देहरादून

जलवायु परिवर्तन का बुरांश के फूलों पर बुरा प्रभाव, अस्तित्व पर मंडरा रहा खतरा डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

 

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

 

वसंत में खिलने वाला बुरांश उत्तराखंड के जनमानस में गहराई से समाया हुआ है। पांच हजार फीट की ऊंचाई से जीवन शुरू करने वाले बुरांश की उत्तराखंड में पांच प्रजातियां पाई जाती हैं। अधिकतर लोग जानते हैं कि बुरांश सिर्फ लाल रंग का ही होता है। लेकिन सच यह है कि बुरांश का फूल सफेद, गुलाबी, पीला और नीला भी होता है। सदियों से लोकगीतों में अपना स्थान बना चुका बुरांश वर्तमान में उत्तराखंड का राज्य वृक्ष भी है। उत्तराखंड के साथ ही पड़ोसी राज्य हिमाचल, सुदूर पूर्वोत्तर के सिक्किम और पड़ोसी देश नेपाल में भी बुरांश पाया जाता है। सिक्किम में बुरांश की सर्वाधिक 45 से 50 प्रजातियां पाई जाती हैं। बुरांश का वैज्ञानिक नाम रोडोडेंड्रोन है। उत्तराखंड में यह मार्च में खिलना शुरू हो जाता था । कुदरत हमें कदम-कदम पर चौंकाती है। इस बार अल्मोड़ा के रानीखेत में भी कुदरत का अनोखा करिश्मा देखने को मिला है। यहां दुर्लभ सफेद बुरांश के फूल खिले हैं। बुरांश उत्तराखंड का राज्य पुष्प है। पहाड़ों में लाल बुरांश बहुतायत में खिलते हैं, लेकिन सफेद बुरांश के दर्शन बेहद दुर्लभ हैं। क्योंकि ये आमतौर पर उच्च हिमालयी क्षेत्रों में ही खिलता है।इस बार रानीखेत के देवीढूंगा मिश्रित वनक्षेत्र में सफेद बुरांश की छटा बिखर रही है। खास बात ये है कि इस अद्भुत प्रजाति के इकलौते पेड़ पर डेढ़ दशक बाद सफेद फूल आभा बिखेर रहे हैं। इस तरह 15 साल के इंतजार के बाद कहीं जाकर यहां सफेद बुरांश देखने को मिले हैं। कुछ वनस्पति विशेषज्ञ इसे अस्थायी बदलाव तो कुछ उच्च हिमालय जैसी ठंड व नमी को अहम वजह मान रहे हैं। राज्य पुष्प बुरांश की सफेद दुर्लभ प्रजाति 2900 से 3500 मीटर की ऊंचाई पर ही पाई जाती है। कुमाऊं की बात करें तो ये पिथौरागढ़ के खलियाटॉप क्षेत्र में खूब खिलते हैं, लेकिन समुद्रतल से महज 1860 मीटर की ऊंचाई पर अगर सुर्ख लाल बुरांश वाले जंगल के बीच सफेद फूल वाला पेड़ दिखे तो हैरानी होना स्वाभाविक है।इस दुर्लभ पेड़ की देखरेख होमफार्म निवासी प्रकृति प्रेमी कर रहे हैं। वह बताते हैं कि पेड़ को बचाने के लिए इसे मां दुर्गा को समर्पित कर दिया गया है। सफेद बुरांश की यह प्रजाति रोडोड्रेंड्रॉन कैंपेनुलेटम है। 15 साल बाद इस पर एक बार फिर सफेद फूल खिले हैं। बता दें कि तीन साल पहले जोशीमठ के सेलंग गांव स्थित जंगल में भी सफेद बुरांश खिला था। तब विशेषज्ञों ने तर्क दिया था कि वनस्पति प्रजातियों में पहली व दूसरी पीढ़ी में मॉफरेलॉजिकल बदलाव आ जाता है। अनुवांशिक गुणों में परिवर्तन भी इसका बड़ा कारण हो सकता है।बहरहाल शिवालिक रेंज में एल्पाइन जोन की इस अनूठी प्रजाति ने नए सिरे से शोध के द्वार खोले हैं। वन अनुसंधान केंद्र कालिका ने भी अध्ययन कर इसके संरक्षण की कवायद तेज कर दी है। उत्तराखंड में बुरांश समय से पूर्व खिलने लगे हैं। यह इस बात का संकेत करता है कि पर्यावरण बदल रहा है। मार्च का टेंपरेचर इन्हें फरवरी में ही मिल रहा है। पर्यावरण परिवर्तन को लेकर सजग होने की जरूरत हैं। उपयोग की बात करें, तो बुरांश का फूल बहुत ही उपयोगी है। बुरांश की पत्तियों में अच्छी पौष्टिकता के कारण उच्च हिमालयी क्षेत्रों में पशुचारे हेतु प्रमुखता से उपयोग में लाया जाता है। इसकी लकड़ी मुलायम होती है जिस वजह से इससे लकड़ी के बर्तन, कृषि उपकरणों में हैंडल आदि बनाने हेतु प्रयोग में लाया जाता रहा है।दूरस्थ हिमालयी क्षेत्रों में बुरांस को प्राचीन काल से ही विभिन्न घरेलू उपचार के लिये प्रयोग किया जाता है जैसे कि तेज बुखार, गठिया, फेफड़े सम्बन्धी रोगों में, इन्फलामेसन, उच्च रक्तचाप तथा पाचन सम्बन्धी रोगों में।अभी तक हुये शोध कार्यों के द्वारा प्रमुख रासायनिक अवयवों की पहचान की गई जैसे कि फूल से क्यारेसीटीन, रूटीन, काउमेरिक एसिड, पत्तियों से अरबुटीन, हाइपरोसाइड, एमाइरीन, इपिफ्रिडिलेनोल तथा छाल से टेराक्सेरोल, बेटुलिनिक एसिड, यूरेसोलिक एसिड एसिटेट आदि। वर्ष 2011 में हुये एक शोध कार्य के अनुसार बुरांश के फूल में महत्वपूर्ण रासायनिक अवयव स्टेरोइड्स, सेपोनिक्स तथा फलेवोनोइड्स पाये गये। बुरांश औषधीय गुणों के साथ-साथ न्यूट्रिशनल भी है, इसके जूस में प्रोटीन 1.68 प्रतिशत, कार्बोहाइड्रेड 12.20 प्रतिशत, फाइवर 2.90 प्रतिशत, मैग्नीज 50.2 पी0पी0एम0, कैल्शियम 405 पी0पी0एम0, जिंक 32 पी0पी0एम0, कॉपर 26 पी0पी0एम0, सोडियम 385 पी0पी0एम0 तक पाये जाते हैं।बुरांस में विटामिन ए, बी-1, बी-2, सी, ई और के पाई जाती हैं जो की वजन बढने नहीं देते और कोलेस्ट्रॉल कंट्रोल रखता है।