में सदन में यह बात कही। इन बोलियों में लिखी जाने वाली उत्कृष्ट पुस्तकों के प्रकाशन को अनुदान दिया जाना प्रस्तावित है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में यह प्रविधान है कि स्थानीय भाषाओं को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाए। इसी कड़ी में यह कदम उठाए जाएगा। गौरतलब है कि, कुमाऊंनी और गढ़वाली उत्तराखंड में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है। भले दोनों को लिपिबद्ध नहीं किया जा सका है, लेकिन कुमाऊंनी व गढ़वाली में कई पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन होता रहा है। अब मोबाइल में भी इन भाषाओं को टाइप करना गूगल ने सहज बना दिया है। गूगल ने अपने इंडिक कीबोर्ड को अपडेट कर दिया है। इसकी वजह से मोबाइल में इंग्लिश रोमन वर्ड टाइप करते हुए कुमाऊंनी व गढ़वाली शब्दों को आसानी से लिखा जा सकता है। मातृभाषा जिसे दुधबोली भी कहते हैं अर्थात् वह भाषा जो हम अपनी मां के मुख से सुनते हैं, फिर बोलते हैं।कुमाउंनी भाषा में कुछ सुंदर शब्द जैसे हम ओह मेरे भगवान नहीं कहते हैं! हम कहते हैं ओह इजा! (ओह मेरे प्यारे / मां), हम शब्द “साथ” का उपयोग नहीं करते – हम “दगढ़ी” का उपयोग करते हैं हमारे पास “दादा-दादी” नहीं है, हमारे पास “अम्मा – बुबू” है। हम “घबराते” नहीं, हम “गजबाजा” जाते है। हम “चावल” नहीं खाते हैं, हम “भात” खाते हैं माथू माथू – धीरे धीरे। ऐसे कई शब्द है जो पहाड़ी भाषा की मिठास को बताने के लिए काफ़ी है।अपने राज्य की भाषा को बचाने के लिए देश के छोटे से राज्य गोवा ने इसी वर्ष से प्राथमिक कक्षाओं में इसे पढ़ाए जाने का आदेश जारी किया है। देश के सभी पहाड़ी राज्यों में स्थानीय भाषाएं सरकारी संरक्षण में फल-फूल रही हैं। भाषा पढ़ायी नहीं जाएगी तो धीरे-धीरे उसकी व्यावहारिकता कम हो जाएगी। उत्तराखंड की संस्कृति और साहित्य के प्रोत्साहन के लिए लोकसेवा आयोग की परीक्षाओं में भी कुमाऊंनी और गढ़वाली भाषा, संस्कृति से संबंधित प्रश्न पूछे जाने चाहिए। पूर्व मुख्यमंत्री ने उत्तराखण्ड की लोक भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए सोशल मीडिया में गढ़वाली, कुमाउंनी और उत्तराखण्ड की अन्य बोली भाषा में संवाद करना शुरू किया है।गूगल इंडिया ने भी ये बताया है कि क्षेत्रीय भाषाओं में अधिक डिजिटल सामग्री का निर्माण भारत को एक अरब डॉलर की डिजिटल अर्थव्यवस्था बनने में बड़ा योगदान दे सकता है। एक स्टडी के अनुसार भारत में 234 मिलियन स्थानीय भाषा उपयोगकर्ता हैं। 2021 तक यह संख्या 536 मिलियन तक पहुंचने की उम्मीद है। कर्नाटक राज्य सरकार ने सभी मेट्रो स्टेशन से हिंदी साइन बोर्ड हटाए और साथ ही घोषणाओं से भी हिंदी को हटा दिया ताकि उनकी कन्नड़ भाषा को एक नयी पहचान मिल सके। यह रोजगार के लिए भी महत्वपूर्ण है। सुरक्षा का मुद्दा ले लो। माओवादी प्रभावित छत्तीसगढ़ में, स्थानीय भाषा बोलने वाले आदिवासियों और हिंदी भाषी बलों के बीच गलतफहमी जीवन की हानि का कारण बनती है।हमें एक नहीं, अनेक भाषाएं सीखनी चाहिए, परन्तु सबसे अच्छी बात तो यह होगी कि हम अपनी मां को न भूलें, अपनी क्षेत्रीय भाषा को न भूलें। चाहे वो हरियाणवी हो, बंगाली हो या कोई ओर भाषा हो ।
लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं।