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उत्तराखंड के पहाड़ों की भूटिया संस्कृति एक झलक – डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

भारतीय हिमालय में, समुद्र तल से 2,200 मीटर ऊपर, एक छोटे से संग्रहालय में, एक समुदाय के दलावों की झलक, कांच से ढके खांचों में बंद हैं। इस संग्रहालय में भूटिया समुदाय की पिछली पीढ़ियों के बारे में जानकारी देने वाली वस्तुएं संरक्षित हैं। इनमें कुछ कपड़े, आभूषण, घरेलू सामान, धुंधली तस्वीरें व नक्शे इत्यादि हैं।एक समय, भारत-तिब्बत व्यापार मार्ग के संरक्षक, भूटिया, कुमाऊं में काफी ऊंचाइयों पर रहने वाले बेहद समृद्ध समुदायों में से एक हुआ करते थे। यह क्षेत्र अब भारतीय राज्य उत्तराखंड है, जो नेपाल से जुड़ा हुआ है। पिछले 61 वर्षों में, इस समुदाय के जीवन का तरीका नाटकीय रूप से बदल गया है।1962 के चीन-भारत युद्ध के बाद व्यापार मार्ग बंद हो गए और आजीविका के अवसरों की तलाश में, उत्तराखंड का भूटिया समुदाय, ऊंचे पहाड़ों की जोहार घाटी से हिमालय की तलहटी वाले शहरों में आने लगे।भूटिया, जिस तलहटी शहर में गए उनमें से एक मुनस्यारी है। यहीं पर साल 2000 में स्थानीय इतिहासकार शेर सिंह पांगटे ने ट्राइबल हेरिटेज म्यूजियम की स्थापना की थी। इसके अंदर, ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरों की पंक्तियों को 1980 के दशक के रंगीन प्रिंटों के साथ प्रदर्शित किया गया है। ये तस्वीरें जोहार घाटी के कुछ हिस्सों के ग्रामीण जीवन को दर्शाती हैं जिनका अस्तित्व अब खत्म हो चुका है। इन तस्वीरों में बहुत पहले बीत चुके समय की स्मृति और उदासी की झलक हैं। जोहार घाटी में अब कोई भूटिया परिवार स्थायी रूप से नहीं रहता है; साल भर केवल सेना और सड़क कर्मचारी ही रहते हैं। लगभग 20 परिवार, अपना साल जोहार घाटी और मुनस्यारी के बीच बांटते रहते हैं।सरल भाषा में इसे माइग्रेशन यानी प्रवास के रूप में जाना जाता है। कई लोग हर साल मई की शुरुआत में अपनी मूल जमीन पर आते हैं और सर्दियों में वापस लौट जाते हैं। यह एक तरह से अपनी खेती की भूमि पर कब्जा बनाए रखने का तरीका है। लेकिन धीरे-धीरे पैतृक घरों और अपनेपन की भावना में कमी आना स्वाभाविक है।यह लगभग 50 किलोमीटर की यात्रा है, जो 1,220 मीटर की ऊंचाई पर मुनस्यारी और मिलम के बीच है, जो जोहार घाटी का सबसे ऊंचा गांव है जो अभी भी बसा हुआ है।पुरुष और महिलाएं, यहां तक कि बुजुर्ग, जब तक वे सक्षम हैं, इस जोखिम भरे इलाके में कठिन यात्रा जारी रखते हैं। इस यात्रा में चट्टानों के किनारे संकरे रास्तों में चलना पड़ता है। बारिश और चट्टानों के गिरने का खतरे की बीच लोग यात्रा करते हैं। धाराओं के पार जाना होता है, जो पुराने रास्तों को बहा ले जाती है और लगभग हर मौसम में नए मार्ग बनाती है। विस्मय और बेजोड़ सुंदरता से भरी विशाल घाटियों से गुजरना होता है।हालांकि, उच्च हिमालय में बदलती जलवायु ने इस यात्रा को ज्यादा कठिन और अधिक अप्रत्याशित बना दिया है। बारिश भी अधिक अनिश्चित हो गई है।व्यापार और कृषि से होने वाली अपनी आय को खो चुकी पुष्पा लासपाल, मापांग गांव में अपनी जीविका के लिए यात्रियों और सड़क कर्मियों को भोजन बेचती हैं। वह कहती हैं, “पहले, हम प्रवास के लिए योजना बना सकते थे और बेहतर तैयारी कर सकते थे। अब जब हम बारिश की सबसे कम उम्मीद करते हैं, उस समय ही बारिश हो जाती है। इससे राशन और अन्य जरूरी चीजों के साथ यात्रा करना बहुत कठिन हो जाता है।”उदाहरण के लिए इस साल, अप्रत्याशित तरीके से बारिश समय से पहले शुरू हो गई, जिससे लोगों की यात्रा देर में- मई के आखिर से जून के शुरुआत में- शुरू हुई। जलवायु परिवर्तन के ऐसे प्रभाव, भूटिया समुदाय की परेशानियों को बढ़ाते हैं जिससे जोहार की पारंपरिक संस्कृति का नुकसान होता है।इसका सबसे प्रमुख उदाहरण मिलम ग्लेशियर-घाटी के निवासियों के लिए पानी का मुख्य स्रोत है। दशकों से, ग्लेशियर के कठिन मार्ग पर विजय प्राप्त करने के इच्छुक ट्रेकर्स के लिए, यह कर पाना सबसे बड़ा पुरस्कार साबित होता रहा है। ट्रेकिंग मार्गों की पुरानी तस्वीरों में काफी नदियां और जल निकाय नजर आते हैं। एक बुजुर्ग निवासी द् थर्ड पोल को बताते हैं कि पहले ग्लेशियर मिलम गांव तक पहुंचते थे।अब, ग्लेशियर का अगला हिस्सा गांव के ऊपर की ओर किलोमीटर10 तक घट गया है। आज जैसे-जैसे गांव से पानी की आपूर्ति दूर होती जा रही है, मिलम में खेती और दैनिक जीवन कठिन होता जा रहा है। एक दशक से अधिक समय से, मिलम से मुनस्यारी को जोड़ने वाली सड़क बनाने का काम चल रहा है। यह काम 2027 तक पूरा होने वाला है। तब तक, इस बात की आशंका काफी ज्यादा है कि भूटिया संस्कृति, ऊंचाई तक पहुंचने की जगह और अधिक फीकी हो जाए।खान-पान से लेकर कपड़ों तक और आजीविका से लेकर दैनिक दिनचर्या तक के शौका समुदाय के जीवन में बदलावों की तरफ किसी का भी ध्यान नहीं गया है। कुमाऊं में भूटिया को स्थानीय रूप से शौका समुदाय के रूप में जाना जाता है।बटर टी, पहले साल भर प्रयोग में लाया जाने वाला जोहार पेय पदार्थ रहा है। अपनी गर्म तासीर की वजह से मूल रूप से अब यह सर्दियों में पिया जाने वाला पेय पदार्थ है। पहली बार आजमाने की इच्छा रखने वाले आगंतुकों के लिए भी इसे एक पेय के रूप में परोसा जाता है।बटर टी यानी मक्खन वाली चाय बनाने के लिए परंपरागत दुमका की जगह अब आधुनिक बटर चर्नर ने ले ली है। दुमका, लकड़ी का एक बड़ा बर्तन होता है जो अब ज्यादातर रसोईघरों में किनारे पड़ा रहता है। बटर चर्नर, उपयोग और कम मात्रा में चाय बनाने के लिए अधिक सुविधाजनक है। 1962 से पहले, कुमाऊं में भूटिया, याक के ऊन और पश्मीना से बुनाई करते थे, तिब्बत से बकरियों के लिए अन्य सामानों का व्यापार करते थे। लेकिन, आंवल कोट की तरह, मोटे कोमौल और ऑड्रे (ऊन से बने पारंपरिक लंबे कपड़े) फैशन से बाहर हो गए हैं और उनकी जगह सूती स्वेटशर्ट्स ने ले ली है। अब, इस क्षेत्र में बनने वाले अधिकांश कपड़े, कुर्ते (लंबी सूती कमीज) और अंगोरा ऊनी टोपी हैं जो पर्यटकों को बेचे जाते हैं। आजीविका के अवसरों की खोज के लिहाज से भूटिया की अगली पीढ़ी में और बदलाव आए हैं। साल की शुरुआत में बेहद ऊंचाई वाले स्थानों से बर्फ हट गई, इसलिए युवा अब पारंपरिक चिकित्सा में इस्तेमाल किए जाने वाले बेशकीमती यारशागुंबा को इकट्ठा करने के लिए एक नए, जोखिम भरे रास्तों पर चलने लगे हैं। यह हिमालय की पहाडियों में पाया जाने वाला भूरे रंग का फफूंद है। उत्तराखंड में इसे कीड़ा जड़ी भी कहा जाता है।बाद की बर्फबारी और पहले बर्फ पिघलने के साथ लंबे समय तक गर्म मौसम होने के कारण इस फफूंद को खोजने की संभावनाएं ज्यादा बढ़ गई हैं, जिसके बर्फ के नीचे दबे होने पर खोजना तकरीबन असंभव है। लेकिन ऐसी स्थितियों में एक गलत कदम का सीधा मतलब ऐसे हादसों का होना है जिनमें जान भी जा सकती है। रास्ते बेहद संकरे और दरारों से युक्त हैं; सांस लेने की समस्या आम है; और क्षेत्र को लेकर समूहों के बीच संघर्ष अनसुना नहीं है।इस व्यापार में शामिल और स्थानीय लोगों ने द् थर्ड पोल को बताया कि वसंत ऋतु में बर्फ के पिघलने का इंतजार बहुत साल पहले हुआ करता था। अब, बस कुछ और गर्म सप्ताह का मतलब है कि बहुत अधिक कीड़ा जड़ी को इकट्ठा किया जा सकता है। हालांकि, इसको खोजने के लिए लंबे समय तक रहने वाले इस तरह के मौसम की वजह से पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में नकारात्मक प्रभाव बढ़ रहा है क्योंकि इस क्षेत्र के वे रास्ते खुल जाते हैं जो पूरी तरह से बर्फ से ढके रहते थे। आधुनिक और पर्यावरण के प्रति जागरूक भविष्य के लिए अपनी सोच को आवाज देते हैं, जिसमें समावेशी पर्यटन को बढ़ावा देने की बात है। इनमें उचित अपशिष्ट प्रबंधन, संवेदनशील विकास, वन्यजीव पर्यटन और होमस्टेस इत्यादि शामिल हैं। आजीविका के ऐसे अवसरों के माध्यम से ही वे समुदाय के लिए एक नई राह बनाना चाहते हैं।तेजी से बदलती दुनिया के बीच यह उम्मीद बंधी हुई है कि नए और पुराने के बीच कहीं मध्य स्थान भी मिल जाएगा और बेहतरी के लिहाज से कुमाऊं के भूटियाओं की विरासत खत्म नहीं होगी। पारंपरिक विरासत के संरक्षण के लिए इनका डॉक्युमेंटेशन भी किया जाए, जिससे  लोकविधाओं को महफूज रखा जा सके और यह ज्ञान भावी पीढ़ी तक पहुंच सके।

लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं।

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