Quercetin और Rutin नामक पिंगमेंट पाए जाने के कारण बुरांस अचानक से होने वाले हार्ट अटैक के खतरे को कम कर देता है। इसका शर्बत दिमाग को ठंडक देता है और एक अच्छा एंटीऑक्सीडेंट होने के कारण त्वचा रोगों से बचाता है। बराह के फूलों की चटनी बहुत ही स्वादिष्ट होती है जो कि लू और नकसीर से बचने का अचूक नुस्खा है।इसकी पंखुड़ियां लोग सुखाकर रख लेते हैं और सालभर इसका लुत्फ़ उठाते हैं।बुरांस के विभिन्न औषधीय गुणो के कारण आयुर्वेदिक पद्यति की एक प्रसिद्ध दवा ‘अशोकारिष्ट’ में भी रोडोडेंड्रोन आरबोरियम प्रयोग किया जाता है। अच्छी एंटीऑक्सीडेंट एक्टिविटी के साथ-साथ बुरांश में अच्छी एंटी डाइबिटिक, एंटी डायरिल तथा हिपेटोप्रोटिक्टिव एक्टिविटी होती है। बुरांश को हीमोग्लोबिन बढ़ाने, भूख बढ़ाने, आयरन की कमी दूर करने तथा हृदय रोगों में भी प्रयोग किया जाता है।इन्हीं सभी औषधीय गुणों से परिपूर्ण होने के कारण बुरांश से निर्मित बहुत उत्पाद मार्केट में उपलब्ध हैं।बुरांस का उपयोग जूस के अलावा अचार, जैम, जैली, चटनी तथा आयुर्वेदिक एवं होम्योपैथिक दवाइयों में भी किया जाता है। अंतर्राष्ट्रीय तथा राष्ट्रीय स्तर पर बुरांस के जूस की अच्छी मांग है जो कि अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में 30 डालर प्रति लीटर तक की कीमत में खरीदा जाता है। उत्तराखण्ड का बुरांस वैसे भी अपनी खुबसूरती, स्वाद तथा कई औषधीय गुणों के लिये जाना जाता है जिसकी वजह से बाजार में बुरांस से निर्मित कई खाद्य पदार्थ जैसे जूस, चटनी तथा आयुर्वेदिक औषधियां की मांग है। जूस के अलावा यह औषधि के रूप में भी प्रयोग होता है। इसमें शहद की मात्रा सर्वाधिक होती है। बुरांश को लेकर विशेष कार्य योजना तैयार कर इसको आर्थिकी से जोड़ा जा सकता है। इसके पीछे कई जानकार बताते हैं कि पिछले कुछ समय में भौगोलिक दृष्टि और जलवायु परिवर्तन ने सब कुछ बदल कर रख दिया है और आने वाले समय में इसके परिणाम भी धीरे-धीरे देखने को मिलेंगे। बुरांश के अलावा उच्च हिमालई क्षेत्रों में होने वाले काफल, हिसर, घिंगारू, चैरी और अन्य वनस्पतियां के फल भी समय से पहले ही पकने शुरू हो चुके हैं जो कि तापमान में बदलाव के साथ-साथ आने वाले समय पर खतरे की घंटी का एहसास भी दिला रहे हैं। अगर समय रहते इन गतिविधियों पर सटीक शोध नहीं किया गया या जलवायु परिवर्तन को कम करने के उपाय नहीं खोजे गए तो आने वाली पीढ़ी को इसके परिणाम भी भुगतने पड़ सकते हैं।

 

 

 

1० अगस्त १९६२ को नैनीताल में श्री हरीश चन्द्र पाण्डे और श्रीमती रेवा पाण्डे जी के घर जन्मे श्री निर्मल पाण्डे ने भारतीय सिनेमा जगत में अपनी दमदार उपस्थिति से एक अच्छा खासा मुकाम हासिल किया। इनका पैतृक गांव पान बड़ैती, द्वाराहाट, जिला अल्मोड़ा है। इन्होंने प्राथमिक से इण्टर तक की शिक्षा नैनीताल से ग्रहण की, इसके बाद डी०एस०बी० कालेज नैनीताल से से बी०काम० और एम०ए० की शिक्षा ग्रहण की। सी०आर०एस०टी० में पढ़ाई के दौरान ही वे नाटकों और रामलीलाओं में अभिनय करने लगे। अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने भीमताल के ब्लाक आफिस में क्लर्क की नौकरी भी की। लेकिन शिक्षा काल में ही रंगमंच की ओर रुझान होने के कारण सरकारी नौकरी उन्हें रास नहीं आई। सो इस्तीफा देकर थियेटर की सेवा करने वे फिर से नैनीताल पहुंच गये। नैनीताल की प्रसिद्ध नाट्य संस्था “युगमंच” से वे १९८९ में जुड़े और इस दौरान उन्होंने कई नाटकों का मंचन किया और कई नाटकों में अपनी दमदार अभिनय कला से लोगों के मन में अपनी अमिट छाप छोड़ी। युगमंच में वह एक अच्छे अभिनेता के साथ-साथ एक अच्छे निर्देशक के रुप में भी जाने जाते थे। जिनमें जिन लाहौर नी देख्या, हैमलेट, अजुवा बफौल, अंधायुग, अनारो, सराय की मालकिन, मेन विदाउट शईडोज, एल्डरसन, कुछ तो करो  आदि नाटक शामिल हैं। उन्होंने हिंदी सिनेमा के साथ ही टीवी इंडस्ट्री में भी काम किया था. हिंदी सिनेमा में ऐसे बहुत कम एक्टर्स हैं जिन्हें फ्रांस का बेस्ट एक्टर वैलेंटी अवॉर्ड दिया गया है. निर्मल पांडे का नाम भी इस सूची में शामिल है. जब निर्मल अल्मोड़ा में पढ़ाई कर रहे थे तब ही उन्हें फ़िल्मी दुनिया ने अपनी ओर आकर्षित किया और अभिनेता भी फिल्मों में करियर बनाने के सपने संजोने लगे थे. निर्मल पांडे ने अदाकारी के गुर नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से सीखे थे. वे दिल्ली आ गए और नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में दाखिला ले लिया. यहां अपने साथियों के बीच वे एक चर्चित थिएटर आर्टिस्ट के रूप में पहचान रखने लगे. अमोल पालेकर द्वारा निर्देशित दायरा हिन्दी सिनेमा की सबसे जबरदस्त फिल्मों में से एक मानी जाती है. इस फिल्म में निर्मल एक किन्नर की भूमिका में देखें गए थे. उनका काम इतना बेहतरीन था कि साल 1997 में निर्मल को फ्रांस में बेस्ट एक्टर वैलेंटी अवॉर्ड दिया गया. उनकी बेहतरीन अदाकारी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे दुनिया के पहले ऐसे अभिनेता थे जिन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के पुरस्कार से नवाजा गया था.एनएसडी में दाखिला लेने के बाद और बॉलीवुड में नाम कमाने से पहले निर्मल पांडे को लंजन जाने का मौक़ा मिला था. लंदन में भी उनकी अदाकारी का जादू चला और उन्होंने यहां तारा थिएटर ग्रुप के अंतर्गत चर्चित प्ले हीर रांझा और एंटीगोन में काम किया. निर्मल ने इनके अलावा लंदन में रीब 125 प्ले में काम किया और उनकी अभिनय को खूब सराहा गया.‘वन 2 का 4’ और ‘शिकारी’ जैसी फिल्मों में भी उनके काम को बहुत पसंद किया गया था१९८६ में निर्मल पाण्डे जी ने मुंबई का रुख किया। १९९४ में प्रसिद्ध निर्देशक शेखर कपूर ने उन्हें अपनी फिल्म बैंडिट क्वीन में विक्रम मल्लाह का चुनौतीपूर्ण रोल दिया, जिसमें वे शत-प्रतिशत खरे उतरे। आज भी निर्मल दा का जिक्र आते ही बन्दूक पकड़े विक्रम मल्लाह की ही छवि पहले सामने आती है। इस फिल्म के प्रदर्शित होने के बाद निर्मल दा को अनेक फिल्में मिली, जिनमें औजार, इस रात की सुबह नहीं, दायरा,ट्रेन टू पाकिस्तान, प्यार किया तो डरना क्या, जहां तुम ले चलो, गाड़मदर, हम तुम पे मरते हैं, हद कर दी आपने, शिकारी, वे टू का फोर, दीवानगी, आंच, हातिम, पाथ, लैला, प्रिंसेज डाली और उसका मैजिक बाक्स (टी०वी० सीरियल, स्टार प्लस), आजा नचले, राजकुमार आर्यन, देशद्रोही और लाहौर शामिल है। मार्च, २०१० में प्रदर्शित होने वाली लाहौर फिल्म उनकी आखिरी फिल्म है।निर्मल दा ने हमेशा चुनौतीपूर्ण किरदारों को ही अपने कैरियर में तरजीह दी, अमोल पालेकर निर्देशित फिल्म दायरा में जब उन्हें एक अभिनेत्री का किरदार निभाने को कहा गया तो उन्होंने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया और १९९७ में उसके लिये उन्हें फ्रांस के प्रसिद्ध वालेंतिये पुरस्कार से नवाजा गया। गौरतलब है कि यह पुरस्कार उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिये दिया गया था और यह पुरस्कार पाने वाले वे विश्व के पहले अभिनेता थे। एक अभिनेता को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार मिलना उस अभिनेता के चुनौतीपूर्ण अभिनय कौशल को ही प्रदर्शित करता है।टी०वी० शोज के दौर में गब्बर मिक्स के लिये उन्हें चैनल वी ने भी सम्मानित किया, इसके अलावा उन्होंने एक एलबम जज्बा भी जारी किया। फिल्मों से भले ही निर्मल दा को पहचान मिली हो, लेकिन रंगमंच के लिये उनका दिल हमेशा धड़कता रहा। कुछ समय के लिये उन्होंने तारा आर्टस ग्रुप, लन्दन  के लिये भी कार्य किया और लगभग १२५ नाटकों में काम किया। उन्होंने अपने थियेटर ग्रुप संवेदना  की स्थापना १९९४ में की और एक अभिनय स्कूल फ्रेश टेलेन्ट अकादमी  की स्थापना गाजियाबाद में की। अपने थियेटर ग्रुप संवेदना के द्वारा उन्होंने धर्मवीर भारती द्वारा लिखित अंधायुग और १८ दिन मंचित होने वाली महाभारत का भी मंचन किया। निर्मल दा ने रंगमंच के लिये भारत में ही नहीं बल्कि लंदन, फ्रांस, जापान और आस्ट्रेलिया में भी कार्य किया।18 फरवरी 2010 को मुंबई में आख़िरी सांस ली थी. जानकारी के मुताबिक़, उन्हें दिल का दौरा पड़ा था और महज 48 वर्ष की अल्पायु में ही वे दुनिया छोड़ गए. ‘इस रात की सुबह नहीं’, ‘प्यार किया तो डरना क्या मार्च, २०१० में प्रदर्शित होने वाली लाहौर फिल्म उनकी आखिरी फिल्म है।निर्मल दा ने हमेशा चुनौतीपूर्ण किरदारों को ही अपने कैरियर में तरजीह दी, अमोल पालेकर निर्देशित फिल्म दायरा में जब उन्हें एक अभिनेत्री का किरदार निभाने को कहा गया तो उन्होंने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया और १९९७ में उसके लिये उन्हें फ्रांस के प्रसिद्ध वालेंतिये पुरस्कार से नवाजा गया। गौरतलब है कि यह पुरस्कार उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के लिये दिया गया था और यह पुरस्कार पाने वाले वे विश्व के पहले अभिनेता थे। एक अभिनेता को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार मिलना उस अभिनेता के चुनौतीपूर्ण अभिनय कौशल को ही प्रदर्शित करता है। निर्मल दा बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे, वे एक अच्छे अभिनेता, नाट्यकर्मी, निर्देशक, संगीतज्ञ और गायक भी थे। नैनीताल के लोग आज भी उनकी गायी होलियों को याद करते हैं।जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता है। उन्होंने कहा कि निर्मल ने कम समय में ही बॉलीवुड में अपनी अलग पहचान बनाई थी। इसी के साथ ही हमारा  निर्मल पाण्डे उर्फ नानू उर्फ परुवा डान नाम का चमकता सितारा अनन्त में विलीन हो गया। थे,  उन्हें अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है।सरकारी अमले का ध्यान इस तरफ खींचने की कोशिश भी की गयी मगर कोई सफलता नहीं मिली.लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं।

 

 

 

 

 

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *